Saturday 12 June 2021

महात्मा गांधी - अगर मैं भ्रम में नहीं रहता तो सम्भवतः देश आजाद नहीं होता.

मनुष्य एक रिश्ते बनाने वाला प्राणी है। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो खुद से अलग लोगों के साथ रिश्ते बनाता है और रिश्ते बनाने की इस प्रक्रिया में हम सब अनुवाद के जरिये जीते हैं। क्योंकि हर व्यक्ति एक दूसरे की भावना का अनुवाद करता हूँ। जब हम रिश्ते कायम करते हैं तो हम केवल एक तरह के लोगों के साथ रिश्ते कायम नहीं करते। सबसे समृद्ध व्यक्ति वो है जिसके दोस्त उसकी भाषा से बाहर हों और कई भाषाओं के हों और कई राष्ट्रीयताओं के हों। हमारे देश में रिश्ते बनाने की सबसे ज्यादा सीख अगर किसी आदमी ने दी तो उसका नाम महात्मा गांधी था। पूरी दुनिया के लोगों से रिश्ते बनाओ रिश्तों की इज्जत करो और जब रिश्ते बनाओ और अपने से भिन्न व्यक्ति को इत्मीनान दो। इंसानियत का सबसे बड़ा इम्तिहान  वह है कि क्या हम अपने से भिन्न व्यक्ति को इत्मीनान देते हैं या नहीं।

1946-47 में गांधी  नोआखाली में पैदल पैदल एक गांव से दूसरे गांव एक घर से दूसरे घर इस सवाल से जूझ रहे थे कि क्या हिंदुस्तान में अलग अलग प्रकार के लोगों के बीच एक दूसरे से रिश्ते बनाने की ताक़त बची रहेगी या नहीं बची रहेगी?  गांधी नोआखाली  के हिंदुओं को समझा रहे थे कि मैं तुम्हारा दुख समझता हूँ। तुम पर हमला हुआ है लेकिन तुम अपना घर छोड़कर कहीं नहीं जाओगे।  नोआखाली की मिट्टी  तुम्हारी मिट्टी है और तुम्हें उन्ही मुसलमानों के साथ रहना होगा जिन्होंने पागलपन के जुनून में आकर तुम पर हमला किया है। दूसरी ओर गांधी मुसलमानों को ये चेतावनी दे रहे थे कि पाकिस्तान एक ख्याल है लेकिन नोआखाली एक हकीकत है। आपका और हिंदुओं का मिट्टी का रिश्ता है। और यह रिश्ता पाकिस्तान के ख्याल से कहीं ज्यादा मजबूत है।

गांधी जब नोआखाली में शांति अभियान के लिए पहुंचे थे, तो वहांपर उनका बांहे खोलकर स्वागत नहीं हुआ था।नोआखाली के श्रीरामपुर में समुद्र के किनारे बनी झोपड़ी में उन्होंने अपने अनुयायियों को बुलाया और कहा मेरी अंतरात्मा की आवाज ने मुझे निर्देशित किया है कि जो नफरत यहां की हवा में घुली हुई है उसे मुझे अपनी देह से महसूस करना होगा। प्राचीन समय में लोग पैदल तीर्थयात्रा पर निकलते थे मुझे भी पैदल निकलना होगा। किंतु में तीर्थों की नहीं नोआखाली के गांवों की यात्रा पर नँगे पैर निकलूंगा। जो हिंसा और नफरत की आग यहां बिछी हुई है  उस आग को बुझाऊंगा।मैं अपने साथ चार सहयोगियों को रखूंगा। ये मेरे साथ गांव गांव भटकेंगे। जो मुझ पर गुजरेगी वह इन पर गुजरेगी। मैं एक एक घर जाकर हिन्दू और मुसलमानों को समझाऊंगा। मुझे अपने सिद्धांतों की जांच करनी है। यदि मेरी अहिंसा नोआखाली में खरी उतरती है तो पूरे देश को एक संदेश मिल जाएगा। न केवल देश अपितु पूरी दुनिया के सामने सिद्ध हो जाएगा कि मानवता की भलाई किस में है। हिंसा में या अहिंसा में।

