यह एक दुखद स्थिति है कि हाल के दिनों में राजनीतिक कारणों से जातिवाद और वर्णवाद पहले की अपेक्षा अधिक जटिल हुआ है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में इसको कमजोर होना चाहिए था पर उस दौर में भी एक ओर जहां ब्रिटिश भेदनीति का विरोध किया जा रहा था, दूसरी ओर उसी घेरे में भविष्य में स्वतंत्र भारत में अपना हिस्सा पाने के लिए लोग जातिवादी आधार पर एकजुट हो रहे थे। मारवाडी महासभा की फाइलें देखते मुझे 1935 का उसका एक संकल्प पत्र पढ़ कर हैरानी हुई थी कि देश को अब स्वतंत्र होने से कोई नहीं रोक सकता इसलिए मारवाड़ियों को राजनीति में भी भाग लेना चाहिए। उस समय मेरा ध्यान इस ओर तो गया पर जिस अनुभव से गुजर चुका था उसकी ओर ध्यान नहीं गया जिसमें शिक्षा संस्थाओं के नाम भी अग्रवाल, मारवाडी, ब्राह्मण, कायस्थ, क्षत्रिय आदि नामों पर था। व्यक्तिगत अनुभव से यह जानता था वर्णवादी आग्रह आज भी सक्रिय हैं इस बीच लिखे अपने लेखों की प्रतिक्रियाओं से मैं चकित रह गया। जिनको उदार मानसिकता का समझता था वे भी कितने संकीर्ण और कठमुल्ले हैं कि उनसे बौद्धिक संवाद हो ही नहीं सकता। बात पुराणों की हो रही थी जिनके पौराणिक चरित्र को बिगाड़ने वाले ब्राह्मण थे इसलिए विचार के केन्द्र में यह तो आना ही था कि इतना गर्हित काम उन्होंने क्यों किया, इससे उन लोगों में बेचैनी स्वाभाविक जिन्हेोने न वेद पढ़ा न पुराण फिर इनकी महिमा को इस तरह दुहराया जाता रहा कि वेद-पुराण का ऐसा जादुई असर उनके मन पर गहरा है।आस्थावादी अल्पज्ञों में विश्वास ही एक मात्र संबल होता है इसलिए वे उससे इतनी दृढ़ता से चिपके रहते हैं उन विचार करने को भी एक आक्रमण मान लेते है।
जो भी हो, कल जैसे कहा था कि मेरी सहानुभूति अपने बन्धुजनो से नहीं उन थारुओं से है जिन्हें अन्याय और अत्याचार पूर्वक हमारे पुरखों ने भगा दिया था, उसी तरह दुहरा दूं कि मेरी श्रद्धा और सम्मान के पात्र क्षत्रिय और ब्राह्मण नहीं वैश्य और शूद्र हैं जिनके ऊपर पूरे समाज के पालन का भार रहा है। सामाजिक स्तरभेद में अपने को ऊपर रखने वाले दोनों वर्ण परजीवी रहे हैं। उनके बिना दैश और समाज का काम चल सकता है पर उनके बिना इनका नहीं। वह कपड़ा जिससे हम अपना तन ढकते हैं कोई ब्राह्मण या क्षत्रिय न बनाता है न बनवाता है। ये दोनों काम उनके हैं और वे न हों तो हम पशुओं की तरह नंगे हो जाएं। वह घर जिसमें रहते हैे उनके बनाए हैं. उनके अभाव में बानर बन जाएंगे। हमारी सारी दौलत, यहां तक कि हमारा दाना-पानी तक उनका बनाया या उपजाया हुआ है। इस देश के महाज्ञानी ब्राह्मण भी बौद्धिक उत्कर्ष उन तकनीशियनों के सामने बौना सिद्ध होगा जिन्होंने वह लोहा और इतना विशाल