पेशावर का अफ़ग़ानी मार्केट भारत के सीमावर्ती इलाकों के नेपाली मार्केट जैसा है। वहाँ दुनिया भर के सामान सस्ते दामों पर मिल जाते हैं। वहाँ के अफ़ग़ानी कालीन और पेशावरी चप्पल तो मशहूर हैं। पठानों का यह शहर नब्बे के दशक से ख़ौफ़ में जीने लगा। लोग कहने लगे कि घर से निकलते वक्त जिंदा बचने की गारंटी नहीं।
जनरल मुशर्रफ़ को एक दहकता हुआ पाकिस्तान मिला। यहाँ दाऊद अब्राहम जैसे ‘मोस्ट वांटेड गैंगस्टर’ तो थे ही, दुनिया के सबसे ख़तरनाक आतंकवादी भी मौजूद थे। मीर कंसी नामक पाकिस्तानी ने 1993 में अमरीका के CIA मुख्यालय जाकर वहाँ दो अधिकारियों को मार दिया। 1997 में वह पाकिस्तान से गिरफ़्तार हुआ, और बाद में अमरीका ने मौत की सजा दी।
उसी साल रमजी युसुफ़ ने WTC में पहली बार विस्फोट किया। वहाँ से फ़िलीपींस भाग कर एक हवाई जहाज बम से उड़ाया, वहीं एक शहर में भी ब्लास्ट किया। वह जब 1995 में इस्लामाबाद में पकड़ा गया, वह एक साथ 11 अमरीकी विमान उड़ाने की योजना बना रहा था!
1999 में एक भारतीय विमान हाइजैक कर अफ़ग़ानिस्तान ले जाया गया, जिसके कारण भारत को मसूद अजहर को रिहा करना पड़ा।
जिस समय मुशर्रफ़ ‘आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध’ के लिए कमर कस रहे थे, उस समय भारत के संसद पर हमला हो रहा था। अगले ही महीने जनवरी 2002 में एक पत्रकार डैनियल पर्ल को कराची से अगवा कर लिया गया। अगवा करने वालों में एक वह ओमर शेख भी था जिसे भारतीय विमान हाइजैक के समय तिहाड़ जेल से रिहा किया गया था।
एक दिल दहलाने वाला विडियो पूरी दुनिया में प्रसारित हुआ, जिसमें पर्ल कहते हैं, “मैं एक यहूदी हूँ। मेरे पिता यहूदी। मेरी माँ यहूदी। मेरा पूरा परिवार यहूदी। मेरे इज़रायल से संबंध हैं।”
यह कहने के बाद पर्ल का गला काट दिया गया। इस कथन का क्या मतलब था? अगर लड़ाई यहूदी से थी, तो हमले अमरीका पर क्यों हो रहे थे? या यह लड़ाई सदा से यहूदियों से ही थी, और अमरीका को एक यहूदियों या यहूदी/व्यापारी मानसिकता का देश माना जाता है?
अगले वर्ष ख़ालिद शेख मुहम्मद नामक व्यक्ति पाकिस्तान से गिरफ़्तार हुआ, जिसने कहा कि उसने स्वयं डैनियल पर्ल का गला रेता था। हद तो यह कि ख़ालिद ने जिन सहयोगियों का नाम लिया, उनमें कुछ पाकिस्तानी सेना में भी थे।
परवेज़ मुशर्रफ़ न जाने किससे लड़ रहे थे? वह आतंकवाद के ख़िलाफ़ आखिर कहाँ से लड़ाई शुरू करते? अमरीका को इतने बिलियन डॉलर के एवज में क्या रिपोर्ट देते? दिखावे के लिए ही सही, मगर सत्तर हज़ार पाकिस्तानी फौजियों को आतंकवाद से लड़ने के लिए खैबर-पख्तूनवा और बलूचिस्तान भेजा गया। यह लड़ाई आतंकवादियों से कम, वहाँ के कबीलाई सरदारों से अधिक थी। ये इलाके कठिन खाईयों, दर्रों, और रेतीले पहाड़ी बनावट के थे, जिसमें पाकिस्तानी सैनिक टिक नहीं पाए। खबर थी कि आखिर जनरल मुशर्रफ़ ने अपनी बेइज़्ज़ती से बचने के लिए उन कबीलाई सरदारों को ही पैसे भिजवाए कि युद्ध रोक दें।
इस दिखावे के युद्ध के नाम पर अमरीका से दो बिलियन डॉलर और मिल गए। साथ ही कुछ उच्च-कोटि के युद्ध विमान भी मिले, जिसे पाकिस्तानी सेना ने संभाल कर रख लिया। रही बात बिन लादेन की। पाकिस्तान ने पूरा सहयोग देते हुए सीआइए के अधिकारियों को अपने देश में आने दिया, और बिन लादेन का पता लगाने में मदद की। वे उनको गोल-गोल घुमाते रहे, मगर यह नहीं बताया कि बिन लादेन यहीं पाकिस्तान में मौजूद है।
जनरल मुशर्रफ़ के ‘डबल गेम’ फ़ेहरिस्त के बाद भी कुछ लोग मानते हैं कि उन्होंने पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा ही काम किया। उन्होंने पाकिस्तान की छवि काफ़ी हद तक बचा कर रखी। कारगिल के बाद अगर अटल बिहारी वाजपेयी ने जनरल मुशर्रफ़ को आगरा में आमंत्रित किया, तो ज़रूर उनसे कुछ उम्मीद होगी।
आतंक के गढ़ होने के बावजूद अमरीका ने पाकिस्तान पर बम नहीं गिराया, न उनके परमाणु बम पर कब्जा किया। अपने रहते मुशर्रफ़ ने बिन लादेन का पता नहीं लगने दिया। यह जगहँसाई उनके बाद हुई।
मुशर्रफ़ के ख़ास मित्र तलत मसूद एक दिन परवेज़ मुशर्रफ़ के साथ बैठ टीवी देख रहे थे, जिस पर बिन लादेन का चेहरा उभरा। मुशर्रफ़ उनसे यूँ बतियाने लगे जैसे वह जानते हों कि लादेन आखिर कहाँ है। बाद में यह बात ISI प्रमुख एजाज़ुद्दीन बट्ट ने भी कहा कि लादेन के अब्बोटाबाद में रहने का इंतज़ाम मुशर्रफ़ के कहने पर ही किया गया था।
मुशर्रफ़ ने तलत मसूद से कहा, “हमें बाद में अल-क़ायदा और कश्मीरी मुजाहिद्दीनों को अलग करना होगा। पहला हमें खत्म करना है, दूसरा रखना है।”
तलत मसूद ने कहा, “यह नामुमकिन है जनरल। आप जिहादियों के यूँ चार डब्बे बना कर अलग-अलग नहीं कर सकते। वे सब एक ही हैं। कहीं और तबाही लाएँ न लाएँ, पाकिस्तान को ज़रूर तबाह कर देंगे।”
मुशर्रफ़ को भी इसका अंदाज़ा हुआ, लेकिन तब तक देर हो गयी थी।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 52.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/52.html
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