“वह आदमी बिन लादेन से अधिक खतरनाक है”
- जॉर्ज टेनेट, सीआइए प्रमुख (पाकिस्तानी परमाणु बम के पिता कहे जाने वाले अब्दुल क़ादिर ख़ान के संबंध में)
मैं इस बात को बार-बार दोहरा रहा हूँ कि अमरीका एक कस्तूरी मृग की भाँति इराक और अफ़ग़ानिस्तान में परमाणु बम ढूँढ रहा था, जबकि यह बम और बिन लादेन तो सदा से एक ही स्थान पर थे। बम तो खैर सर्वविदित और स्वयं पाकिस्तान द्वारा घोषित, परीक्षित था। अगर अमरीका द्वारा छेड़े युद्ध का मूल ‘सामूहिक विनाश का हथियार’ (WMD) ढूँढना था, तो उसे पाकिस्तान के परमाणु बम प्रोजेक्ट पर ही अंकुश लगाना था। लेकिन, यह इरादा शायद कभी था ही नहीं। इरादा तो दाएश, ISIS जैसे संगठन पैदा करने थे, जो अब तक चल ही रहा है।
बाद में यह सच खुल कर सामने आ गया कि इराक और सीरिया के विध्वंस और इस मध्य एशिया संकट में CIA और ब्रिटिश ख़ुफ़िया एजेंसी MI6 की बड़ी भूमिका रही। उन्होंने बाक़ायदा हथियार मुहैया कराए थे। सद्दाम हुसैन और गद्दाफ़ी के मरने के बाद आतंकवाद घटने के बजाय गुणात्मक रूप में बढ़ता ही चला गया। न जाने यह कैसा आतंक-विरोधी युद्ध था जो अमरीका ने लड़ा?
2004 में जॉर्ज बुश ने जनरल मुशर्रफ़ की तारीफ करते हुए कहा, “जनरल हमारे युद्ध के अग्रणी सेनापतियों में है”
जॉर्ज बुश आराम से उस वर्ष का चुनाव जीत गए। यह भी आश्चर्य ही था कि जिस राष्ट्रपति के समय अमरीका पर ऐसा आतंकी हमला हुआ, वह महायोद्धा रूप में देखे गए। भले वह अपने पूरे कार्यकाल में बिन लादेन को छू भी नहीं पाए, और तीसरे-चौथे दुश्मनों से लड़ते रहे।
इस मध्य मालूम पड़ा कि पाकिस्तान अपने परमाणु बम की तकनीक को ईरान से लेकर उत्तर कोरिया तक बेच रहा था। यहाँ न चाहते हुए भी हिम्मत की दाद दूँगा कि अमरीका जैसी महाशक्ति से डील कर, उनकी ही नाक के नीचे इस कदर सीनाज़ोरी! वे बम ढूँढ रहे हैं, और आप बाँट रहे हैं?
अब्दुल क़ादिर ख़ान ने सार्वजनिक रूप से कहा, “मैं मानता हूँ कि मैंने तकनीक हस्तांरित किए। मैं पूरी अवाम से इसके लिए माफ़ी माँगता हूँ। मेरे इस काम में और किसी का हाथ नहीं।”
वहीं, वर्षों बाद छूटने के बाद वह दबी जबान में कहते हैं कि जनरल मुशर्रफ़ तो सब जानते ही थे। उत्तरी कोरिया भारत के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए बदले में कुछ अच्छे मिसाइल भी दे रहा था। मुशर्रफ़ की किताब से भी यह स्पष्ट है कि उनके मन में भारत के लिए बेइंतहा नफ़रत थी। वह दो बड़े युद्धों में शामिल रहे थे, जिसमें पाकिस्तान को जीत नहीं मिली। कारगिल युद्ध भी फ्लॉप हो गया। उनके मन में अगर कोई ख़्वाहिश थी, तो वह कश्मीर थी। उनको अमरीका और बिन लादेन से कोई सहानुभूति नहीं थी। वे बस भारत से लड़ाई के लिए एक माध्यम थे। एक से धन मिल रहा था, दूसरे से मुजाहिद्दीनों की उम्मीद थी।
चूँकि वह ‘लाइन ऑफ फायर’ में थे, उन्हें कदम संभाल-संभाल कर रखना था। 2004 के चुनाव में अप्रत्याशित रूप से भारतीय जनता पार्टी हार गयी। उस वर्ष इतिहास में पहली बार भारत की क्रिकेट टीम पाकिस्तान में टेस्ट सीरीज़ जीत कर लौटी थी। वाजपेयी ने सौरभ गांगुली से कहा था, “खेल ही नहीं, दिल जीत कर लौटिएगा”
परवेज़ मुशर्रफ़ ने स्वयं नवोदित खिलाड़ी महेंद्र सिंह धोनी को कहा, “तुम अपने बाल मत कटवाओ। तुम पर अच्छे लगते हैं।”
यूँ लग रहा था कि मुशर्रफ़ अब भारत से गिले-शिकवे कुछ घटाना चाहते हैं। वाजपेयी सरकार के समय ही कुछ संबंध सुधर रहे थे। मनमोहन सिंह सरकार के आने के बाद भारत-पाकिस्तान के मध्य कश्मीर सीमा पर बस-सेवा चालू हुई। एल ओ सी पार कर पाकिस्तानी कश्मीरी बस से श्रीनगर आए, और इसी तरह भारत से पाकिस्तान गए।
‘देर आए, दुरुस्त आए’ कहावत तो साकार होती, लेकिन मुशर्रफ़ ने सीधे दहकती आग में पैर रख दिया। वर्ष 2007 पाकिस्तान के इतिहास का वैसा ही वर्ष रहा, जैसा भारत के लिए 1984 !
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 53.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/53.html
#vss
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