सोशल मीडिया पर एक फोटो और एक खबर घूम रही है कि एक किसान नेता एसी में आराम कर रहे है। उस पर बहुत से कमेंट आये। कुछ मज़ाकिया तो कुछ उपालम्भ भरे, कुछ तंजिया तो कुछ हास्यास्पद। यह सारे कमेंट, उस पूंजीवादी मानसिकता को प्रदर्शित करते है कि, कोई किसान भला कैसे एयर कंडीशन कमरे में सो सकता है। भारत का किसान यदि आज आधुनिक तऱीके से खेती कर रहा है, संगठित होकर अपने अधिकारों के लिये शांतिपूर्ण ढंग से संघर्षरत है, सरकार की तमाम उपेक्षा, उसके प्रचारतंत्र के तमाम झूठ, मक्कारी, ऐय्यारी और फ़नकारी के, अपने लक्ष्य से ज़रा भी नहीं डिग रहा है तथा लोकतांत्रिक तरीके से सरकार को बदलने की बात करता है तो, इसे देश, समाज, और किसानों की उपलब्धि के रूप में देखा चाहिए, न कि इस पर मज़ाक़ बनाना चाहिए। किसान आंदोलन की शुरुआत में ही जब अंग्रेजी पढ़े लिखे, जीन्स और आधुनिक वेशभूषा मे किसानों के युवा पुत्र और पुत्रिया, टीवी पर दिखने लगे तो, अधिकांश टीवी चैनलों ने इसका भी मज़ाक़ उड़ाया और वे 2020 - 21 के किसानों के हुजूम में, 1936 में लिखे प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास गोदान के नायक होरी और गोबर की तलाश करते रहे। पर 1936 से आज तक दुनिया और देश मे बहुत कुछ बदल गया है।
आज किसान जब से देश मे हरित क्रांति आयी और सरकार ने कृषि को वैज्ञानिक शोधों से जोड़ कर खेती किसानी करने को प्रेरित किया है, तब से देश के कृषि क्षेत्र का सर्वांगीण विकास हुआ है। आज़ादी के बाद ही, प्रगतिशील भूमि सुधार के रूप में उठाए गए ज़मींदारी उन्मूलन अभियान, समय समय पर होने वाली चकबंदी कार्यक्रम, कृषि विश्वविद्यालयों सहित, अलग अलग फसलों के लिये अलग अलग शोध संस्थानों की स्थापना सहित अनेक छोटे बड़े कदमो ने भारत को न केवल अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया बल्कि हम अनाज का निर्यात भी करने लगे। यह समृद्धि पूरे देश मे एकरस नही रही, यह भी एक विपरीत पक्ष है, पर कुछ राज्य कृषि के क्षेत्र में पूरे देश भर का पेट भरने की हैसियत में आ गए।
जब देश मे 2016 में अब तक के सबसे असफल और अदूरदर्शितापूर्ण आर्थिक कदम नोटबन्दी की घोषणा की गयी तो देश के लगभग सभी उद्योगों, विशेषकर लधु मध्यम, सूक्ष्म उद्योगों, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, रीयल एस्टेट सहित तमाम संगठित और असंगठित क्षेत्र प्रभावित हो गए पर कृषि पर उसका असर बहुत नहीं पड़ा। कृषि से जुड़े रोजगार प्रभावित तो हुए, पर वे उतने प्रभावित नहीं हुए जितने कि उद्योगों और सेवा सेक्टरों के हुए। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर तो शून्य पर आ गया। रीयल एस्टेट सेक्टर में काम लागभग आधा हो गया। इसी प्रकार जब 2020 के मार्च में कोविड की पहली लहर आयी, लॉक डाउन लगा तो भी जो आर्थिक मंदी आयी उसका असर खेती पर कम पड़ा। बल्कि सरकार ने खुद इस तथ्य को स्वीकार किया है कि, गिरती हुयी जीडीपी की दर में भी जो थोड़ा बहुत उछाल था, वह कृषि सेक्टर के काऱण था। यह उसी किसान की मेहनत का नतीजा है जिसे आज एसी में सोते हुए देख कर, उस पर तंज कसे जा रहे हैं।
इसी के बाद पूंजीपतियों या यूं कहिये कुछ सरकार के चहेते पूंजीपतियों का गिरोह सक्रिय हुआ और कृषि सुधार के नाम पर तीन ऐसे कानून पास हुए, जिससे कृषि का कॉरपोरेटीकरण हो जाय और किसान अपनी ज़मीन का मालिक न रह कर कॉरपोरेट का एक मुलाज़िम हो जाय और कृषि जो कभी उत्तम खेती कही जाती थी, कानूनी रूप से अधम चाकरी में बदल जाए।