लौहस्तंभ उस युग में बनाया. हाथीदांत जैसी चिकनाई वाले शिलास्तंभ बनाए जो हजारों साल तक मौसम की मार सहते उस चिकनाई को आज तक बनाए हुए है, जिन्होंने कैलाश मंदिर का नक्शा तैयार किया और उसे अविश्वसनीय कलाकृति का रूप दिया और वह भी तब जब कि उन्हें अक्षर ज्ञान से वंचित कर दिया गया। उन्होंने जो कुछ बनाया या उपजाया उसे पूरे राष्ट्र को सोंप दिया, आपने उनको उससे भी वंचित कर दिया जो उन्होंने बनाया और उपजाया था, यहां तक कि उसके श्रेय से भी। उनके काम में कहीं कोई खोट नहीं निकलती, आपके काम में खोट ही खोट है। आप मुनादी के बल पर ज्ञानी बने हो जब कि मुनादी बजाना भी नहीं आता। पुराने धर्म ग्रंथों में शूद्रों के लिए अपमानजनक बातें की गई हैं, उसके लिए मैं आपको क्षमा कर सकता हू पर जब उसी को आज भी कुछ लोगों को दुहराते देखता हूं तो उत्तेजित होना स्वाभाविक है और इसीलिए कल चेतावनी दी धी, ‘पावहुगे ‘कल’ आपन कीनी।’ और वह अब आपके सामने है:
ब्राह्मण जो दान-दक्षिणा पर पलता था उसको दान दक्षिणा मिलता किससे था? क्षत्रियों और वैश्यों से। यदि उसकी अपेक्षा से कुछ कम रह जाय तो उनका ही दुश्मन बन जाता था। करता क्या था, पुरानी सीमा में राजद्रोह और देशद्रोह। यह मैं नहीं कहता, वही कहता है:
“यदि कामयेत विशा क्षत्रं हन्यामीति योऽरण्येऽनुवाक्यो गणस्तमितरैर्गणैर्मोहयेद् विशा वा एतत् क्षत्रं हिनस्ति, यदि कामयेत क्षत्रेण विशं हन्यामीति, योऽरण्येऽनुवाक्यो गणस्तेनेतरान् गणान् मोहयेत, क्षत्रेण वा एतद्विशं हन्ति।”
(मैत्रायणी संहिता 3.3.10)
अब इस परिस्थिति में यदि नंदिनी के विविध अंगों, उपांगों, उत्सर्जनों की उत्पत्ति मध्यदेश पर आक्रमण करने वालों को आमंत्रित करने की जो बात पहले संकेत रूप में कही थी कि ब्राह्मण अपने सुख-लाभ के लिए अपने देश के साथ विश्वासघात करता रहा। अभिधा और व्यंजना में स्वयं इसे कहता रहा। भाषा और साहित्य का एकाधिकार उसके पास था इसलिए वह अपनों को भी यही सलाह देता रहा।
अब भी विश्वास नहीं होता तो इस उद्धरण पर ध्यान दें
“The decline of Maurya authority is attributed why some scholars to a reaction promoted by the Brahman whose privileged position and is said to have been affected by the policy of Ashok. But there is nothing in the records of Ashoka himself to suggest that he was an enemy of the Brahmanas. On the contrary he showed extreme solicitude for there welfare and extended his patronage to the members of this community as well as to the Buddhist, Jainas and Ajivikas.
(An Advanced History of India, RC Majumdar H.C. Raychaudhuri and Kali kinkar Dutta. P.111).
