Saturday 19 June 2021

यूरोप का इतिहास (9)


[‘मार्शल प्लान’ के अंतर्गत हर अमरीकी मदद पर लगाया जाने वाला स्टिकर]

कम्युनिस्टों को पूँजीवाद से लड़ने में समस्या नहीं रही। लेकिन, उदारवादियों से कैसे लड़ें? समाजवादियों से कैसे लड़ें? अगर भारत का ही उदाहरण लें तो यहाँ लेनिन की क्रांति से कई लोग प्रेरित हुए, लेकिन यहाँ गांधी पहले से मौजूद थे। एक उदारवादी, समाजवादी और लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी के सामने कम्युनिस्ट पार्टी अलग से खड़ी हो न सकी।

यूरोप में लेनिन से पहले ही फ्रेंच क्रांति हो चुकी थी। कार्ल मार्क्स के सिद्धांत पालन किए जा रहे थे। समाजवादियों ने हर यूरोपीय देश में गढ़ बना रखे थे। लेनिन भी जब आए, तो उनकी यही कोशिश रही कि समाजवादियों को कम्युनिस्ट बना लिया जाए। पुराने मार्क्सवाद पर लेनिनवाद की नयी परत चढ़ा दी गयी। लेकिन, यह सोवियत तक ही बलपूर्वक किया जा सका। बाकी देशों में कम्युनिस्टों पर समाजवादी और उदारवादी काफी हद तक भारी रहे, और आज तक हैं। अब समाजवादियों या उदारवादियों की जीत पर कम्युनिस्ट भी ताली बजा लेते हैं। जैसे अमरिका-इंग्लैंड में लिबरल खेमों की जीत पर, या भारत में कांग्रेस/समाजवादियों की जीत पर।

फ्रांस का सहकारी मॉडल कि पूरे यूरोप का एक ही बाज़ार हो, मुद्रा और व्यापार पर सहकारी नियंत्रण हो, ऐसा ही उदारवादी मॉडल था। राजशाही और सामंतवाद तो पहले ही खत्म हो चुकी थी, या नाम-मात्र रह गयी थी। विश्व-युद्ध ने जनता में फिर से समुदाय-बोध ला दिया। लोग एक-दूसरे की मदद कर अपने टूटे घर बनाने लगे। नाले और सड़कें समुदाय मिल कर बनाने लगी। विद्यालय चलाने लगी। यह प्रवृत्ति आज तक कायम है, और हर यूरोपीय देश में सामुदायिक कार्य एक जीवन का हिस्सा है। 

महिलाओं ने जब युद्ध के दौरान खेतों और कारखानों की कमान संभाली तो वह समानता भी स्वत: आ गयी। स्त्रियाँ घरेलू काम से निकल कर अब सभी तरह के बाहरी कार्य कर रही थी। इस मामले में वह अमरीका से भी कहीं आगे थी और आज तक है, कि महिलाओं ने न सिर्फ आर्थिक बल्कि राजनैतिक ज़िम्मेदारी भी ली। अमरीका में एक भी महिला राष्ट्रपति नहीं बन पायी, लेकिन यूरोप में दर्जनों उदाहरण हैं।

इस कारण कम्युनिस्टों के लिए यूरोप में अलग से जगह नहीं थी। युद्ध के बाद न सामंतवाद था, न अधिक असमानता। अब इस सपाट जमीन को आखिर और कितना सपाट बनाएँ? 

ऐसे समय में अमरीका के दखल ने कम्युनिस्टों को कुछ लड़ने का मौका दिया। उन्होंने दुनिया भर के कम्युनिस्टों को जोड़ना शुरू किया। इससे पहले भी कॉमिन्टर्न (अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी संगठन) हुआ करती थी, जो युद्ध के दौरान ठंडे बस्ते में चली गयी थी। जब अमरिका ने यूरोप में आर्थिक सहयोग के लिए ‘मार्शल प्लान’ की पेशकश की, तो इसके जवाब में यूरोपीय कम्युनिस्ट भी एकजुट हो गए और तभी बना - कॉमिन्फॉर्म।

इन दोनों की तकरार से यूरोप को कुल फायदा ही हो रहा था। अगर शीत-युद्ध न होता, तो अमरीका और सोवियत यूरोप को अपने हाल पर छोड़ देते और इसे शायद खड़ा होने में दशकों लग जाते। इनकी मुर्गा-लड़ाई में यूरोप ऊपर चढ़ता गया। बस उन्हें यह लड़ाई इतनी बना कर रखनी थी कि पूँजी आती रहे, मगर बम या टैंक न आए। पेरिस और जेनेवा में समझौते चलते रहें, इनके धंधे बढ़ते रहें। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

यूरोप का इतिहास (9)
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