नए कानून के अंतर्गत जमाखोरी के अपराध को कानूनी वैधता प्रदान करना, न्यूनतम समर्थन मूल्य के आश्वासन को बस कागज़ पर ही बनाये रखना, ठेका खेती के जरिए जमीनों पर कॉरपोरेट द्वारा कब्जा करने और देश के खाद्य सुरक्षा कानून को दरकिनार कर के, पूरी कृषि व्यवस्था को ही, देशी विदेशी कारपोरेट घरानों के हवाले करने की नीति, आरएसएस-भाजपा सरकार की है औऱ वे इसे ही सुधार कहते हैं। लेकिन सरकार और कॉरपोरेट की जटिल दुरभिसंधि के खिलाफ किसान एकजुट हुए औऱ सात महीने से एक शांतिपूर्ण आंदोलन के द्वारा वे, अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे है। सरकार, भाजपा आईटी सेल के प्रचार तंत्र द्वारा आंदोलन को बदनाम करने और उसमें तोड़-फोड़ करने की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आंदोलन न सिर्फ मजबूती से टिका हुआ है बल्कि उसके समर्थन का दायरा भी लगातार बढ़ रहा है। 26 जून 21 को किसान आंदोलन ने अपनी एकजुटता और संघर्ष के जिजीविषा का एक और प्रमाण दिया है। किसान विरोधी तीनों कानूनों को रद्द करने, विद्युत संशोधन विधेयक 2020 को वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी रूप देने की मांग अब भी जोर पकड़ रही है और ‘सरकार की क्रोनी कैपिटलिज्म की नीति हर दिन एक्सपोज़ हो रही है।
सरकार के निशाने पर न केवल किसान और कृषि सेक्टर है, बल्कि उसके निशाने पर, देश के, संगठित और असंगठित क्षेत्रो के लाखों-करोड़ों मेहनतकश मजदूर भी हैं। जैसे कृषि सुधार के नाम पर तीन कृषि कानून लाये गए, वैसे ही श्रम सुधार के नाम पर, लम्बे समय से चले आ रहे अनेक संघर्षों के बाद प्राप्त हुए, श्रम कानूनों को खत्म कर, नया लेबर कोड बनाने की प्रक्रिया को भी इसी सरकार ने अपनी दूसरे कार्यकाल में लाने का काम किया है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि चाहे श्रम सुधार से जुड़े कानून हों या कृषि सुधार से, उनमे कॉरपोरेट हित मे ढालने के लिये सरकार ने जो समय चुना वह, कोरोना महामारी के वैश्विक संकट काल का समय था। 2020 के मानसून सत्र में जब विपक्ष संसद में नहीं था तब बिना किसी चर्चा के सरकार ने तीन लेबर कोड औद्योगिक सम्बंध, सामाजिक सुरक्षा और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशाएं पास करा लिए गए। अब इन सभी कोडो की नियमावली भी सरकार ने जारी कर दी है। सरकार ने मौजूदा 27 श्रम कानूनों और इसके साथ ही राज्यों द्वारा बनाए श्रम कानूनों को समाप्त कर इन चार लेबर कोड को बनाया है। सरकार का दावा है कि सरकार के इस श्रम सुधार कार्यक्रम से देश की आर्थिक रैकिंग दुनिया में बेहतर हुई है।
अब देखना यह है कि, सुधार के नाम पर सरकार जिन कानूनों को खत्म कर रही है, वे वास्तव में देश और जनता की तरक्की के लिए जरूरी है या सुधारों के नाम पर, इस कदम से किसान और मजदूरो के बर्बादी की नयी इबारत लिखी जाएगी। लगभग दो सौ सालों से, किसानों, मजदूरों व आम जनता ने, समय समय पर, अपने संघर्षो के फलस्वरूप, जो अधिकार, कानूनों की शक्ल में, खुद की बेहतरी के लिये सरकारों से प्राप्त किये थे, उन्हें इस आपदा में अवसर के रूप में कॉरपोरेट के इशारे पर सरकार ने छीन लिए। ऐसा भी नही है कि सरकार ने किसी प्रगतिशीलता के कारण नए श्रम और किसान कानून बनाये, बल्कि नए कानून बनाये ही सिर्फ इसलिए गए हैं कि वे कॉरपोरेट के हित मे हैं। पुराने श्रम कानूनों के खात्मे और नए लेबर कोड के पारित करने तथा, बिना किसी मांग के किसानों को उपहार में दिए गए कृषि कानूनों में सरकार की इतनी गहरी रूचि और ज़िद यह बताती है कि यह दोनो ही कदम किसी व्यापक सुधार का एजेंडा नहीं है बल्कि यह देशी विदेशी कारपोरेट घरानों के हितों के लिए ही लाये गये है।
