चौरासी में भारतीय सेना का स्वर्ण मंदिर में घुसना और 2007 में पाकिस्तान सेना का लाल मस्जिद में घुसना, दो घटनाएँ है। दोनों में बहुत अंतर है।
लाल मस्जिद तब स्थापित हुआ, जब राजधानी कराची से इस्लामाबाद चली गयी। इसका अंदर से रंग लाल था। उस समय वहाँ के इमाम मौलाना मुहम्मद अब्दुल्ला ग़ाज़ी हुआ करते। पाकिस्तान को एक जिहादी मुल्क में तब्दील करने में उनकी बड़ी भूमिका है। बल्कि तालिबान मुखिया मुल्ला उमर भी वहीं उनके साथ कुछ समय रहे थे। ये पाकिस्तानी युवाओं को धर्म के आड़ में हथियार उठाने के लिए प्रेरित करते।
यह मस्जिद भी मुमकिन है ISI और पाकिस्तान सेना की योजना का हिस्सा थी। यह उनके मुख्यालय के करीब ही थी और ISI के लोग वहाँ नियमित आते रहते। कयास हैं कि मौलाना को ‘ब्रेन-वाश’ करने के लिए वहाँ बिठाया गया था। जिया-उल-हक़ के तो वह ख़ास थे। कश्मीरी मुजाहिद्दीनों को जिहाद के लिए मन से तैयार करने के लिए इसी मस्जिद भेजा जाता। वहाँ कुरान के अपने विश्लेषण कर युद्ध के लिए प्रेरित किया जाता।
इस मस्जिद ने धीरे-धीरे पाकिस्तान में अपने मदरसे खोलने शुरू किए। इनमें अधिकांश खैबर-पख्तूनवा और अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर थे। इन्होंने सोवियत से युद्ध और तालिबान के निर्माण में बड़ी भूमिका निभायी। छोटे-छोटे बच्चों को एक फौजी वातावरण में कुरान रटाया जाता, और ग़लतियों पर कड़ी सजा मिलती। वहीं हथियारों की भी शिक्षा दी जाती, जिसे धर्म का ही हिस्सा कहा जाता। अब यूँ तो भारत में भी कभी ऋषि-मुनि अस्त्र-शिक्षा देते थे, लेकिन इक्कीसवीं सदी में इसे क्या कहा जाए? यह उन बच्चों पर जुल्म ही था।
1998 में मौलाना अपने बेटे अब्दुल रशीद के साथ कांधार (अफ़ग़ानिस्तान) पहुँचे। मुल्ला उमर ने खूब आव-भगत की। वहीं एक व्यक्ति से मुलाक़ात हुई, जिसका नाम ओसामा बिन लादेन था। अब्दुल रशीद पहली ही नज़र में प्रेरित हो गए, और बिन लादेन के गिलास से एक घूँट पानी पीने की इजाज़त माँगी।
लादेन ने पूछा, “क्यों पीना चाहते हो?”
रशीद ने कहा, “आपकी कुछ बूँदें मुझ तक पहुँच जाए तो मैं भी इस्लाम के लिए कुछ कर सकूँ”
उसी वर्ष मौलाना की किसी ने दिन-दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी। मौलाना के दो बेटे अब्दुल अज़ीज़ और अब्दुल रशीद ने लाल मस्जिद की कमान संभाल ली। उन्होंने जिहाद के लिए तन-मन-धन लगा दिया। अल क़ायदा का एक तरह से यह मुख्यालय ही बन गया, और इसकी पूरी संभावना है कि दुनिया भर में हो रही तमाम आतंकी घटनाएँ यहीं बनती। मुशर्रफ़ भी इसे सहयोग ही दे रहे थे। उनके पास विकल्प कम थे।
9/11 के बाद खेल बदल गया। अमरीका ने अल-क़ायदा के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी, और पाकिस्तान मुख्य सहयोगी बन गया। लाल मस्जिद ने मुशर्रफ़ को धमकाने से लेकर मरवाने तक के इंतजाम कर लिए। यह मस्जिद अब ISI का खड़ा किया ऐसा विध्वंसक यंत्र बन चुका था, जिससे देश का बचना नामुमकिन था।
जब पाकिस्तान की सेना को वज़ीरिस्तान में अल-क़ायदा के ठिकानों पर आक्रमण करने भेजा गया, फिर तो यह मस्जिद और तमाम मदरसे पाकिस्तान सेना से लड़ने के लिए कमर कसने लगे। हर पाकिस्तानी फौजी को मारने पर ईनाम भी रखे गए।
2007 में लाल मस्जिद अपने चरम पर पहुँच गयी। वहाँ से हथियार लिए युवक पाकिस्तान की सड़कों पर निकलते, और वेश्यालयों में जबरन घुस कर मार-पीट करते। उन्हें जो भी गैर-इस्लामी लगता, वह तोड़ देते। तीन चीनी लड़कियों को बीच शहर से उठवा लिया कि वे वेश्या हैं। वे खुद ही अब पाकिस्तान में ‘शरिया कानून’ लगा रहे थे। उनका उत्तर-पश्चिम के बड़े हिस्से पर कब्जा भी हो चुका था, जहाँ पाकिस्तान पुलिस पूरी तरह साफ हो गयी। खबर थी कि उनके कैम्प के लोग हथियारों के साथ इस्लामाबाद की ओर बढ़ रहे हैं।
जनरल मुशर्रफ़ ने अपने फौज के अफ़सरों को बुलाया और कहा, “इसे आर या पार की आखिरी ज़ंग समझिए। हमें लाल मस्जिद चाहे नेस्तनाबूद करना पड़े, सभी मदरसों को खाली कराना पड़े, मगर अब इन्हें खत्म करना ही होगा। वरना मुल्क खत्म हो जाएगा”
यह ज़ंग न करते, तो पाकिस्तान खत्म हो जाता। इस ज़ंग के बाद शायद मुशर्रफ़ ही खत्म हो जाते। उस वक्त जनरल ने खुद का खत्म होना चुना।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 54.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/54.html
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