Friday, 18 June 2021

मिथक - परशुराम (2)

एक बात का स्मरण दिलाना जरूरी है कि हम पुराणों पर बात नहीं कर रहे हैं, उनकी ऐतिहासिकता पर बात कर रहे हैं, और उनके पौराणिक काल (वह दौर जिसमें अठारह पुराणों की रचना हुई और रामायण और महाभारत में मिलावट की गई)  की प्रस्तुति के रूप और इसके पीछे काम करने वाले सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक सत्य की तलाश करते हुए अपने इतिहास को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं। 

हमारा उद्देश्य पुराणों की कमियां दिखाकर न तो उनका बहिष्कार करने का है, न ही उन्हें बदलने का।  प्रयत्न उनको समझते हुए पढ़ने का है।  
 
यह ठीक वही दृष्टि है जिससे  हम पश्चिम के वर्चस्ववादी सरोकारों से जान बूझ कर किए गए दूषण और अपव्याख्या के संदर्भ में अपनाते आए हैं  और उनके ही लिखे ग्रंथों की आलोचना करते, उनका खंडन करते, उनके ही अंतर्विरोधी विचारों से उनके विरुद्ध अपने आशय निकालते रहे हैं।  

हमने यह भी पहले ही सुझाया था कि वर्चस्ववादी दृष्टिकोण के पीछे हीनता की भावना काम करती है, और यह सतही, एकांगी और भंगुर होती है।  यह एक देश की दूसरे देश के प्रति, एक जाति की दूसरी जाति के प्रति और एक ही समाज के एक समुदाय की दूसरे समुदाय के प्रति हो सकती है और प्रायः नफरत का रूप ले लेती है। 
 
हम ऐसे लेखन  का आलोचनात्मक पाठ करने की सलाह देते हैं  जिसमें हम किसी साहित्य के तर्कसंगत और प्रामाणिक लगने वाले अंश का ग्रहण करते और शेष को त्याग देते हैं।  यदि हमारी आलोचना ऐसी हो कि अपने समूचे साहित्य में कोई न कोई कमी  निकालते हुए हम उसे समग्रतः त्याग दें तो हमारे पास कुछ बचेगा ही नहीं और जिसके पास कुछ है ही नहीं वह दूसरों का हो सकता है, पर दूसरों से कुछ ग्रहण नहीं कर सकता।   

ग्रहण करने को लिए अपनी जमीन और अपना दिमाग चाहिए।  उसी से तय होता है कि आपको दूसरों से लेना क्या है।  दूसरों से ग्रहण करना उतना ही जरूरी है जितना अपनी विरासत को संभालना।  हम अपने साहित्य की  जिन कमियों की चर्चा कर रहे हैं वे केवल इसके एक पक्ष से संबंधित हैं जो समग्र को त्याज्य नहीं बनाता।

हम पहले यह दावा कर चुके हैं कि हमारा पुराण दुनिया के किसी भी देश की तुलना में अधिक समृद्ध,  अधिक प्राचीन, ऐतिहासिक स्रोत के रूप में अधिक विश्वसनीय है और इसका जो तथ्यतः गलत, अतिरंजित या पाखंडपूर्ण है उससे भी सामाजिक-आर्थिक और वैचारिक इतिहास को समझने में मदद मिलती है।

जहां आकर हम कुछ उलझ गए हैं वह उन पुराण ग्रंथों से संबंध रखता है जिनमें वास्तविक पौराणिक सामग्री का बहुत छोटा अंश ही प्रयोग में लाया गया और शेष को छिपाने या झुठलाने का प्रयत्न किया गया। हमारे सामने समस्या उसके सही गलत का मू्ल्यांकन करने का नहीं है।  हम कह आए हैं कि इतिहासकार के सामने अच्छे-बुरे जैसा कुछ नहीं होता, दोनों उसके लिए तथ्य होते हैं  और वह केवल यह समझना चाहता है कि ऐसा क्यों हुआ, या किया गया और उसके क्या परिणाम हुए। हम भी इसकी ही पड़ताल कर रहे हैं। 
 
