Thursday, 3 June 2021

इस्मत चुगताई - संस्मरण :04

शाहिद साहब के साथ मैं भी एम. असलम साहब के यहाँ ठहर गयी. सलाम व दुआ भी ठीक से नहीं हुई थी कि उन्होंने झाड़ना शुरू कर दिया. मेरे अश्लील लेखन पर बरसने लगे. मुझ पर भी भूत सवार हो गया. शाहिद साहब ने बहुत रोका, मगर मैं उलझ पड़ी.
“और आपने जो ‘गुनाह की रातें’ में इतनी गन्दी-गन्दी पंक्तियाँ लिखी हैं. सेक्स एक्ट का वर्णन किया है, सिर्फ़ चटखारे के लिए.”
“मेरी और बात है, मैं मर्द हूँ.”
“तो इसमें मेरा क्या कुसूर है.”
“क्या मतलब?” वह गुस्से से लाल हो गये.
“मतलब ये कि आपको खुदा ने मर्द बनाया है इसमें मेरा कोई दखल नहीं और मुझे औरत बनाया है इसमें आपका कोई दखल नहीं. मुझसे आप जो चाहते हैं, वह सब लिखने का हक आपसे नहीं माँगा, न मैं आज़ादी से लिखने का हक आपसे माँगने की ज़रूरत समझती हूँ.”
“आप एक शरीफ मुसलमान खानदान की पढ़ी-लिखी लड़की हैं.”
“और आप भी पढे-लिखे और शरीफ खानदान से हैं.”
“आप मर्दों की बराबरी करना चाहती हैं?”
“हरगिज़ नहीं. क्लास में ज्यादा नम्बर पाने की कोशिश करती थी और अक्सर लड़कों से ज्यादा नम्बर ले जाती थी.” मैं जानती थी मैं कठदलीली की अपनी खानदानी आदत पर उतारू हूँ. मगर असलम साहब का चेहरा तमतमा उठा और मुझे डर हुआ कि या तो वह मुझे थप्पड़ मार देंगे या उनकी दिमाग़ी नस फट जायेगी.

शाहिद साहब की रूह फना (एक उर्दू मुहावरा है, तंग आना के अर्थ में) बस वह रोने ही वाले थे. मैंने बड़ी नर्म आवाज़ में हौले से कहा…”असल में असलम साहब मुझे कभी किसी ने नहीं बताया कि ‘लिहाफ़’ वाले सब्जेक्ट पर लिखना गुनाह है. न मैंने किसी किताब में पढ़ा कि इस…बीमारी…या…लत… के बारे में नहीं लिखना चाहिए. शायद मेरा दिमाग़ अब्दुर्रहमान चुग़ताई का ब्रश नहीं, एक सस्ता कैमरा है. जो कुछ देखता है, खट से बटन दब जाता है. मेरी कलम मेरे हाथ में बेबस होती है, मेरा दिमाग़ उसे बहका देता है. दिमाग और कलम के किस्से में हस्तक्षेप नहीं हो पाया.”
“आपको मज़हबी तालीम नहीं मिली.”
“अरे असलम साहब! मैंने ‘बहुश्ती जेवर’ पढ़ा. उसमें ऐसी खुली-खुली बातें हैं” मैंने बहुत मासूम सूरत बना कर कहा! 

असलम साहब कुछ परेशान-से हो गये. मैंने कहा, “जब बचपन में मैंने वो बातें पढ़ीं तो मेरे दिल को धक्का-सा लगा, वो बातें गन्दी. फिर मैंने बी.ए. के बाद पढ़ा तो मालूम हुआ कि वो बातें गन्दी नहीं हैं, बड़ी समझ-बूझ की बातें हैं जो हर आदमी को मालूम होनी चाहिए. वैसे लोग चाहें तो मनोविज्ञान और मेडिकल की किताबें हैं, उन्हें भी गन्दी कह दें.” 

दनादन खत्म होकर बातें नर्म लहजें में होने लगीं. असलम साहब काफी ठंडे हो गये. इतने में नाश्ता आ गया. और हम चार आदमियों के लिए इतना लम्बा-चौड़ा दस्तरख्वान सजा कि जिस पर पन्द्रह आदमी आसानी से खा सकते थे. तीन-चार तरह के अंडे, सादे तले हुए, खागीना, उबले हुए, शामी कबाब और क़ीमा, पराठे भी और पूरियाँ भी, तोस (टोस्ट), सफेद और पीला मक्खन, दही और दूध, शहद और सूखे-ताजे मेवे, अंडे का हलवा, गाजर का हलवा और हलवा सोहन.

“या अल्लाह क्या क़त्ल करने का इरादा है.” मैंने बहुत जलाया था. इसलिए उनके लेखन की तारीफ शुरू कर दी. मैंने उनकी ‘नरगिस’ और ‘गुनाह की रातें’ पढ़ी थीं. बस उनको ही खूब आसमान पर चढ़ाया. आखि़र में वह कुछ कायल से हुए कि कभी-कभी नंगापन साफगोई का काम करती है और अच्छी तालीम देती है. फिर उन्होंने खुद अपनी एक-एक किताब की खूबियाँ गिनानी शुरू की और मूड बहुत खुशगवार हो गया. बड़ी नरमी से बोले.
“तुम जज से माफी माँग लो.”
“क्यों? हमारे वकील तो कहते हैं, हम मुकदमा जीत जायेंगे.”
“नहीं, वह साला बकता है, तुम और मंटो माफी माँग लो तो वह मुकदमा खत्म हो सकता है. पाँच मिनट की बात है.”
“यहाँ के इज्जतदार लोगों ने सरकार पर जोर डालकर हम पर यह मुकददमा चलवाया है.”
“बकवास” असलम साहब बोले, मगर आँख नहीं उठा सके.
“तो फिर क्या सरकार ने या शायद बरतानिया के बादशाह ने यह कहानियाँ पढ़ी जो उन्हें मुकददमा चलाने की सूझी?”

“असलम साहब ये तो सच है कि कुछ साहित्यकारों, आलोचकों और भद्रजनों ने सरकार का ध्यान इस तरफ खींचा कि यह किताबें अनैतिकता फैलाने वाली हैं, उन्हें जब्त कर लिया जाये.” शाहिद साहब धीरे-से बोले.
“अगल अश्लील लेखन पर प्रतिबन्ध न लगाया गया तो क्या इनको सिर पर रखा जाये.” असलम साहब फट पड़े. शाहिद साहब कुछ अचकचा गये.
“तब तो हम सजा के ही हक़दार हैं.” मैंने कहा.
“फिर वही कठबहसी!”
(जारी)

© अनन्या सिंह
#vss

4 comments:

  1. बहुत सुंदर।

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  2. बेहतरीन । हर क्षेत्र में कई लड़ाईयां लड़ी गयी है पुराने समय मे तब आज आज़ादी का लुत्फ उठा रहे है आज की पीढ़ी ।

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  3. बेहतरीन । हर क्षेत्र में कई लड़ाईयां लड़ी गयी है पुराने समय मे तब आज आज़ादी का लुत्फ उठा रहे है आज की पीढ़ी ।

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  4. बेबाक वार्तालाप के रूप में एक अहम संस्मरण।

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