Wednesday 23 June 2021

किसान आंदोलन और स्वामी सहजानंद

( यह तस्वीर प्रियवर  Mahanth Rajiv Ranjan Das  , जो स्वामी जी के कॉमरेड-इन-आर्म्स तथा हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध लेखक,  समाजवादी  चिंतक रामवृक्ष बेनीपुरी जी के नवासे हैं, के सौजन्य  से।) 

किसान आंदोलन में कूदने के पूर्व स्वामी जी ने अपनी राजनीतिक सक्रियता की शुरुआत गाँधी जी से प्रभावित होकर की थी। दरअसल, असहयोग और खिलाफ़त का दौर आसन्न था जब उन्होंने अंग्रेज़ी अख़बारों के पढ़ने की तरफ मुड़े थे। वहीं से उनकी दिलचस्पी सियासत की तरफ़ मुड़ी। कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लेना शुरू किया। असहयोग आंदोलन में क़ूद पड़े। जेल गए। लगभग एक साल की सख़्त सजा को भोगते हुए उन्हें
जेल में विश्व के मशहूर लेखकों की रचनाओं को पढ़ने का मौक़ा मिला क़ुरान और बाइबिल से भी से बावस्तगी बढ़ी।  गीता के पुनर्पाठ से विचारों में परिपक्वता कुलांचे मारने लगीं।  सिविल नाफ़रमानी के आंदोलन में भी जेल गए । जेल में नेताओं के व्यवहार से वे खिन्न हो गए। छोटी छोटी सुविधाओं के लिए जहाँ राष्ट्रीय नेता जेल आचरण का निर्वाह नहीं कर रहे थे वहाँ स्वामी जी ने सरकार प्रदत्त सभी अतिरिक्त सुविधाओं को ठुकराकर एक सेलनुमा ज़गह में क़ैद होना मुनासिब समझा। फलतः उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ा और वे जब जेल से बाहर आए तो जेल के कटु अनुभवों और सेहत पर पड़नेवाले असर से वे कुछ दिनों तक डिप्रेशन के शिकार भी रहे ।  लेकिन उसी समय ज़मींदारों और हुकूमत की दुरभिसंधि से काश्तकारी संशोधन बिल को पुनः पारित करने की कवायद ने उन्हें झकझोर दिया। मानो कोई उन्हें नींद से जगा दिया हो  ! किसानों के प्रति ऐसा उनका प्रेम था! ज़मींदारों और धनी किसानों ने किसान सभा के सामानांतर किसानों के फ़र्ज़ी हितों की दुहाई देकर युनाइटेड पार्टी बनायी थी जिसकी बदौलत सरकार और ज़मींदार दोनों काश्तकारी संशोधन बिल को फिर से ठंढे बस्ते से बाहर लाकर पास कराने की जुगत में लग गए थे। लेकिन इस दफ़े भी स्वामी जी की समर्पित सक्रियता ने उनकी मंशा को कामयाब होने नहीं दिया । 
 
बहरहाल, इस क्रम में उन्हें एक और अनुभव के दौर से साबका पड़ा। उन्हें तबतक ज़मींदारों और कांग्रेस नेताओं, ख़ासकर गाँधी जी पर भरोसा था कि वे किसानों के हितों के साथ कुछ न कुछ समन्वयकारी हल बिठा लेंगे। ज़मींदारों और कांग्रेस नेताओं के साथ उनकी अर्ज़ी और पत्रव्यवहार से यह स्पष्ट होता है। लेकिन जब ज़मींदार लगाने के सवाल पर, ख़ासकर 1934 के भीषण भूकंप के आपदकाल में भी ज़मींदारों ने किसानों को कोई रियायत देने को नहीं सोची, स्वामी जी ने कांग्रेस और गाँधी का दरवाज़ा खटखटाया और उधर से भी टका सा ज़वाब मिला कि लगान के सवाल पर कांग्रेस कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी और किसानों को ज़मींदारों को लगाने चुकाने में किसी प्रकार का आनाकानी नहीं करनी चाहिए तब स्वामी जी का गाँधी जी से भी मोह भंग होना शुरू हो गया। यहीं से वे सोशलिस्टों, सुभाष बाबू और वामपंथी खेमे के साथ होना शुरू कर दिए। उन्होंने ख़ुद लिखा है कि "प्रायः चौदह साल की बनी बनायी गाँधी भक्ति समाप्ति के कगार पर पहुँच गयी"। 
 
अब वह सीधे ज़मींदारों से टकराने की तैयारी में जुट गए। इसके लिए उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व की भी परवाह नहीं करने को ठान लिया।  उन्हीं के शब्दों में:
   " मेरी समझ हो गई कि मिट्टी का भी ज़मींदार होगा तो वह उतना ही ख़तरनाक होगा। इसलिए ज़मींदारी के ख़ात्मे के लिए किसान सभा आवाज़ बुलंद करे " 
     