किसान कानूनों पर बहुत कुछ लिखा गया है और उससे किसानों का क्या हित होगा, यह सरकार कई बार बता चुकी है, पर वह हित होगा कैसे, यह आज तक सरकार किसानों को बताने में असफल रही है। पर इसी अवधि में खामोशी से बने नए लेबर कानूनो को लेकर, बहुत अधिक चर्चा न तो श्रम संगठनो ने की और न ही उस पर टीवी चैनलों पर ही डिबेट हुआ। अब एक नज़र, नए लेबर कोड और उसकी नियमावली पर डालते हैं।
● व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशाएं लेबर कोड के लिए बनाई नियमावली का नियम 25 के उपनियम 2 के अनुसार किसी भी कामगार के कार्य की अवधि इस प्रकार निर्धारित की जाएगी कि उसमें विश्राम अंतरालों को शामिल करते हुए काम के घंटे किसी एक दिन में 12 घंटे से अधिक न हो। यानी पहले जो 8 घन्टे का समय था उसे 12 घन्टे का कर दिया गया है। बड़ी सफाई से उसमे विश्राम की अवधि भी जोड़ दी गयी है।
● पहले यह अवधि, कारखाना अधिनियम 1948 में 9 घंटे की थी।
● मजदूरी कोड की नियमावली के नियम 6 में भी यही बात कहीं गई है।
● व्यवसायिक सुरक्षा कोड की नियमावली के नियम 35 के अनुसार दो पालियों के बीच 12 घंटे का अंतर होना चाहिए।
● नियम 56 के अनुसार तो कुछ परिस्थितियों, जिसमें तकनीकी कारणों से सतत रूप से चलने वाले कार्य भी शामिल है मजदूर 12 घंटे से भी ज्यादा कार्य कर सकता है और उसे 12 घंटे के कार्य के बाद ही अतिकाल यानी दुगने दर पर मजदूरी का भुगतान किया जायेगा।
इससे स्पष्ट है कि 1886 के शिकागो, (यूएस) में मजदूरों ने आंदोलन और शहादत से जो 'काम के घंटे आठ' का अधिकार हासिल किया था उसे भी एक झटके में सरकार ने छीन लिया। यह भी तब किया गया जब हाल ही में काम के घंटे बारह करने के गुजरात सरकार के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ऐसा ही करने पर वर्कर्स फ्रंट की जनहित याचिका में हाईकोर्ट ने जबाब तलबी की और सरकार को इसे वापस लेना पड़ा। यहीं नहीं केन्द्रीय श्रम संगठनों की शिकायत को संज्ञान में लेकर अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज करते हुए भारत सरकार को चेताया था कि काम के घंटे 8 रखना आईएलओ का पहला कनवेंशन है, जिसका उल्लंधन दुनिया के किसी देश को नहीं करना चाहिए। इससे यह बात स्पष्ट है कि इसके बाद देश के करीब 33 प्रतिशत मजदूर अनिवार्य छटंनी के शिकार होंगे जिससे, देश मे, पहले से ही मौजूद भयावह बेरोजगारी और भी बढ़ जाएगी। हालांकि यह कानून अभी लागू नहीं हुआ है। सरकार अभी फिलहाल इस मुद्दे पर खामोश है। पर इन पर चर्चा जितनी ज़ोरदारी से होनी चाहिए उतनी जोरदारी से हो भी नही रही है। व्यावसायिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए बने इन लेबर कोडों में ठेका मजदूर को, जो इस समय सभी कार्याें में मुख्य रूप से लगाए जा रहे है, को भी शामिल किया गया है। पहले ही निजीकरण और डाउनसाइजिंग के कारण हो रही छंटनी की मार से कामगारो का जीवन तो दूभर हो ही रहा है, अब इन नए लेबर कोड ने तो उन्हें औऱ भी बुरी तरह से असुरक्षित बना दिया है। नए कोड के अनुसार 49 ठेका मजदूर रखने वाले किसी भी ठेकेदार को श्रम विभाग में अपना पंजीकरण कराने की कोई आवश्यकता नहीं है, अर्थात उसकी जबाबदेही के लिए लगने वाला न्यूनतम अंकुश भी सरकार ने समाप्त कर दिया है। जब वह ठेकेदार श्रम विभाग में पंजीकृत ही नहीं होगा तो उस पर श्रम कानूनों की पाबंदी की मॉनिटरिंग कौन करेगा ?
