Saturday, 5 June 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 51.

“पाकिस्तान की अवाम एक बुरे चक्कर (vicious cycle) में फँसी है। जब जम्हूरियत आती है, तो करप्शन शुरू होता है। हमें लगता है कि फ़ौज ही बेहतर है। जब फ़ौज आती है तो तानाशाही शुरू होती है, और वापस ज़म्हूरियत की याद आती है। न जाने यह कब खत्म होगा?”
- एक पाकिस्तानी नागरिक का कथन

जनरल मुशर्रफ़ ने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ पर तमाम धाराएँ लगा कर जेल में बंद कर दिया। उनके भाई और तमाम नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया। कुछ की जम कर जेल में पिटाई भी हुई। आखिर एक साल बाद ही नवाज़ जेल से छूटे, जब उन्हें भाग कर सऊदी जाना पड़ा और उनकी अच्छी खासी सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। बेनज़ीर भुट्टो तो पहले से ही देश से बाहर थी। अब जनरल मुशर्रफ़ ही कर्ता-धर्ता थे। 

उनके आने बाद अन्य फौजी शासकों की तरह ही व्यवस्था में सुधार हुआ। भ्रष्टाचार और खुले-आम हथियारबाजी पर अंकुश लगे। यहाँ तक कि धर्मगुरुओं को किनारे किया गया। स्वयं मुशर्रफ़ ख़ास धार्मिक नहीं थे। 

उनके पिता से एक बार साक्षात्कार में पूछा गया, “जनरल दिन में पाँच बार नमाज पढ़ते हैं?”
उन्होंने कहा, “मैंने कभी नहीं पढ़ा। वह क्या पढ़ेंगे?”

बात यह भी थी कि मुशर्रफ़ मुहाजिर समुदाय से थे, जिनकी पाकिस्तान में ख़ास इज्जत होती नहीं थी। लेकिन अब तो उनका ही शासन था, तो यह बात मायने नहीं रखती थी।

मुशर्रफ़ को किसी भी तरह अमरीका का साथ लेना था। उनको मालूम था कि पाकिस्तान के शहर, सड़कें, बाज़ार, हथियार, सब अमरीका के सहारे ही आए। अब अमरीका को कोई ज़रूरत नहीं रही थी, तो पाकिस्तान भी डूब रहा था। लेकिन, ज़रूरत तो बनायी जा सकती है।

पाकिस्तान ने दक्षिण एशिया में एक मध्यस्थ की भूमिका पहले भी कई बार निभायी थी। इसे अक्सर निंदक ‘दलाली कमाना’ भी कहते हैं। जैसे अमरीका और चीन के मध्य दलाली कमाना, अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत से लड़ाई में दलाली कमाना आदि। मुशर्रफ़ भी ऐसी ही कोई डील कराने की कोशिश में थे।

मुशर्रफ़ ने अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानों को मित्रता का संदेश भेजा। मुल्ला उमर से बात-चीत हुई। आखिर इस पूरे तालिबान के पीछे कहीं न कहीं ISI का ही दिमाग था। बिल क्लिंटन को पाकिस्तान निमंत्रित किया गया, और वह वाकई आकर पाकिस्तानी टेलीविजन पर बोले। वहाँ यह डील हुई कि तालिबान से अमरीका की बात-चीत में पाकिस्तान मदद करेगी।

जब जॉर्ज बुश की सरकार बनी, तो मुशर्रफ़ को एक और गतिविधि की खबर हो रही थी। तालिबान के शरण में अल-क़ायदा नामक संगठन ताकतवर हो रहा था। वे दो अमरीकी दूतावास उड़ा चुके थे, और न्यूयॉर्क में एक विस्फोट कर चुके थे। अगर कोई ऐसा धमाका हो जाता, जिससे दुनिया हिल जाती, तो पाकिस्तान के हाथ भी खजाना लग जाता।

मुशर्रफ़ और पाकिस्तान की किस्मत के साथ दुनिया की कई बदकिस्मतियाँ जुड़ी थी। उधर विश्व ट्रेंड सेंटर धूल में मिला, यहाँ मुशर्रफ़ सरकार मालामाल हुई। मगर यह खेल रिस्क भरा था। देखना यह था कि इस इस्लामिक जिहाद कहे जाने वाली लड़ाई में पाकिस्तान कहाँ था? मुशर्रफ़ की आत्मकथा का शीर्षक इसे खूब बयान करता है- ‘इन द लाइन ऑफ फायर!’
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 50.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/50.html
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