आज वाँ तेग ओ कफन बांधे हुए जाता हूँ मैं,
उज्र मेरे क़त्ल करने में वो अब लायेंगे क्या !!
Aaj waan tegh o qafan baandhe huye jaataa hoon
main,
Uzra mere qatl karne mein wo ab laayenge kyaa !!
-Ghalib.
आज मैं एक तलवार और अपना कफन खुद ही साथ ले जाता हूँ. अब भला उन्हें मेरी हत्या करने में क्या हिचकिचाहट , आपत्ति हो सकती है.
अपनी मृत्यु से भी भयभीत नहीं है ग़ालिब. उन्होंने अपने कातिल को चुनौती दे रखी हो जैसे. कातिल क्यों उनपर, उनका क़त्ल कर के मेहरबानी कर रहा है. यह तो वही जानें. लेकिन आज तो वह अपने क़त्ल के लिए तलवार और कफन खुद ही ले कर जाने को तत्पर हैं. लगता है, ऊब गए हों षड्यंत्र को सुनते सहते. अब शायद कातिल को कोई आपत्ति ही न हो. इस बिन्दासपने से तो शायद ही कोई गया हो अपने कातिल के पास. लेकिन कौन किसे क़त्ल करता है, कौन चाहते हुए भी नहीं कर पाता है यह सब पूर्व निर्दिष्ट है. इसी शेर की एक व्याख्या में कहा गया है कि मृत्यु का सारा सामान इकठ्ठा हो, फिर भी मृत्यु जब तक समय न हो नहीं आती. कातिल चाहे तो भी सारे हथियारों और इरादों के बाद भी कुछ नहीं कर सकता. यह हम सब का भ्रम है कि हम अपनी मर्जी से कुछ कर सकते हैं. लेकिन नहीं . जो है वह निर्दिष्ट है, और नियतिस्थ भी.
ग़ालिब के जीवन में इतनी विसंगतियायें, विडम्बनायें आयी कि वे नियतिवादी हो गए. उनके हर शेर में जो दुःख झलकता है वह नियति के दु:स्वप्नों की छाया ही है. उन्होंने परिहास भी किया है तो वहाँ भी नियति, और जहां आशावाद है वहाँ भी भाग्य की बात सामने आयी है. यहाँ इस शेर में अभय है, साहस है, तो सारी विसंगतियों को चुनौती भी, कि अगर मुझे ख़त्म कर सकते हो तो करो, मैं उसके भी उपकरण तुम्हे ला कर देता हूँ. यहाँ आशावाद है, साहस भी और खीझ भी. सब कुछ चंद शब्दों में ही समेट दिया है ग़ालिब ने.
( विजय शंकर सिंह)
(यह चित्र, 1852 की एक पेंटिंग जो दीवान ए ग़ालिब की एक प्रति से लिया गया है. श्रोत ग़ालिब एकेडेमी दिल्ली)
Uzra mere qatl karne mein wo ab laayenge kyaa !!
-Ghalib.
( विजय शंकर सिंह)
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