यह भी एक नियम है कि, व्यावसायिक सुरक्षा कोड के नियम 70 के अनुसार यदि ठेकेदार किसी मजदूर को न्यूनतम मजदूरी देने में विफल रहता है तो श्रम विभाग के अधिकारी नियम 76 में जमा ठेकेदार के सुरक्षा जमा से मजदूरी का भुगतान करायेंगे। यह नियम देखने मे एक बेहतर सुरक्षा कवच के रूप में लग सकता है। पर इस पर चर्चा के पहले यह भी जानना ज़रूरी है कि, ठेकेदार के जमा का स्लैब किस प्रकार से तय किया गया है।
● 50 से 100 मजदूर नियोजित करने वाले को मात्र 1000 रूपया,
● 101 से 300 नियोजित करने वाले को 2000 रूपया और
● 301 से 500 मजदूर नियोजित करने वाले ठेकेदार को 3000 रूपया सुरक्षा जमा की पंजीकरण राशि जमा करना है।
क्या इतनी कम धनराशि से, बकाया या न्यूनतम मजदूरी का भुगतान किसी संकट में या ठेकेदार के भाग जाने पर उसके मजदूरों को दिया जाना सम्भव होगा ? नियोक्ता या सरकार बीच मे कहीं नहीं है। ठेकेदार यह धनराशि मजदूर सुरक्षा के नाम पर जमा करेगा और जब वह मजदूरी देने पर विफल रहेगा तो इसी धन से मजदूरी का भुगतान होगा। यही नहीं कोड और उसकी नियमावली मजदूरी भुगतान में मुख्य नियोजक की पूर्व में तय जिम्मेदारी तक से उसे बरी कर देती है और स्थायी कार्य में ठेका मजदूरी के कार्य को प्रतिबंधित करने के प्रावधानों को ही खत्म कर लूट की खुली छूट दे दी गई है।
नए लेबर कोड्स में, 44 व 45 वे इंडियन लेबर कांग्रेस की संस्तुतियों के विपरीत, कुछ कामगारो, जैसे आगंनबाडी, आशा, रोजगार सेवक, मनरेगा कर्मचारी, हेल्पलाइन वर्कर आदि को शामिल नहीं किया गया है। हालांकि, कुछ नए कामगारों के वर्ग, जैसे फिक्स टर्म श्रमिक, गिग श्रमिक और प्लेटफार्म श्रमिक आदि को शामिल किया गया है। इनमे से प्लेटफार्म श्रमिक वह है जो, इंटरनेट आनलाइन सेवा प्लेटफार्म पर और गिग कामगार वह है जो अर्थव्यवस्था में अंशकालिक स्वरोजगार या अस्थायी संविदा पर काम करते है। नए कृषि कानूनों में उन कारपोरेट मंडियों को लाने की योजना है जो अमेजन, फिलिप कार्ड आदि विदेशी कम्पनियों के ऑनलाइन कामगार हैं। ‘वाई-फाई क्रांति’ या पीएम वाणी कार्यक्रम की घोषणाएं भी इसी दिशा की ओर हैं।
लेकिन इन श्रमिकों का उल्लेख औद्योंगिक सम्बंध और मजदूरी कोड में नहीं है, क्योंकि इनकी परिभाषा में ही यह अंकित है कि इनके मालिक और इन श्रमिकों के बीच परम्परागत मजदूर-मालिक सम्बंध नहीं है। इसका कारण यह है कि, इन कामगारो के मालिक विदेशों में, अमेरिका, यूरोप या किसी अन्य देश में हो सकते है। इनमें से ज्यादातर फिक्स टर्म इम्पलाइमेंट में ही लगाए जायेंगे। दिखाने के लिए कोड में कहा तो यह गया है कि फिक्स टर्म इम्पालाइज को एक साल यानी 12 महीने काम करने पर ही ग्रेच्युटी भुगतान हो जायेगी यानी उसे नौकरी से निकालते वक्त 15 दिन का वेतन और मिल जायेगा। