Thursday 24 June 2021

यूरोप का इतिहास (14)

“यहूदी नीच और गंदे लोग हैं। ये घिनौने लोग सोवियत को तोड़ने की साजिश करते रहते हैं।”
- कर्नल व्लादिमीर कोमारोव, सोवियत रूस

यहूदी थे क्या? अमरीकावादी या साम्यवादी? आखिर इतने पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी समाज से सबको नफ़रत कैसे हो गयी? उनको पश्चिम, पूरब, कहीं भी जगह क्यों नहीं मिली? अरब में तो धर्मयुद्ध समझ आता है, जो उनका इस्लामिक देशों से बाद में हुआ, लेकिन यूरोप जैसे महादेश में उन्हें जगह क्यों नहीं मिली? अगर उनको अरब से भी भगा दिया जाता, जिसके प्रयास वर्षों से चल ही रहे हैं, तो वे कहाँ जाते? 

बुद्धिजीवी पूरी दुनिया में वाम-धारा के ही हैं। यही उनकी जगह है, जहाँ वे स्वयं को सबसे उचित स्थान पर पाते हैं।  उनका स्वर जनवादी होता है, और सामंतवाद या राजशाही के वे विरोधी होते ही हैं। कवि, कलाकार, साहित्यकार, समाजशास्त्री का ज्ञान आह से उपजता है, और वह सर्वहारा के स्वर हैं। अधिकांश यहूदी भी वही थे।

यहूदियों को हिटलर से पहले भी ईसाई भगाना चाहते थे, और यहूदी-विरोधवाद कोई आधुनिक इतिहास नहीं। बल्कि रूस की जारशाही उन्हें भगाने के इंतजामात कर चुकी थी। क्या रूस की क्रांति इन यहूदियों के दिमाग की ही उपज थी?

बोल्शेविक क्रांति के तीन चौथाई मुख्य सदस्य यहूदी ही थे। स्वयं त्रौत्सकी, जिन्होंने लेनिन के साथ क्रांति के बीज बोए, यहूदी थे। तमाम बुद्धिजीवी जिन्होंने साम्यवाद और सर्वहारा एकता का परचम लहराया, वे यहूदी ही थी। पूरे यूरोप में साम्यवाद के प्रचार में उनकी मुखर भूमिका थी। ज़ाहिर है, वे फ़ासीवाद के विरोधी थे, और हिटलर जैसे तानाशाह उन्हें अपना विपक्ष मानते थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि वे हिटलर-विरोधी थे भी। हिटलर ने तो खैर उनका अकल्पनीय नरसंहार किया, जो संपूर्ण मानवता पर कलंक है।

लेकिन, कम्युनिस्टों ने उन्हें क्यों भगाया? कम्युनिस्ट तो ईसाई भी नहीं थे, और उनकी पूरी जमात ही यहूदियों के दिमाग से चल रही थी। फ़ासीवाद के विरोध में और सर्वहारा एकता के यहूदी-बहुल संगठन मौजूद थे। वह तो वाकई अपनी बुद्धि से पूरे यूरोप में लाल झंडा लहरा देते। 

12 जनवरी, 1948 को सोवियत यहूदी थियेटर के प्रणेता, अलबर्ट आइंस्टाइन के दोस्त और मशहूर अभिनेता सोलोमन मिखोएल्स की हत्या हो गयी। ख़बर थी कि स्तालिन के मंत्री ने अपने कार्यालय में बुला कर गोली मारी, और उसके बाद मिंस्क की सड़क पर फेंक दिया। उनकी लाश के ऊपर से ट्रक चलायी गयी और स्तालिन ने उनकी मृत्यु को राष्ट्रीय शोक का दर्जा दिया।

इसके ठीक अगले वर्ष सभी यहूदी अखबारों और पत्रिकाओं पर पाबंदी लगा दी गयी। एक यहूदी चिकित्सकों के समूह को आतंकवादी समूह घोषित कर दिया गया, कि वे सोवियत नेताओं को ग़लत दवा देकर मारना चाहते हैं। यहूदियों को पकड़ कर चीन सीमा पर बिरोबिडझिन में भेज दिया गया, कि सभी यहूदी औद्योगिक सोवियत से दूर ही रहें। यह इलाका आज भी सोवियत का अपना ‘इजरायल’ कहा जाता हैं, भले वहाँ अब गिने-चुने यहूदी बचे। 

शेष कम्युनिस्ट यूरोप में भी यहूदियों का यही हश्र हुआ। चेकोस्लोवाकिया के शीर्ष स्तालिनवादी और पार्टी महासचिव स्लांस्की और उनके अन्य यहूदी साथियों पर CIA का एजेंट होने का इल्जाम लगा। उन पर अभियोग का रेडियो पर प्रसारण हुआ, जिसमें उन लोगों को कुत्ते और लोमड़ी जैसे विशेषणों से नवाज कर सार्वजनिक सजा-ए-मौत दी गयी। रोमानिया में यहूदियों को स्वेच्छा से देश छोड़ने कहा गया, और लगभग नब्बे हज़ार यहूदी इजरायल चले गए।

पहले फ़ासीवादियों ने यहूदियों को भगाया, और फिर साम्यवादियों ने। विडंबना यह थी कि दूसरा हथियार तो उनका ही तराशा था। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

यूरोप का इतिहास (13)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/13.html
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