ब्रिटेन तो जीत कर भी हार गया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद चार राजशाही (जर्मन, ऑस्ट्रियन, रूसी, ऑटोमन) एक साथ खत्म हुई, वहीं द्वितीय विश्वयुद्ध के साथ ही ब्रिटिश राज भी खत्म हुआ। ऐसा शायद ही किसी प्राचीन युद्ध में होता हो कि विजेता की संपत्ति, सेना और जमीन बढ़ने के बजाय घटती ही जाए। आधुनिक युद्धों की यह समस्या है। हारने वाला तो हारता ही है, जीतने वाला भी जीत नहीं पाता।
ब्रिटेन, अमेरिका और सोवियत, तीनों को यूरोप से जितना मिला नहीं, उससे अधिक खर्च करना पड़ा। उससे पहले वे युद्ध में भी ख़ासा खर्च कर चुके थे। उदाहरणस्वरूप ब्रिटेन को जर्मनी से ढाई करोड़ डॉलर की आय हुई, और जर्मनी पर वार्षिक खर्च आठ करोड़ डॉलर था। पहली बार ब्रिटेन को अपने देश में ब्रेड कटौती करनी पड़ी। ब्रिटिश कोषाध्यक्ष ने कहा, “जर्मनी हमारी भरपाई नहीं कर रहा, हम अपने लोगों का पेट काट कर उनकी भरपाई कर रहे हैं”
अधिकांश उपनिवेशों, ख़ास कर भारत के मुक्त होने और आर्थिक बोझ के बाद ब्रिटिश सेना 80 % घट चुकी थी, और नौसेना जहाजों में तेल भराने का धन नहीं बचा।
वहीं, अमेरिका, जिसने युद्ध के दौरान सैन्य-अस्त्रों के ‘लीज़’ करारों से खासा कमाया था, युद्ध के बाद यूरोप में धन बहाए जा रहा था। जिन इमारतों को ध्वस्त किया था, उसे फिर से खड़ी कर रहा था । अमरीकी सेना ने कहा कि जर्मनी के लाखों भूखे लोगों को खिलाने में हमारी कटौती की जा रही है। अमरीका की तीन चौथाई सेना घटा दी गयी थी।
इसे पुण्य मानना ग़लतफ़हमी होगी। जर्मनी के भूखों को इसलिए नहीं खिलाया जा रहा था कि यह मानवता थी। अगर ऐसा है तो आज भी लाखों भूखे लोग हैं, उनको ये देश बैठ कर क्यों नहीं खिलाते? यह तो युद्ध के बाद का शक्ति-प्रदर्शन था।
सोवियत का इस मामले में कुछ रुख अलग था। वह जर्मनी को लूट कर, कारखानों के पुर्जे खोल कर अपने देश ले गया। वह अपने खर्च वसूलने में लगा था। बल्कि वह पूर्वी यूरोप के कब्जा किए क्षेत्रों से मजदूर बना कर भी अपने देश ले गया। यह काम ब्रिटेन या अमेरिका ने नहीं किया।
यूँ भी सोवियत ने भौतिक विस्तारवाद में भरोसा कम ही किया। वह वैचारिक विस्तारवादी देश था। यानी, जमीन की रजिस्ट्री अपने नाम भले न हो, लेकिन जमीन के बाशिंदे अपने हों। वह साम्यवाद का प्रसार और कम्युनिस्ट पार्टियों के मजबूत होने पर बल देती। उन देशों में निवेश में उसकी रुचि नहीं थी। वह तो चाहती थी कि वहाँ भी अमरीका और ब्रिटेन ही निवेश करते रहें, बस सरकार कम्युनिस्ट रहे। बाद में ऐसा कुछ देशों में हुआ भी।
इसलिए यह भय तो पूरी तरह ठीक नहीं था कि अगर अमरीका नहीं आता तो सोवियत पूरे यूरोप पर कब्जा कर लेता। यह जरूर था कि कम्युनिस्ट विचार पूरे यूरोप में पसर जाते, और कम्युनिस्ट सरकारें बन जाती। कहीं-न-कहीं यूरोप जो इन दोनों के मध्य स्थित है, वहाँ दोनों बातें हुई।
धन अमेरिका से आया, विचार सोवियत से। पूंजीवाद और समाजवाद का कॉकटेल यूरोप में ही बना। जनकल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) की रचना हुई।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
यूरोप का इतिहास (7)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/7.html
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