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो सकेगा ? यदि कोई नियोक्ता, किसी भी कामगार को बारह महीने काम पर ही नहीं रखे तो क्या किया जा सकता है ? उसे सरकार या लेबर कोड किस प्रकार से वैधानिक संरक्षण देगा ? जैसा कि ठेका मजदूरों के मामले में अक्सर यह चालबाजी भी की जाती है कि, ठेका मजदूर एक ही स्थान पर पूरी जिदंगी काम करते है लेकिन सेवानिवृत्ति के समय उन्हें ग्रेच्युटी नहीं मिलती क्योंकि उनके ठेकेदार हर साल या चार साल में बदल दिए जाते है और वह कभी भी पांच साल एक ठेकेदार में कार्य की पूरी नहीं कर पाते जो ग्रेच्युटी पाने की अनिवार्य शर्त है।
भारतीय मजदूरों द्वारा 1920 में की गई हड़ताल के बाद, ब्रिटिश सरकार ने ट्रेड डिस्प्यूट बिल पारित किया। तब तक 1917 मे रूसी क्रांति हो चुकी थी और दुनियाभर में श्रमिक चेतना जाग्रत हो रही थी। इस हड़ताल के बाद अंग्रेजों ने इस ट्रेंड डिस्प्यूट बिल द्वारा हडताल को प्रतिबंधित कर दिया था और हडताल करने वाले को बिना कारण बताए जेल भेज देने का प्राविधान था। बाद में 1942 से 1946 तक भारत में वायसराय की कार्यकारणी के श्रम सदस्य रहते हुए डा. बीआर अम्बेडकर ने औद्योगिक विवाद अधिनियम का निर्माण किया जो 1947 से लागू है। इस महत्वपूर्ण कानून की आत्मा को ही सरकार ने लागू किए जा रहे लेबर कोडों में निकाल दिया है। इस कानून में नियोक्ता और कामगारो के बीच विवाद होने पर वैधानिक मेकेनिज़्म बनाने की अनिवार्यता है। हड़ताल का अधिकार कोई मौलिक अधिकार नहीं है पर अपनी मांगों के लिये शांतिपूर्ण हड़ताल को विधिविरुद्ध भी नहीं माना गया है। इस कानून के अनुसार श्रम विभाग एक विधि इन्फोर्सर के रूप में था, पर नए लेबर कोड के अनुसार, श्रम विभाग के अधिकारी श्रम कानून के उल्लंधन पर उसे लागू कराने मतलब प्रर्वतन (इनफोर्समेंट) का काम नहीं करेंगे बल्कि उनकी भूमिका सुगमकर्ता (फैसीलेटर) की होगी यानी अब उन्हें मालिकों के लिए सलाहकार या सुविधाकर्ता बनकर काम करना होगा। अब वे कामगारों के हित के बजाय मालिको के हित रक्षक के रूप में दिखेंगे। किसी भी प्रकार की कोई हड़ताल, इस नई संहिता के प्रावधानों के अनुसार मुश्किल हो गयी है, साथ ही, हड़ताल के लिए मजदूरों से अपील करना भी अपराध की कोटि में आ गया है। औद्योगिक सम्बंध कोड की धारा 77 के अनुसार 300 से कम मजदूरों वाली औद्योगिक ईकाईयों को कामबंदी, छंटनी या उनकी बंदी के लिए सरकार की अनुमति लेना जरूरी नहीं है। साथ ही घरेलू सेवा के कार्य करने वाले मजदूरों को औद्योगिक सम्बंध कोड से ही बाहर कर दिया गया है।
