Friday, 18 June 2021

यूरोप का इतिहास (7)

( यूरोपीय कोयला-स्टील समुदाय (European Coal And Steel Community) का निर्माण )

यूरोप के हर देश का एक चरित्र है, जो उसके इतिहास और संस्कृति से बना है। सभी देशों का चरित्र होता है। भारत का भी है। फ्रांस की जो छवि बनती है, वह कुछ संवेदनशील, कुछ सौम्य, कुछ उन्मुक्त, कुछ रूमानी लोगों की है।  कोई शातिर, चालबाज़ या धोखेबाज छवि मन में नहीं आती। 

लेकिन, मैं जब गिरमिटिया द्वीपों का इतिहास (कुली लाइंस) लिख रहा था तो एक अजीब बात ग़ौर की। हमें ब्रिटिश, डच और डैनिश द्वीपों पर गिरमिटियों का रिकॉर्ड मिलता है, लेकिन फ्रेंच द्वीपों का नहीं मिलता। वे रिकॉर्ड ही बहुधा गायब हैं। ग्रियर्सन ने लिखा कि जो भारतीय गिरमिटिया फ्रेंच द्वीपों पर गए, वे कभी लौट कर नहीं आए। वे हमेशा के लिए खो गए। आखिर फ्रेंच में ऐसी कौन सी बात है कि खो गए? 

फ्रांस और जर्मनी ने एक दूसरे के खिलाफ़ दो विश्व-युद्ध लड़े। जर्मनी के पास अधिक शक्ति होने के बावजूद दोनों ही युद्धों में आखिरी विजेता टीम में फ्रांस मौजूद रहा। द्वितीय विश्व युद्ध में तो फ्रांस बुरी तरह हार कर, नाजी सेना के सामने आत्मसमर्पण कर भी अंतत: जीत गया। फ्रांस की हारी हुई सेना के एक कमांडर चार्ल्स डी गॉल लंदन भाग गए, चर्चिल से मदद मांगी। आखिर नॉर्मान्डी आक्रमण से फ्रांस को पुन: आजाद कराया गया। 

ज़ाहिर है विश्व-युद्ध के बाद फ्रांस इन महाशक्तियों के सामने बौना था। जब तेहरान या याल्टा में यूरोप के भाग्य का फैसला हो रहा था, उसमें चर्चिल-स्तालिन-रूजवेल्ट ही बैठते थे। फ्रांस की इन तीन दिग्गजों के सामने कोई औकात नहीं थी। लेकिन, फ्रांस के पास एक ताकत थी। वह यूरोप की मुख्य-भूमि का देश था, और ये तीनों ‘बाहरी’ थे। सोवियत या ब्रिटेन यूरोप के होकर भी यूरोपीय नहीं थे। अमेरिका तो खैर कभी था ही नहीं।

           ( पेरिस समझौता, 1951 )

प्रथम विश्व-युद्ध के बाद अगर वर्साय में संधि हुई तो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के समझौते पेरिस में किए जाते। फ्रांस की नज़र इस बात पर हमेशा रही कि बाहरी शक्तियाँ यूरोप से ठीक-ठाक दूरी बना कर रखे। संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा परिषद में अपनी जगह बना कर फ्रांस ने ‘वीटो’ शक्ति तो हासिल कर ही ली।

अब ‘प्लान-ए’ यह था कि जर्मनी को तोड़ दिया जाए, ताकि वे फिर से सर न उठा सकें। पिछले दो युद्धों में जर्मनी ने फ्रांस को तबाह किया था। फ्रांस ने मांग रखी कि जर्मनी को विघटित कर, उससे तीन मुख्य खनिज क्षेत्र (रूर, सारलैंड, राइनलैंड) छीन लिए जाएँ, और वहाँ के लोग फ्रांस में मजदूरी करें।

लेकिन, इस योजना पर आधी सहमति ही बनी। फ्रांस को यह अंदेशा होने लगा कि अमेरिका यूरोप में दखल-अंदाज़ी करना चाहती है। धन लगाना चाहती है। यह तो और भी अच्छा था। फ्रांस ने न सिर्फ यूरोप, बल्कि अपने उपनिवेश हिन्द-चीन (वियतनाम) में भी अमरीका को अपनी सेना और धन लगाने को राजी कर लिया।

फ्रांस का ‘प्लान बी’ यह बना कि जर्मनी को आर्थिक रूप से ताकतवर लेकिन राजनैतिक रूप से कमजोर किया जाए। 1948 में ही फ्रांस ने एक यूरोपीकृत जर्मनी का ख्वाब देखा। एक सहकारी यूरोप का, जहाँ सभी यूरोपीय देश मिल कर एक बाज़ार चलाएँगे। फ्रांस ने मधुर संवादों से पाँच अन्य मुख्य देशों को कोयला और स्टील के सहकारीकरण के लिए राजी कर लिया। यूरोपीय संघ (यूरोपियन यूनियन) की पहली ईंट तैयार थी।

अब फ्रांस को ब्रिटेन, अमेरिका और सोवियत से मुक्ति के मार्ग तलाशने थे। लड़ कर नहीं, फ्रेंच तरीके से। कुछ ऐसा कि वे बस कहीं खो जाएँ। जैसे, एक काल्पनिक शीत युद्ध में?
(क्रमश:) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

यूरोप का इतिहास (6)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/6.html
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