गांधी का मुसलमानों द्वारा भारी विरोध किया गया।  उन पर कांच के टुकड़े फेंके गए उनके रास्ते पर मलमूत्र फेंका गया। गांधी ने इसका जवाब यह दिया कि यदि आप मेरे रास्ते में कांच और मल फेंकोगे तो मैं अपने पांव से चप्पल उतार कर तुम्हारी बिछाई गई नफरत के टुकड़ों पर नंगे पैर चलूंगा। मैं उस नफरत को खुद  अपनी देह में महसूस करना चाहता हूँ, जो इस वक्त विष की तरह नोआखाली की हवा में घुली हुई है।

गांधी ऐसी नफरत से लड़ रहे थे जो गांधी से कहीं अधिक बड़ी थी। गांधी को पता था कि उस नफरत के आगे उनकी ताकत बहुत कम है। फिर भी लड़े। क्योंकि उनका कहना था कि अगर नफरत सच्ची है तो मेरी लड़ाई भी उतनी ही सच्ची है। और मैं सिर्फ इस वजह से अपनी लड़ाई नहीं छोड़ सकता कि ये नफरत ज्यादा बड़ी और ताकतवर दिखाई पड़ रही है। अगर मेरी यह लड़ाई सच्ची है तो मुझे इसे भी अपने वजूद के साथ व्यक्तित्व के साथ  सामने लाना होगा।

इसलिए जो लोग खुद को गांधी से प्रेरित समझते हैं और खुद को गांधीवादी कहने की भूल भी करते हैं उन सभी को अपने आप से यह प्रश्न करना पड़ेगा कि क्या हम खुद पर वह काबू कर सके हैं जो हम दूसरों में देखना चाहते हैं।  इसलिए गांधीवादी बनना बहुत कठिन काम है। हम गांधी का उपदेश देकर गांधीवादी नहीं बन सकते। गांधीवादी होने का मतलब है कुछ करते रहना। हम बिना कुछ किये गांधीवादी नहीं बन सकते। सिर्फ भाषण देते हुए, प्रवचन करते हुए, वक्तव्य देते हुए हम  गांधीवादी नहीं हो सकते।  गांधीवाद का मतलब  चरखा कातना नहीं है, जब 2 अक्टूबर 1947 को गांधी के 78 वें जन्मदिन पर यह अपील की जाती है कि लोग 78 दिन तक चरखा कातेंगे, 78 किलो सूत जमा कर गांधीजी को भेंट करेंगे। इसके जवाब में गांधी ने कहा कि खादी का पहला दौर खत्म हो चुका है । खादी के पहले दौर का मतलब था समाज के गरीब लोगों को उनकी ताकत का अहसास कराना । खादी का दूसरा दौर अब शुरू होता है और खादी के दूसरे दौर का मतलब है अहिंसा। इस दौर में गांधी यह कहते हैं कि मैं अब समझ पाया हूँ कि भारत के लोगों ने अहिंसा को रणनीति बनाया उसे अपना जीवन दर्शन नहीं बनाया। इसीलिए यह हिंसा तब उभर कर आई जब हमारे हाथ में सत्ता आयी। सत्ता आने पर हमने यह दिखला दिया कि हम दरअसल अहिंसक नहीं है और हम उस हिंसा का इस्तेमाल समाज के सबसे कमजोर और अहिंसक व्यक्ति पर भी कर सकते हैं। इस तरह अब मैँ खुद को असफल महसूस कर रहा हूँ । शायद यही ईश्वर की इच्छा थी कि मैं भ्रम  में रहूं। अगर मैं  भ्रम में नहीं रहता तो सम्भवतःदेश आजाद नहीं  होता।

नोट- इस लेख  के कुछ अंश दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो  अपूर्वानन्द के भाषण से हैं। संक्षिप्त में एडिट मैंने किया है।

© अवधेश पांडे
7 मार्च 2021
#vss

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