Monday, 21 June 2021

यूरोप का इतिहास (10)

अमरीका को पैसा बहा कर मिला क्या? यूरोप में आखिर था क्या? ऐसे देश जो महज दो दशकों में विश्व-युद्ध लड़ते फिरें। जहाँ के सभी उद्योग और अधिकांश यातायात ठप्प पड़े हों। पुरुष जनसंख्या घट गयी हो। वहाँ कोई पूँजीपति भी क्यों निवेश करेगा? उससे कहीं बेहतर तो भारत जैसे देश में धन लगाना था, जहाँ सभी साधन उपलब्ध थे और कभी कोई आधुनिक युद्ध हुआ ही नहीं।

अमरीका के पास अपने तर्क थे। पहला तर्क तो यही था कि युद्ध के उधार-पट्टा (Lend-Lease) के तहत अमरीका के कई डॉलर फँस गए थे। अमेरिका ने स्तालिन से हिटलर तक को युद्ध में अलग-अलग माध्यमों से उधार दिए थे। कोई साहूकार जिसे कर्ज दे, उसे ही गोली मार दे, तो उसके कर्ज वापस कैसे मिलेंगे? अब तो यही उपाय था कि कुछ धन लगा कर उन्हें खड़ा किया जाए, ताकि वे कर्ज चुका सकें। इंग्लैंड का उदाहरण लें तो उसने 2006 में ही आखिर अपना द्वितीय विश्व-युद्ध का अमरीकी कर्ज पूरा चुकाया। बाकी कई कर्ज तो डूब ही गए, या कर्ज के मुकाबले उन पर खर्च अधिक हो गये। 

दूसरी बात थी कि अमरीका फंस चुका था। जिन लोगों ने युद्ध जीता था, उनके पास संयुक्त राष्ट्र संघ बनाने के बाद नैतिक ज़िम्मेदारी आ गयी थी। वे यूरोप को यूँ दयनीय स्थिति में छोड़ कर नहीं जा सकते थे। ख़ास कर उन देशों को, जो हिटलर के साथ नहीं थे, सहयोग देना ही था।

जनरल मार्शल ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अपनी बात रखी। उनका कहना था कि हम अरबों डॉलर खर्च कर चुके हैं, लेकिन यूरोप अब भी वहीं का वहीं है। इसलिए यह जरूरी है कि हम अब यह कार्य व्यवस्थित तरीके से करें। हम सभी देशों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से धन देंगे, जिसमें वह अपनी अर्थव्यवस्था खड़ी करें। वह चुन सकते हैं कि उनका तरीका क्या होगा, लेकिन हमें हिसाब चाहिए कि धन किस मद में लगाए गए।

अमरीकी मदद का एक भावनात्मक कारण और ख़ास कर एशिया की अपेक्षा अधिक मदद का कारण धार्मिक या नस्लीय भी हो सकता है। यह तर्क इतिहास की किताबों में भले दर्ज न हो। अमरीका यूरोपीय मूल के लोगों से ही बना था, और प्रथम विश्व-युद्ध या उससे पहले भी यूरोप से प्रवासी आते रहते थे। उनमें कई ऊँचे पदों पर भी थे। ब्रिटिश, फ्रेंच, इतालवी, जर्मन, नॉर्वेजियन हर मूल के लोग वहाँ थे। सबसे बड़ी बात कि ईसाई धर्म का केंद्र था यूरोप। उसे अमरीका से अलग नहीं देखा जा सकता।

अमरीका ने मार्शल प्लान के तहत उस समय के लगभग 1300 करोड़ डॉलर खर्च किए, जिसका लगभग चालीस प्रतिशत ब्रिटेन और फ्रांस ने ले लिया। उसके बाद अगला  बड़ा हिस्सा जर्मनी के मद में गया।

सोवियत को इस योजना में कुछ गहरी चाल की बू आ रही थी। यूरोप की उस स्थिति में साम्यवाद अथवा नव-नाज़ीवाद, दोनों के लिए आदर्श माहौल थे। सोवियत बंद या राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था की पक्षधर था। जैसे प्रथम विश्व-युद्ध के बाद हिटलर ने राज्य-नियंत्रित कर जर्मनी अर्थव्यवस्था को शीर्ष पर पहुँचा दिया, क्या वह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संभव नहीं था?

मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था (Free market economy) जो आज भारत जैसे देश अपना रहे हैं, और विदेशी कंपनियों का बाँहें खोल कर स्वागत कर रहे हैं, उसकी जड़ें इस मार्शल योजना में भी हैं। अरबों डॉलर बहा कर अमरीका को यह मिला। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

यूरोप का इतिहास (9)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/9.html
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