1934 के ही हाज़ीपुर के प्रांतीय किसान सभा सम्मेलन में नारा दिया गया , "ज़मींदारी प्रथा ख़त्म हो"! उधर कांग्रेस ने भी किसानों के उभार को देख कर अपने लखनऊ अधिवेशन में एक किसान कार्यक्रम तैयार करने की दिशा में आगे बढ़ी जिसका सबने स्वागत किया। लेकिन कांग्रेस के इस किसान-कार्यक्रम के बारे में ही ज़ल्दी भ्रम टूट गया जब स्वामी जी और किसान सभा ने पाया कि अगले ही साल कुछ ही महीने बाद 1937 के धारा सभा के चुनाव में कांग्रेस ने अपने वास्तविक कार्यकर्ताओं और नेताओं को दरकिनार कर ज़मींदार वर्ग के लोगों को टिकट देने के काम को अंजाम दिया। स्वामी जी ने इससे दुखी होकर कांग्रेस की प्रांतीय कार्यकारिणी से इस्तीफ़ा दे दिया। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद सरीखे नेताओं के यह कहने पर चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस ज़मीदारी प्रथा ख़त्म करने का जोर शोर से प्रयास कर निर्णय लेगी वे ज़ल्दी मान गए और चुनाव में जबरदस्त अभियान चलाकर किसानों को  कांग्रेस उम्मीदवारों के पक्ष में वोट देने के लिए मना लिया। कांग्रेस की सरकार बन गयी। प्रांतीय किसान सभा के संस्थापक महासचिव बने डॉक्टर श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री बने। 

इसी बीच बिहटा चीनी मिल मालिक डालमिया के ख़िलाफ़ गन्ने की क़ीमत के सवाल पर उनके आंदोलन को जबरदस्त सफलता मिली। 

चुनाव में कांग्रेस की जीत और सरकार बनने की पृष्ठभूमि में सारन ज़िले में आयोजित राजनीतिक सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किया गया कि वग़ैर किसी मुआवज़े के ज़मींदारी प्रथा समाप्त की जाय। लेकिन कांग्रेस की ज़मींदार परस्त सरकार व संगठन इस मांग पर तवज़्ज़ो देने के बजाय स्वामी सहजानन्द सरस्वती समेत किसान सभा के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पेश किया।  स्वामी जी ने उसी दौर में दो बुकलेट लिखकर सरकार का पर्दाफाश किया, एक,  "The Other Side Of The Shield   और दूसरी किताब थी "Rent Reduction Bill: How It Works In Bihar" 

इसके साथ ही स्वामी जी और किसान सभा ने पूरे प्रांत का जबरदस्त दौरा कर बकाश्त आंदोलन का इतिहास रचा था । यह सत्याग्रह और आंदोलन इतना व्यापक रूप लिया कि 1939 में किसान सभा की सदस्यता 8 लाख तक पहुँच गयी।इसी की प्रतिक्रियास्वरूप ख़ुद राजेन्द्र प्रसाद ने कांग्रेस  कार्यकारिणी में स्वामी जी और किसान सभा के विरुद्ध उक्त प्रस्ताव पारित करवाया। 

कांग्रेस के साथ किसान सभा और स्वामी जी के अंतर्विरोध बढ़ते चले गए।  जब सभी वामपंथियों का एक लेफ़्ट कॉर्डिनेशन कमेटी के मोर्चे के तले जिसके निर्माण में स्वामी जी की महती भूमिका थी सत्याग्रह और आंदोलन शुरू हुआ तब 

अंत में सुभाष चन्द्र बोस के साथ उन्हें भी कांग्रेस छोड़ना पड़ा। उसके बाद वे कांग्रेस के ब्रिटिश सरकार के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध में कथित समझौते के विरोध में समझौता विरोधी कार्यक्रम में जुट गए। रामगढ़ कांग्रेस के समय सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में समानांतर समझौता विरोधी सम्मेलन हुआ था और फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना हुई थी उसके स्वागताध्यक्ष स्वामी सहजानन्द सरस्वती ही थे। सम्मेलन के बाद पलासा अधिवेशन में किसान सभा ने विश्वयुद्ध के संदर्भ में स्पष्ट साम्राज्यवाद विरोधी रुख अपना लिया। सहजानन्द ने नेताजीसुभाष चंद्र बोस के साथ मिलकर एक महीने से भी कम अवधि में लगभग 400 से भी अधिक सभाएं कीं। इसी क्रम में  उनकी गिरफ्तारी हुई और तीन साल के लिए हज़ारीबाग़ सेंट्रल जेल में डाल दिए गए। 
 