व्यावसायिक सुरक्षा कोड की धारा 61 के अनुपालन के लिए बने नियम 85 के अनुसार प्रवासी मजदूर को साल में 180 दिन काम करने पर ही मालिक या ठेकेदार द्वारा आवगमन का किराया दिया जायेगा। अमानवीयता की हद यह है कि कोड में लोक आपात की स्थिति में बदलाव करने के दायरे को बढाते हुए अब उसमें वैश्विक व राष्ट्रीय महामारी को भी शामिल कर लिया गया है। ऐसी महामारी की स्थिति में मजदूरों को भविष्य निधि, बोनस व श्रमिकों के मुफ्त इलाज के लिए चलने वाली कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) पर सरकार रोक लगा सकती है।
यही नहीं, सातवें वेतन आयोग द्वारा तय न्यूनतम वेतन 18000 रूपए को मानने की कौन कहे सरकार ने तो लाए नए मजदूरी कोड में मजदूरों की विशिष्ट श्रेणी पर ही बड़ा हमला कर दिया है। अभी अधिसूचित उद्योगों के अलावा इंजीनियरिंग, होटल, चूड़ी, बीड़ी व सिगरेट, चीनी, सेल्स एवं मेडिकल रिप्रेंसजेटेटिव, खनन कार्य आदि तमाम उद्योगों के श्रमिकों की विशिष्ट स्थितियों के अनुसार उनके लिए पृथक वेज बोर्ड बने हुए है, जिसे नया कोड समाप्त कर देता है। इतना ही नहीं न्यूनतम मजदूरी तय करने में श्रमिक संघों को मिलाकर बने समझौता बोर्डों की वर्तमान व्यवस्था को जिसमें श्रमिक संघ मजदूरों की हालत को सामने लाकर श्रमिक हितों में बदलाव लाते थे उसे भी खत्म कर दिया गया है। याद कीजिए, जब लॉक डाउन - 1 लगा था तो सरकार ने कहा था कि वह प्रवासी कामगारो को लॉक डाउन की अवधि का वेतन कम्पनियों की तरफ से दिलाएगी। पर जब कम्पनियां धन की कमी और उद्योगों की बंदी का रोना लेकर, सुप्रीम कोर्ट गयी तो सरकार पूंजीपतियों के पक्ष में खड़ी नज़र आयी और कामगारो को उनका हक नहीं मिला।
‘ईज आफ डूयिंग बिजनेस’ के लिए मोदी सरकार द्वारा लाए मौजूदा लेबर कोड मजदूरों के लिये घातक हैं। उद्योगों के लिये केवल पूंजी ही ज़रूरी नहीं होती है बल्कि श्रम भी उतना ही ज़रूरी होता है। कामगारो को न केवल उचित वेतन और भत्ते मिलें बल्कि उन्हें और उनके परिजनों को उचित शिक्षा, स्वास्थ्य और रहन सहन के लिये उचित वातावरण मिले। सरकारी उपक्रम अपने कामगारो को यह सब सुविधाएं देते है। पर निजी कम्पनियां, कुछ नियोक्ताओं को छोड़ कर यह सब सुविधाएं नहीं देना चाहती हैं। इस सब सुविधाओं से, कामगारो की कार्यक्षमता व क्रय शक्ति में वॄद्धि ही होगी और देश तथा समाज के उत्थान के साथ आर्थिक विषमता भी कम होगी। अन्यथा, पर्याप्त कानूनी सुरक्षा के अभाव में औद्योगिक अशांति बढ सकती है, जो औद्योगिक विकास को भी बुरी तरह से प्रभावित करेगी। कारपोरेट हितों को ही ध्यान में रख कर बनाये गए तीनों कृषि कानून और नए लेबर कोड, पूंजी के आदिम संचय की प्रवित्ति को बढायेंगे और भारत जैसे श्रम-शक्ति सम्पन्न देश में श्रम के शोषण को ही बढ़ाएंगे। लूट को अंजाम देंगे।
© विजय शंकर सिंह