यहूदियों या किसी भी वैश्य समुदाय ने नयी दुनिया बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। औद्योगिक क्रांति के बाद सामंतवाद का कोई महत्व नहीं रह गया था। यह उन्हीं देशों में कायम था, जहाँ इस क्रांति के बीज नहीं आए थे। पहले जमीनी संपत्ति या सोना-चाँदी का महत्व था, लेकिन विज्ञान की प्रगति ने फैक्ट्रियों और उससे जुड़ी कंपनियों को महत्वपूर्ण बना दिया।
अगर समाजवाद नहीं भी आता तो सामंतवादी वर्गों का कोई महत्व नहीं रह जाता। भारत का उदाहरण लें तो ब्राह्मणों या राजपूतों ने अपना खानदानी काम इसलिए नहीं छोड़ा कि वे लोहिया से प्रेरित हो गए थे। उस वजह से उन्होंने बर्ताव भले बदला हो, लेकिन उद्योगों के आने के बाद उन्हें भी यही लगा कि पैसा कलकत्ता-बंबई के इन उद्योगों में ही है। वे समाजवाद से आने के पहले ही मुख्य प्रशासनिक संस्थानों, शैक्षनिक संस्थानों, वित्तीय संस्थानों और राजनीति की तरफ जा चुके थे और कुंडली मार कर बैठ गए थे। जमीन-जायदाद और पंडिताई में अगर अब उन्हें कोई उलझाए भी तो न उलझें। भारत में यह देर से हुआ क्योंकि भारत में औद्योगीकरण देर से हुआ।
लेकिन एक सामंतवादी वर्ग आज तक पूरी दुनिया में कायम है। वैश्य समुदाय। आपको आज भी ऐसे वैश्य मिलेंगे, जिनकी पिछली कई पुश्तें वैश्य ही हैं। ये संभव है कि उनके परदादा गाँव में साहूकार थे, या गेंहू का व्यापार करते थे। अब वह फैक्टरी चलाते हैं। मोदीनगर के वंशज आइपीएल डील करते मिल जाएँगे। उनके पास अन्य वर्गों की तरह मजबूरी नहीं आयी कि पुश्तैनी काम-धंधा छोड़ना पड़े। इसके उलट उनका कार्य-क्षेत्र बढ़ ही गया। उनका वैश्य रहने में ही फायदा था, भले समाजवाद आता रहे। परिवार में किसी ने नौकरी-चाकरी करने की ठान भी ली, तो भी एक-दो भाई दुकान चलाते रहेंगे। अगर यहूदियों का समकक्ष पारसी वर्ग, या भारत के अन्य वैश्य वर्ग न होते, तो कहाँ होते ये टाटा, बिरला, डालमिया, वाडिया? और कौन चलाता उद्योग? और कैसे बढ़ता भारत?
यहूदियों की इस भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने यूरोप को यूरोप बनाया। औद्योगिक क्रांति की दूसरी लहर के समय ब्रिटेन के पहले और आख़िरी यहूदी मूल प्रधानमंत्री डिजराइली ही गद्दी पर थे। तमाम वित्तीय संस्थान जो इन उद्योगों को सहायता दे रहे थे, वह उनके हाथ में था। एक साधारण उदाहरण देता हूँ।
हम बैंक का नोट इस्तेमाल करते हैं। वह क्या है? एक तरह का क्रेडिट नोट कि बैंक धारक को सौ रुपए देने का वादा करता है। लेकिन आपने बैंक को ऐसा क्या दिया कि वह आपको सौ रुपए दे रहा है?
मार्को पोलो जब चीन आए तो उन्होंने वहाँ के यहूदी साहूकारों का वर्णन किया है जो कुबलाई खान के समय थे। वह सामान के बदले उस मूल्य के नोट देते थे। वह नोट पूरे चीन में चलता था, जिससे खरीद-बिक्री की जा सकती थी। यूरोप में भी जो तेरहवीं सदी में पहला नोट बना, वह एक यहूदी ने ही बनाया था। वेनिस के व्यापारी तो इसी तरह से व्यापार करते थे। कोई सोना-चाँदी लेकर नहीं घूमता था। वह सब उनके एक केंद्रीय लॉकर में जमा था, और उसको मुद्रा बना कर चलाया जाता था।
अब तो खैर यह हाल है कि आपके पास नोट भी नहीं, एक संख्या है जो कंप्यूटर में दर्ज है। आपने करोड़ों कमा लिए, और भारत पर कई एटम बम गिर गये, मुद्रा का मूल्य शून्य हो गया, आपके पास बचेगा मुंडु। न जमीन, न सोना, न चांदी।
यूरोप के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इससे भी बुरा हुआ। मुद्रा का मूल्य तो घटा ही, टाटा-बिरला को भी उन्होंने धकिया कर इजरायल भेज दिया। अब उनके पास एक ही रास्ता था। वे यहूदियों का काम संभालें। खरीद-फ़रोख़्त और मुनाफ़े का गणित सीखें।
अब तो भारत में भी सभी वर्गों के लोग यह गणित सीख गए हैं, वे तो खैर ईसाई ही थे। पूँजी हाथ में आते ही पूँजी संभालना भी धीरे-धीरे आ ही जाता है।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
यूरोप का इतिहास (15)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/15.html
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