ध्यान इस बात पर लगातार रखा जाना चाहिए कि
(1) किसी समाज के सभी लोग एक जैसे नहीं होते। इस इकहरी समझ से संकीर्ण राष्ट्रवादी और मानवद्रोही मानसिकता एंटीसेमिटिज्म या एंटीब्राहमनिज्म भी हो सकती है। यदि कुछ ब्राहमण अशोक को बौद्ब मत अपनाने के कारण गालियां दे रहे थे, अशोप ने ‘देवानां प्रिय (देवानामप्पिय) का विरुद ग्रहण किया था तौ ॉदेवानां प्रिय इति मूर्खः कहने वाले ब्राह्मण भी थे, और अशोक के शासन के भुरि-भूरि प्रशंसक बाण और कल्हण भी थे(वही, पृ. वही)। प्रश्न फिर भी रह जाता है। अशोक ने या स्दयं बुद्ध ने ब्राह्मणों का कोई अपकार नहीं किया, इतनी गालियांं (उनका सूची जरूरी हो तो दी जा सकती है) सहीं, पर इसके बाद भी कभी कोई अपशब्द नहीं कहा। दोनों में सभ्य कौन था, असभ्य कौन? शिष्ट कौन, बदजबान कौन?
(2) सभी अवतारों का विकास जनता ने किया, उनकी लोकप्रियता बढं गई तेो ब्राह्मणों ने उसका उपयोग किया, पर एक को उन्हाें ने स्वयं गढ़ा पर उस् भगवान मानने के लिए आप को तय करना होगा कि चंगेज खां, हलाकू, दुर्रानी, अब्दाली, हिटलर,तोजो, ट्रूमन, और परशूराम में कौन बड़़ा या पूर्णावतार है। दूसरों के कारनामें गिनाना संभव नहीं, न उसकी जरूरत है, पर परशुराम का कारनामा यह कि वह सभी क्षत्रियों का बध करके समंतपंचक क्षेत्र में पांचकुंड बनाया और उसे क्षत्रियों के रक्त से भर दिया और उसी रक्त से पितरों का तर्पण किया। (महा. भा. आदि, 2. 3-5। मेरी समझ से परशुराम को सर्वोपरि स्थान मिलना चाहिए।
मैंने कहा यह पुष्यमित्र शुंप की छवि में गढ़ा गया चरित्र है जिसकी कोई ऐतिहासिकता नहीं और यह राजाश्रय से वंचित ब्राह्मणों की हीनभावना की क्षतिपूर्ति है, पर ब्राह्मण और हीन भावना, हो ही नहीं सकता,पर यदि यह आपके सुझाव के अनुसार वास्तविक चरित्र तो तय करो तुम्हारे अनुसार ब्राहमण मनुष्यों में गिने जाएंगे या नरपिशाचों मैं। कारण राक्षसों में भी किसी का चरित्र इतना घिनौना तो नहीं है।
एक ने दिनकर के महाकाव्य या खंडकाव्य (मैंने नाम सुना तो दिनकर मुझे कवि कम भूमिहार अधिक नजर आए। उन्होंने उनके व्यक्तित्व का उदात्तीकरण कर दिया, पर भूल गए कि उदात्तीकरण से भी पोराणिक चरित्र को ही नया जीवन मिलता है - परशुराम काव्य की संतान थी भूमिहारों की परशुराम सेना. जिसके विषय में कुछ कहने की जरूरत नहीं।
परशुराम के पिता थे जमदग्नि। उनका भी वैदिक जमदग्नि से कोई मेल नहीं। वह तपस्या करके फारिग हौते हैं और पहुंच जाते हैं प्रसेनजित के पास और उसकी बेटी रेणुका का हाथ मांगने। इतना सिद्ध ऋषि राजकन्या का हाथ मांगे तो राजा इन्कार कैसे कर सकता है। हमारी समस्या यह कि प्रसेनजित तो शुद्धोदन के समकालीन थे।शाक्य उनके अधीन सीमित स्वायत्तता प्राप्त करद राज्य था। अर्थात इस परशुराम की पैतृकता बौद्ध कान में लौट आती है। अब भी कुछ कहने को रह गया हो तो तर्क और प्रमाण के साथ संक्षेप में रखें।
(समाप्त)
भगवान सिंह
© Bhagwan Singh
परशुराम (3)
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