इसके पीछे एक लंबा इतिहास है जो बौद्ध मत से बहुत पीछे जाता है। यह विचारधारा के टकराव से अधिक आर्थिक समस्या के रूप मेंं सामने आया था।  आगे चलकर श्रेष्ठताबोध  इससे जुड़ गया। 
 
हम जिस प्राकृतिक विपर्यय का उल्लेख बार-बार करते हैं और जो कई शताब्दियों तक बना रहा था, वह एक युगांतर था और इसी रूप में (त्रेताद्वापरयोः सन्धौ) महाभारत (शांतिपर्व, 139) में इसे चित्रित भी किया गया।
 
इसके साथ नगर सभ्यता और देसी से लेकर विदेश व्यापार का पूरा तंत्र चरमरा गया। इसी के कारण सिंधु-सरस्वती क्षेत्र के लोग घबराकर उत्तर, पूर्व और दक्षिण की ओर भागने लगे:
निवृत्त यज्ञ स्वाध्याया निर्वषट्कार मंगला।  
उत्सन्न कृषिगोरक्ष्या निवृत्त विपणापणा।...
शून्य भूयिष्ठ नगरा दग्ध ग्राम निवेशना। ...
बभ्रमुः क्षुधिता मर्त्या खादन्तश्च करस्परम्। 
ऋषयो नियमांस्त्यक्त्वा  परित्यक्त्वाग्नि दैवता।  
आश्रमान्संपरित्यक्त्य पर्यधावन् इतस्ततः । 
(शांतिपर्व, 139)

पश्चिम की ओर जाने का सवाल नहीं था, क्योंकि यह एक पट्टी के रूप में यूरोप  तक फैला हुआ अकाल था। उधर के भारतीय उपनिवेशों  के लोग अपने देश की ओर भाग रहे थे, या दक्षिण अनातोलिया की  ओर पलायन कर रहे थे।

इससे पहले कृषि-वाणिज्य-गोरक्षा पर वैश्यों का अधिकार था, या इन उपक्रमों से जुड़े लोग वैश्य माने जाते थे। भारतीय पशु व्यापार बहुत उन्नत था।  पर जब व्यापार तंत्र ही चौपट हो गया तो  पशुपालकों की सामाजिक हैसियत में कमी आई। पहले अर्थ व्यवस्था का भार वैश्यों और शूद्रों पर था। इसी के विषय में वैश्यों और शूद्रों को पूरे समाज के निर्वाह का भार वहन करने वाला रासभ कहा गया था - वैश्यं च शूद्रं च अनुरासभम्,  (शत.ब्रा. 6.4.4.12)।  संपन्नता थी, सबको  सबकी जरूरत थी।  सुदूर व्यापार में अजनबी और अराजक समाजों के बीच सुरक्षित रहने के लिए क्षत्रियों की जरूरत थी तो अनिष्ट निवारण और प्रकृति की अनुकूलता (स्वस्तिपाठों पर ध्यान दें) के लिए यज्ञ-याग की। अब वाणिज्य चौपट हो गया तो इसकी जरूरत ही न रही। 

इस संकट काल में क्षत्रियों ने भूमि पर कब्जा कर लिया। खेती की हालत अच्छी नहीं रही पर दो अनुजीवी वर्णों में क्षत्रियों की दशा उतनी खराब न थी जितनी ब्राह्मणों की। ब्राह्मण की शक्ति यज्ञ-याग की समाप्ति के साथ जाती रही।  वह अनुजीवी से परजीवी की स्थिति में आगया।  

दुर्भिक्ष उसे कहते हैं जिसमें भिक्षा भी न मिले। जो लोग दूसरों के दान पर जीवित रहते आए हों, और अपनी जीवन शेली में परिवर्तन करने को तैयार न हुए हों, उन पर इस दौर में क्या बीती होगी,  इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। एक ओर सामाजिक क्रम-व्यवस्था में सर्वोपरि होने का दंभ और दूसरी और शूद्रों से भी बुरी आर्थिक अवस्था। 