जेल जीवन को, जैसा कि उस वक़्त कांग्रेस तथा अन्य लोग भी उपयोग करते थे, स्वामी जी ने अध्ययन और लेखन के लिए उपयोग किया। उनकी तमाम महत्वपूर्ण लेखन जेल में ही हुआ।  आत्मकथा मेरा जीवन संघर्ष तथा मार्क्सवादी चिंतन से लैस "क्रांति और संयुक्त मोर्चा" जैसी किताबें उन्होंने जेल में ही लिखीं। इसके साथ ही, "किसान क्या करें", " किसान कैसे लड़तै हैं", " खेत मज़दूर ", " झारखंड के किसान " , "गीता हृदय" आदि पुस्तकों की रचना उसी जेल जीवन में ही संभव हुई। 
 
जेल जीवन में स्वामी जी का चिंतन का स्तर विश्वव्यापी हो चुका था। साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवादी सोच विश्व फ़ासिज़्म के आसन्न ख़तरे को पहचानने में कोई व्यवधान नहीं आने दिया। मार्क्सवादी समाजवादी सिद्धांत के अंतर्ष्ट्रीयतावाद की समझ उनके चिंतन का तब तक हिस्सा बन चुकी थी। इसलिए उन्हें ज्यौं ही मालूम हुआ कि हिटलर ने सोवियत संघ पर हमला कर दिया है  युद्ध के बदलते चरित्र को पहचानने में तनिक भी देर नही लगायी  । विश्व फासीवाद के विरुद्ध जंग में उन्होंने और किसान सभा ने भारतीय जनता की एकजुटता का आह्वान किया  । इससे चिढ़कर फ़ेबियन सोशलिस्ट जिनकी राष्ट्रवादी आग्रहशीलता सेकेंड इंटरनेशनल से ही जगजाहिर है किसान सभा से अलग हो गए लेकिन स्वामी जी ने इसकी परवाह नहीं की। लेकिन उनके लिए तब और मुश्किल हो गया जब जेल से निकलने के बाद किसान सभा के विजयवाड़ा अधिवेशन के बाद 1945 मे कम्युनिस्ट पार्टी भी मुज़फ़्फ़र अहमद की अध्यक्षता में अलग संगठन बना ली। 
 स्वामी जी की दिक़्क़ते यहीं नहीं रुकीं। कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संगठन को अलग कर लेने के बाद स्वामी जी ने अपने कई पुराने साथियों के साथ हिंद किसान पंचायत नाम से एक नया किसान संगठन बंबई में सम्मेलन कर खड़ा किया। लेकिन वहाँ भी लाल झंडे और मार्क्सवादी समझ पर स्वामी जी की अडिगता के चलते यह संगठन भी नहीं चल पाया। 

आज़ादी के बाद वे कांग्रेसी सत्ता के पूंजीवादी-सामंती वर्गचरित्र को देखते हुए स्वामी जी ने फिर से एक नयी किंतु सशक्त राजनीतिक पहल शुरू की। उस पहल का उद्देश्य था किसान मज़दूर की राज्यसत्ता क़ायम करने के लिए विपक्ष मेंएक सशक्त वामपंथी संयुक्त वमोर्चे का निर्माण करना। फरवरी 1948 में पटना में इसके लिए एक सम्मेलन का आयोजन भी किया। सोशलिस्ट पार्टी को छोड़कर 18 वामपंथी पार्टियों के नुमाइंदों ने इसमें शिरक़त की। 
 
इसके साथ ही उन्होंने किसान सभा को भी एकजुट करने का काम शुरू किया। कम्युनिस्ट नेता कार्यानंद शर्मा और  फॉरवर्ड ब्लॉकिस्ट शीलभद्र याजी के साथ अखिल भारतीय संयुक्त किसान सभा का गठन किया। स्वामी जी इसके जेनरल सेक्रेटरी बने। 
 
"महारुद्र का महातांडव"  की रचना इसी समय हुई जिसमें मिहनतकशों के लिए क्रांति का सीधा आह्वान है। किसान आंदोलन एक नई करवट के साथ मध्य बिहार में अंगड़ाई लेने लगा। हज़ारों की तादाद में किसान रैलियां आयोजित की जाने लगीं। लाखों की संख्या में किसानों ने रैलियों में शिरकत की। 

इससे अनुप्राणित होकर स्वामी जी अपने जीवन के आख़िरी संघर्ष के दौर में पिल पड़े। अक्तूबर 1949 को संयुक्त वामपंथी मोर्चे के मिशन को पूरा करने के लिए कोलकाता में आयोजित वामपंथी शक्तियों के सम्मेलन में "भारतीय संयुक्त समाजवादी सभा" का गठन किया। 

भगवान प्रसाद सिन्हा
© Bhagwan Prasad Sinha
#vss

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