धर्म-परिवर्तन और धर्म के परिवर्तन में अंतर है। यहूदियों ने सियोनवाद लाकर अपने धर्म को ही बदल दिया। पहले वे आक्रामक नहीं थे, शांतिप्रिय थे। उन्होंने इतिहास में कोई भीषण युद्ध भी नहीं लड़ा था। वे पारसियों की तरह स्थानीय संस्कृति से समझौता कर लेते थे। धर्म-प्रचार या मिशनरी गतिविधि नहीं करते। वे अपनी शिक्षा और आर्थिक प्रगति पर ध्यान देते।
सियोनवादी इसके विपरीत लड़ कर हक लेने में भरोसा करते थे। वे स्वयं को नव-यहूदी कहते और ख़ास जोर देकर कहते कि हम पुराने यहूदियों की तरह भीरू नहीं। वे अपने धर्म के लोगों को उन पर हुए अत्याचारों की याद दिलाते। कुछ लोग तो यहाँ तक मानते हैं कि हिटलर को भड़काने और होलोकॉस्ट की स्थिति लाने में उन्हीं की भूमिका थी। सियोनवादी यह जानते थे कि अगर यहूदियों पर अत्याचार हुए, तो वे भाग कर उन्हीं के पास आएँगे। अगर इस ‘कॉन्सपिरेसी थ्योरी’ में तनिक भी सच्चाई है तो यह कितना भयावह लगता है कि धार्मिक राष्ट्रवाद के लिए अपने ही धर्म की बलि चढ़ा दी। कुछ इस तरह जैसे शिक्षक अपने विद्यार्थियों को अनुशासित करने के लिए उन पर ही डंडे चलाते हैं? या इस तरह कि कोई अपने पिता से पैसे मांगने के लिए अपने छोटे भाई का ही अपहरण करवा लेता है?
यहूदी-विरोधवाद (ऐन्टी-सेमिटिज्म) पूरे यूरोप में तेजी से पसरने लगा था। सोवियत रूस से जर्मनी तक, हर जगह यहूदियों से नफ़रत की जा रही थी। यह हिटलर के सत्ता में आने से पहले की बात है। 1917 में सीयोनवादियों ने अपना पहला मुकाम हासिल किया, जब यह कहा गया कि यहूदियों के लिए एक राष्ट्रीय निवास (देश) बनाया जाए। यह बल्फ़ोर घोषणा कहलायी। मुमकिन है यह यूरोपीय देशों की इच्छा हो कि इसी बहाने यहूदियों से छुटकारा मिले। सीयोनवादी भी यही चाहते थे। लेकिन, शांतिप्रिय यहूदी ऐसा नहीं चाहते थे!
जो पहली जगह चुनी गयी, वह युगांडा के जंगलों में चुनी गयी। ऐसे जंगल में जहाँ शेर बहुतायत में थे, और मसाई आदिवासी रहते थे जो किसी विदेशी को आने नहीं देना चाहते। पता नहीं, ऐसी जगह क्या सोच कर चुनी गयी कि दुनिया भर के यहूदियों को अफ़्रीका के जंगलों में पटक दिया जाए।
जो जगह यहूदियों को पसंद थी, वह तो उनकी अपनी जमीन थी। अफ़्रीका और एशिया को जोड़ते उस सेतु पर जिस रास्ते पहले मानव पूरी दुनिया में पसरने शुरू हुए थे। वह इलाका अब फ़िलीस्तीन कहा जा रहा था, जहाँ नव-यहूदियों ने अपना बसेरा बनाना शुरू कर लिया था। ब्रिटेन द्वारा रोके जाने के बावजूद हर महीने कम से कम दो हज़ार यहूदी फिलीस्तीन में घुसते जा रहे थे।
यहूदियों को वह जमीन कैसे मिलती? युद्ध लड़ कर? कब्जा जमा कर? या कुछ ऐसी स्थिति बना कर, कि दुनिया उन्हें यह जमीन देने को मजबूर हो जाए?
1941 में थियोडोर कॉफमैन नामक एक सियोनवादी यहूदी ने एक किताब छापी- ‘जर्मन्स मस्ट पेरिश’। इसमें यह लिखा था कि सभी जर्मन लोगों का सामूहिक बंध्याकरण कर देना चाहिए और जर्मनी को खत्म कर देना चाहिए। हिटलर के लिए यह किताब एक हथियार या एक तरह का बहाना बनी। नाजियों ने यहूदियों को देश ही नहीं, संपूर्ण मानवता का दुश्मन मान कर उनकी नस्ल ही मिटाने की ठान ली।
यूरोप तबाह हुआ। जर्मनी ही नहीं, पूरा यूरोप दो टुकड़ों में बँट गया। एक तिहाई यूरोपीय यहूदी मारे गए। पूरा विश्व ग्लानि में डूब गया।
इंग्लैंड ने जब 1947 में एशिया के तमाम देश आजाद किए, उनमें एक फिलीस्तीन भी था। हज़ारों वर्ष बाद, बिना सीधे युद्ध लड़े, यहूदियों के झोली में जेरूसलम आ गया और इजरायल देश का जन्म हुआ।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
यूरोप का इतिहास (3)
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