दुर्दिन बीतने पर, खेती-बारी में तेजी आने पर क्षत्रियों की दशा और अच्छी हो गई। ब्राह्मणों को अपराध बोध से गुजरना पड़ा- उनका दावा कि यज्ञ से वृष्टि कराई जा सकती  है व्यर्थ सिद्ध हो चुका था। पुस्तकें लुप्त हो चुकी थीं।  यज्ञ का स्थान तत्वचिंतन ने ले लिया था। जिसका नेतृत्व भी क्षत्रियों ने संभाल लिया था।  अब वेद-शास्त्र के ज्ञान को शब्दाडंबर बताया  रहा था। इस बीच सामाजिक हैसियत में एक और गिरावट आई थी। ब्राह्मण तत्व ज्ञान के लिए क्षत्रिय को गुरु बना रहा है।  राजसूय (?) यज्ञ में ब्राह्मण को क्षत्रिय से नीचे आसन पर बैठना पड़ता था।

इस दौरान एक और परिवर्तन होता है। वन्य गणों में कुछ का संगठित होकर क्षत्रिय होने का दावा करते हुए राज्य स्थापन - मल्ल, भल्ल,कोलिय, शाक्य, लिच्छवी/ निच्छवि, वज्जि,  आदि का उत्थान, जिनके संस्कार भिन्न हैं।  इन्हीं में से एक हैं शाक्य सिंह गौतम बुद्ध।

उनके सामाजिक दुख निवारण के उपायों, जिन्हें उन्होंने धर्म का नाम दिया, के प्रसार के लिए संगठित संघ के कारण वर्णव्यवस्था और पुरुष-प्रधानता, और  पुरानी बौद्धिक श्रेष्ठता पर तिहरी चोट लगी।  ज्ञान. नहीं आचरण की श्रेष्ठता - आगच्छ, पस्स, आचर - स्थापित हुई। 

सबसे बडा आघात था यज्ञ के बहाने जो मौज-मस्ती (यज्ञ का अर्थ उत्पादन है पर उसके पर्याय मख का अर्थ है आनंद, मौजमस्ती, कार्निवाल) वह इससे वंचित ही नहीं हुआ, अशोक, कनिष्क, हुविष्क (?) और हर्षवर्धन जैसे राजाओं की कृपा से मौजमस्ती का अवसर मठों को मिलने लगा था।  यह जले पर नमक छिड़कने जैसा था।  

इस पूरे दौर में शुंगकाल और गुप्त काल के सर्वसमदर्शी काल को छोड़ कर कोई दौर ब्राह्मण की अपनी गरिमा के अनुरूप न था।  

इस लंबे दौर का संचित  अपमानबोध, आक्रोश और प्रतिशोध भाव है जिसमें पौराणिक साहित्य रचा गया, नए चरित्र गढ़े गए और कच्ची से पक्की गालियों से साहित्य को भरा गया।  जिस परशुराम पर हम विचार करते हुए आज फिर एक जरूरी इतिहास की ओर मुड़ गए, उनकी छवि पुष्यमित्र शुंग को सामने रख कर गढ़ी गई थी जिसने  मौर्यवंश के अंतिम राजा वृहद्रथ का सेना के सामने  शिरच्छेद कर दिया था और उसके बाद संभवतः 21 मठों को उजाड़ा और उनके आवासियों को मौत के घाट उतारा था और जिसकी यह घोषणा कि जो भी किसी श्रमण (यहां श्रमण मुख्यतः बौद्धों से है पर जैनियों के प्रति भी द्रोह भाव वही था, कि जो कोई भी  किसी श्रमण का  सिर काट कर लाएगा उसे 100 दीनार मिलेंगे,  - यो मे एको श्रमण शिरो दास्यति तस्याहं दीनार शतं दास्यामि।

नाटक में आने के कारण कुछ अतिरंजित हो सकती है पर यह एक कड़वी सचाई को प्रकट करती है। बाद में जब उसे लगा कि इसका समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है तो कुछ मठों को दान भी दिया था जैसे औरंगजेब ने चित्रकूट में राम का मंदिर बनवााया था और पुजारी के वेतन का भी प्रबंध किया था।
(क्रमशः)

भगवान सिंह
© Bhagwan Singh 

परशुराम (1) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/1_16.html
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