ग़ालिब - 34.
आज़ादी ए नसीम मुबारक , कि हर तरफ,
टूटे पड़े हैं, हल्का ए दाम ए हवा ए गुल !!
आज़ादी ए नसीम मुबारक , कि हर तरफ,
टूटे पड़े हैं, हल्का ए दाम ए हवा ए गुल !!
Aazaadee e naseem mubaaraq, ki har taraf,
Toote pade hain, halaqaa e daam e hawaa e ghul !!
- Ghalib
Toote pade hain, halaqaa e daam e hawaa e ghul !!
- Ghalib
आज़ादी के सुबह की ताज़ी हवा को बधाई और मुबारकबाद । इसी स्वतंत्रता के कारण ही आंधी और हवा के जाल में फंस उनकी चपेट में आ फूल चारों तरफ बिखरे पड़े हैं।
ग़ालिब आज़ादी के भाव को मुक्त पवन के निर्बंध प्रवाह के समान देखते हैं। यह शेर 1857 के विप्लव के तुरंत बाद का है। विप्लव असफल हो चुका था। बहादुरशाह ज़फर को बंदी बना लिया गया था। अँगरेज़,विप्लव के सदमें से उबर रहे थे। दिल्ली में कोई भी शासन न तो मुग़ल बादशाह का और न ही अंग्रेज़ी राज का था। एक अराजकता थी। इसी आज़ादी को इंगित करते हुए ग़ालिब इसकी तुलना मुक्तपवन के प्रवाह से करते हैं। जैसे तेज़ आंधी मौसम और वातावरण को खुशनुमा तो बना देती है,पर वह अपनी चपेट में बाग़ के फूलों और वृक्षों को भी लपेट लेती है। आंधी की तुलना आज़ादी के साथ, अद्भुतसुख़नवरी है। संसार में हर राष्ट्र जब कभी भी विदेशी या आततायी शासन से मुक्त होकर आज़ाद होता है तो, परिवर्तन का काल वह संक्रमण काल होता है। ग़ालिब के इस शेर में आज़ादी या परिवर्तनजन्य संक्रमणकाल को बहुत खूबसूरती से अभिव्यक्त किया गया है ।
© विजय शंकर सिंह
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