Wednesday, 9 June 2021

परख़चे उड़ा दिए देश के बंटवारे ने - डैडी (2)

"तुम उधर हिन्दुस्तान निकल जाओ, मैं इधर ही रहूंगा अपने गाँव में।" 
धरमे शाह ने अपने भाइयों को समझाया। समझाते समय उन्हें ख़्वाबो ख़याल में भी यह अनुमान नहीं था कि उनका यह समझदार सा दिखने वाला फ़ैसला उनकी ज़िन्दगी का सबसे ग़लत फ़ैसला साबित होगा। उनके शहज़ादे की तरह पले बेटे का जीवन आधार ही मिट्टी में मिला देगा जिसे वे अपने परिवार के साथ भारत की ओर भेज रहे थे।

धरमे शाह कमालपुर गाँव में परिवार की साझी ज़मीन जायदाद को देखा-संभाला करते। भाइयों में सबसे तेज़ तर्रार थे सो ये सारी देख रेख उन्हीं के ज़िम्मे रहा करती। बेशक देश विभाजन के बाद पूरे पंजाब में दंगाई माहौल था पर ऐसा सुख सम्पन्न वैभव और वसीले छोड़ कर जाते भी कैसे ? सो, उन्होंने अपने भाइयों की निगरानी में पूरे परिवार को भारत रवाना किया और ख़ुद उधर ही टिक गए, बिल्कुल अकेले, अपनी जायदाद और ख़ानदानी हवेली के संरक्षक बन कर। वहीं लायलपुर के अपने गाँव में। वह जो बंटवारे के बाद अब मुसलमानों को मिले पंजाब का हिस्सा था, जिसे मग़रिबी पंजाब नाम दिया गया और जो एक नए देश पाकिस्तान का सबसे बड़ा राज्य था।

लायलपुर जिसका नाम बाद में फ़ैसलाबाद कर दिया गया, अकेला नहीं था। पंजाब के लगभग सभी प्रमुख शहर मुल्तान, सरगोधा, स्यालकोट, रावलपिंडी, गुजरांवाला, बहावलपुर, डेरा ग़ाज़ी ख़ान वग़ैरह सब मुसलमानों के हिस्से आए पश्चिमी पंजाब को मिले थे। भारतीय पंजाब में केवल अमृतसर ही नामचीन शहर था उस समय। लुधियाना, जालंधर, पटियाला आदि कोई विशेष अहमियत नहीं रखते थे तब। आज भी पंजाब के इन चारों शहरों की आबादी अगर इकट्ठी भी कर दी जाए तो पश्चिमी पंजाब के महानगर "लाहौर" से आधी है। लाहौर महानगर उस समय दिल्ली से भी बड़ा था। इसे भारत की 'फ़ैशन कैपिटल' कहा जाता था। यह पंजाबी आबादी, शिक्षा-दीक्षा, सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र ही नहीं बल्कि पंजाब राज्य की राजधानी भी था। इसका और अन्य प्रमुख सांस्कृतिक नगरों का छूट जाना पूरी पंजाबी सभ्यता की रीढ़ तोड़ने वाला साबित हुआ। लेकिन फ़िलहाल तो पश्चिमी पंजाब से शरणार्थी बन कर आए पंजाबियों की आर्थिक और पारिवारिक रीढ़ टूट चुकी थी। और मनोचा परिवार भी इसी तरह तबाह हाल था।

डैडी अपने परिवार के साथ अमृतसर होते हुए दिल्ली आ गए। आते समय सरहद पर सघन तलाशी ली गई क्योंकि कुछ कपड़े लत्ते ही ले जाने की इजाज़त थी। पर डैडी बचपन से ही शरारती और हिम्मती थे। अपने नाड़े के अंदर उन्होंने "सौ" रुपये का नोट खोंस लिया था। सन 47 में इसकी क़ीमत आज के दस हज़ार से कम न थी। इस नोट की कहानी बड़े लम्बे समय तक उनके परिवार में गायी गई। इसी की बदौलत पूरा परिवार अपेक्षाकृत कम कठिनाइयों के साथ दिल्ली पहुंच गया। लेकिन फिर भी एक त्रासदी तो घट ही गई। परिवार का सबसे दिलेर, लम्बा-ऊंचा और सुंदर सदस्य शाहजी का एक छोटा भाई "हंसराज" इस दुष्ट बंटवारे की भेंट चढ़ गया।

