यूरोप और एशिया में कोई अलौकिक भेद नहीं है। दोनों एक जैसे ही हैं। अगर भारत से तुलना करें तो जो पूर्वी यूरोप है, वह यूपी-बिहार जैसा है। पश्चिम यूरोप महाराष्ट्र-गुजरात जैसा। युद्ध से पहले भी, और बाद में भी, पूर्वी यूरोप में काबिल मजदूर हुए जो पश्चिम यूरोप के उद्योग सँभालते रहे। बिना पूर्वी यूरोप के पश्चिम चल ही नहीं सकता। मगर फिर भी, जो अकड़ पश्चिम में है, वह पूरब में नहीं। सोवियत अगर न भी आता, तो भी पूर्वी यूरोप में समाजवाद आ गया होता।
अगर खेती की ही बात करें। तीन रास्ते हैं। एक यह कि बड़ा जमींदार कई बीघा खेत रखे, किसानों से काम कराए, उन्हें दीहाड़ी दे। यह जमींदार आज के जमाने में एक कॉरपोरेट कंपनी हो सकती है। दूसरा यह कि सभी किसान मिल कर एक सहकारी संस्था बनाएँ, और बराबर काम कर गाँव को आगे बढ़ाएँ। तीसरा यह कि सभी अपने-अपने छोटे खेत संभालें, और कुछ उपकरण जैसे ट्रैक्टर आदि साझा कर लें।
पश्चिम यूरोप में पहला तरीका अपनाया गया, जिसे कॉन्ट्रैक्ट या कॉरपोरेट फार्मिंग कहते हैं। कंपनियों ने खेती का जिम्मा लिया, और किसानों ने मजदूरी की, उचित पारिश्रमिक मिला। यही मॉडल अब भारत में आने की उम्मीद है।
सोवियत और पूर्वी यूरोप ने दूसरा तरीका अपनाया जिसे सहकारी या कलेक्टिव फ़ार्मिंग कहते हैं। कुलाक (जमींदार) से जमीन छीन कर सरकार ने अपने कब्जे में कर लिया, और सभी मिल कर खेती करने लगे। यह मॉडल बेहतर होता अगर सरकार न छीनती, और इसे गाँव वाले ही सहकारी बना देते। जैसे भारत के अमूल कोऑपरेटिव आदि।
भारत जैसे देश अभी इन तीनों पद्धतियों को अलग-अलग स्थानों पर अपना रहे हैं। ज़ाहिर है पहले दोनों तरीके अधिक सफल हैं। लेकिन अपना खेत, अपनी उपज वाले भी कम खुश नहीं। सबसे बड़ी बात कि भारत में इस चयन की आजादी रही, कुछ थोपा नहीं गया।
● इससे संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़ा?
अगर पूर्वी यूरोप (रोमानिया, पोलैंड, चेक, एस्तोनिया आदि) के लोगों को देखें तो उनका समाज अधिक जुड़ा हुआ है। भारत की ही तरह चाचा के फूफा के मौसी तक लोग मिलते रहते हैं। परिवार-बोध अधिक है, और समुदाय बोध भी। आखिर उनकी पीढ़ियों ने साथ मिल कर काम किया हुआ है। उनके संगीत भी सामूहिक हैं, और उत्सव भी।
वहीं पश्चिम यूरोप के लोगों के पास धन की अधिक समझ है। वे दिखने में कुछ खड़ूँस लग सकते हैं (अपवाद-दक्षिण के कुछ हिस्से) लेकिन वे मानकों के हिसाब से अधिक खुश हैं। गाड़ी-बंगला, सुविधाएँ अधिक हैं। वे व्यक्तिगत जीवन में विश्वास करते हैं। बच्चे भी माँ-बाप से दूर ही रहते हैं, चाचा-फूफा तो छोड़ ही दें। उन्होंने भी साथ काम किया है, लेकिन कुछ प्रतियोगी माहौल में।
लेकिन, यह सब इतना सपाट नहीं है। मान लिया जाए कि भारत में बीस-तीस साल तक हम साम्यवादी पद्धति से जीते, और उसके बाद अचानक पूँजीवादी पद्धति आ जाती, तो क्या होता? जैसे एक परिवार में मिल-बाँट कर खाने वाले व्यक्ति को लगे कि मैं अगर अकेले कमाऊँ तो बेहतर जी पाऊँगा। अपना धन, अपनी मेहनत, यूँ भी किसी से क्यों बाँटना? यह इतना आकर्षक है कि परिवार की मान्यता उसके सामने बौनी हो जाती है। तभी तो मानव सभ्यता जो हज़ारों वर्षों तक सामुदायिक रही, व्यक्तिगत होती गयी।
बर्लिन के सोवियत हिस्से से लोग जब अमरीकी-ब्रिटिश हिस्से में जाते तो उसकी चकाचौंध पर रश्क आता। जब अमरीकी हिस्से से सोवियत हिस्से में जाते तो उन्हें उनकी सामूहिक खुशी पर रश्क आता। कुछ ही वर्ष पहले ये लोग हिटलर राज में एक साथ, एक सोच, एक संस्कृति वाले थे। इतनी जल्दी कैसे दो फाँक हो गए? घोर नाज़ी राष्ट्रवादियों को एक दिन यह कह दिया गया कि आज से आधे साम्यवादी, आधे पूंजीवादी। जिस हिटलर की तस्वीरें घर-घर में थी, उसका नाम किसी बच्चे को भी नहीं दिया गया।
जैसे यह सभी ‘वाद’ अपने आप में खोखले हों और मनुष्य का एक ही लक्ष्य हो, जो हज़ारों वर्ष पहले से रहा है। उत्तरजीविता या सर्वाइवल।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
यूरोप का इतिहास (11)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/11.html
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