यूरोप को हम किस तरह से देखते हैं? यह शक्ति का केंद्र है या बुद्धि का केंद्र? अगर शक्ति का केंद्र है तो यह कभी एक विशाल देश के रूप में क्यों नहीं रहा? अगर एडॉल्फ हिटलर महाशय सोवियत रूस में घुसने से पहले अपनी सेना रोक देते तो यूरोप एक देश में तब्दील होकर शक्ति का केंद्र हो सकता था। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। अगर होना होता तो हिटलर से वर्षों पहले वाइकिंग काल में हो गया होता। नेपोलियन काल में हो गया होता। ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली देश ने पूरी दुनिया पर घूम-घूम कर राज किया, लेकिन कभी यूरोप को मिलाने की या कम से कम एक उपनिवेश ही बनाने की चाहत नहीं रखी। क्यों?
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का इतिहास कुछ यूँ लिखा गया। युद्ध के बाद आधे यूरोप पर अमरीकी प्रभुत्व रहा, और आधे पर सोवियत प्रभुत्व। एक में पूँजीवाद का प्रसार हुआ, दूसरे में साम्यवाद, और दोनों के मध्य लोहे का परदा खिंच गया। जब सोवियत का विघटन हुआ, और बर्लिन की दीवार टूटी, तो यूरोप पूरी तरह पूँजीवाद के आगोश में चला गया।
इस इतिहास के अनुसार यूरोप एक खिलौना था, जिससे दो शक्तियाँ खेलती रही, और अंत में एक शक्ति जीत गयी। अगर ऐसा था, तो क्या आज यूरोप अमरीका के प्रभुत्व में है? या क्या यूरोप पुन: बिखर चुका है? इसके उलट यूरोप तो एक संघ का रूप ले चुका है, जिसका केंद्र जर्मनी है। इसके अधिकांश अंग समृद्ध हैं, अमरीका के समतुल्य अर्थव्यवस्था है, और कुल वैश्विक अर्थव्यवस्था का छठा अंश नियंत्रित करती है। बल्कि यह तो हिटलर के ही स्वप्न को पूरा कर चुकी है, जब यूरोप की मुख्य-भूमि एक सामूहिक मुद्रा, कानून और वीसा से चल रही है। यूरोप में यहूदियों की जनसंख्या पिछले पचास वर्ष में साठ प्रतिशत से अधिक घट चुकी है। हिटलर के बाद यूरोप में उन्हें पुन: बसाने के बजाय स्थायी रूप से भगा ही दिया गया?
क्या हिटलर के मृत्यु के साथ नाज़ीवाद खत्म हो गया था? क्या हिटलर एक ऐसा तानाशाह था, जिससे जर्मनी की जनता नफ़रत करती थी? स्थिति तो इसके विपरीत थी। यह मानना भी कठिन है कि हिटलर की मृत्यु के साथ ही संपूर्ण जर्मन जनमानस, जिसे अपनी नस्लीय श्रेष्ठता का दंभ था, वह ग्लानि-बोध में डूब गया। सच तो यह है कि आज भी जर्मन स्वयं को बाकी यूरोपीय नस्लों से भी श्रेष्ठ समझते हैं।
प्रश्न अगर पलट दिया जाए। क्या यूरोप ने अमरीका का इस्तेमाल किया?
स्तालिन का मानना था कि इंग्लैंड और अमेरिका यूरोप का बोझ नहीं उठा पाएँगे, और इसका दोहन कर इसे अपने हाल पर छोड़ देंगे। जैसा वे बाद में पश्चिम एशिया में करते रहे। लेकिन, स्तालिन का अंदेशा कुछ ग़लत निकला। शीत युद्ध के माहौल ने अमरीका को यूरोप में अरबों डॉलर निवेश करने को मजबूर किया। दोहन यूरोप का नहीं, अमरीका का हुआ। यह तर्क दिया जा सकता है कि यह पारस्परिक दोहन था। अमरीकी अर्थव्यवस्था को भी यूरोप से ख़ासा फ़ायदा पहुँचा।
इतिहास अगर यूरोप को केंद्र में रख कर लिखा जाए, तो विश्व-युद्ध के पश्चात की दुनिया अलग नजर आएगी। एक झुकी हुई जर्मनी, जो कभी झुकी ही नहीं। एक शीत युद्ध जो कभी गरम ही नहीं हुआ। एक लोहे का परदा जो पिघल गया। एक सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य जो ‘बिग थ्री’ में न होकर भी अपनी चालें चलता रहा।
अगर यह इतिहास नेपोलियन के देश को केंद्र में रख कर लिखा जाए तो?
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
यूरोप का इतिहास (5)
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