दिल्ली आ कर परिवार ने नई दिल्ली स्टेशन के सामने बसी एक पुरानी मुस्लिम बस्ती "पहाड़गंज" के कुछ मकान कब्ज़ा लिए जो यहाँ के उन मुसलमानों के थे जो उधर पाकिस्तान निकल गए थे। कुल चार-पांच मकानों में अपनी अपनी प्राथमिकता के साथ टिक गया यह परिवार। इस इलाक़े में बनियों, कुम्हारों और दलितों के भी कुछ मुहल्ले थे जिन्हें "लोकल" आबादी कहते थे। स्थानीय मुसलमानों के चले जाने के बाद ये लोकल अर्थात स्थानीय हिन्दू जो लगभग सभी हिंदीभाषी थे, अब अपनी ही बस्ती में 'अल्पसंख्यक' हो चुके थे। पहाड़गंज, मोती नगर, सब्ज़ी मंडी जैसी बस्तियां कुछ ही दिनों में इतने बड़े परिवर्तन से गुज़र जाएंगी यह स्थानीय हिंदीभाषियों ने कभी सोचा भी नहीं था ! केवल एक महीने में पंजाबी इन बस्तियों की "बहुसंख्यक" आबादी बन चुके थे। और पंजाबी भाषा देखते ही देखते दिल्ली के गली कूचों तक पहुंच गई थी।

डैडी और उनके चाचा-तायों का पूरा परिवार इसी दिल्ली के छोटे, पुराने से घरों में उसी दुर्गत में जी रहा था जो पश्चिमी पंजाब और सिंध राज्य से आए लगभग हर रिफ़्यूजी का मुक़द्दर बन चुकी थी। पता नहीं क्या सोचते होंगे वे ? और सोच कर हक्के बक्के से रह जाते होंगे शायद। अनहोनी सी हो गई थी उन संग। रुपहले आकाश से किसी ने धड़ाम से धरती पर पटक दिया था। रिलिजन नाम की जिस संस्था को छाती से लगाए घूमते रहे सदियों, अपनी असल औक़ात दिखा चुकी थी। ख़ैर, जीना तो फिर भी था। जिसे जो छोटा मोटा काम मिला, करने लगा। कोई खोमचे वाला, कोई रेहड़ी वाला, कोई कुली-मज़दूर और तांगेवाला हो गया। कोई लस्सी बेचने लगा, किसी ने लाहौरी कुल्फ़ी की छाबड़ी लगा ली। कुछ ऐसे भी बुज़ुर्ग थे जो विभाजन सदमे से उबरे ही नहीं। खाट पर ऐसे पड़े कि बंटवारे को कोस कोस कर जिये और मर खप कर ही उठे।  

परिवार के शाहाना अन्दाज़ में पले बेटे बेटियां बड़ी मुश्किल दो वक़्त की रोटी खा पाते। उनकी हैसियत के हिसाब से कहें तो वही गए बीते, छोटे दर्जे के काम उनके बड़ों ने भी अपना लिए थे। जो बच्चे थोड़े बड़े थे वे भी ज़िम्मेदार बन गए थे। लड़कपन भूल परिवार को कंधा देने में जुट चुके थे वे। एक अरबी भाषा का विद्वान था सो पुरानी दिल्ली में मुस्लिम लड़कियों को ट्यूशन देने लगा। एक और होनहार बच्चा पास ही एक लोकल सिनेमा के साईकल स्टैंड पर नौकरी करता और वहीं बैठे बैठे पढ़ाई भी करता। बूआ और डैडी भी अपने बाक़ी चचेरे भाई बहनों संग स्कूल जाने लगे। छठी कक्षा में दाख़िल डैडी की मनपसंद ज़बान "उर्दू" छूट गई थी। यहाँ तो हिंदी-इंग्लिश पढ़ाई जाती जो डैडी के पल्ले बड़ी मुश्किल से पड़ती। बचपन से ढंग के विद्यार्थी रहे ही कब वे ? और अब तो शाह जी भी नहीं थे जो हैड मास्टर को फ़ल सब्ज़ी और मिठाई की भेंट चढ़ा उन्हें पास करवा देते !

वे उधर पाकिस्तान में ही पड़े थे। यह सोच कर कि ये वक़्ती दंगे फ़साद हैं। हमारा गाँव चाहे जिस तरफ़ भी हो, हमारा गाँव है। बंटवारे की अप्रत्याशित फ़िज़ा में उभरी यह मज़हबी मारकाट और हिंसा समय के साथ थम जाएगी। उनके गाँव के मुसलमान जो सदा उनके दुख सुख के साथी रहे, आज भी उनके साथ थे। वे भी अपने शाह को दिलासा देते, " सब ठीक हो जाएगा, आपकी बेटी फिर अपनी सखियों संग खेलेगी। आपका शरारती बेटा फिर उसी नहर पे हमारे बच्चों संग कूद फांद कर रहा होगा। आपके आंगन में लस्सी-छाछ के घड़े और घी-मक्खन के कटोरे वैसे ही पड़े होंगे। आपका परिवार तो हमारी शान है। देखना शाहजी, एक दिन सब लौट आएंगे। आपको सदा अकेला नहीं रहना होगा। बस कुछ ही दिनों सब्र रखना है, फिर सब वैसा ही हो जाएगा।"

कितना ग़लत था कमालपुर गाँव के मुसलमानों का आशावाद ! और कितना ग़लत था धरमे शाह का यहीं डट जाने का फ़ैसला !  दोनों पक्ष जाने किस मिथ्या भ्रम में जी रहे थे !!
( क्रमशः )

राजीव कुमार मनोचा 
© Rajiv K Manocha 
#vss

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