1917 से रूस की बोल्शेविक क्रांति के बाद रूसी समाजवादी क्रांति के नायक लेनिन 1924 तक सोवियत रूस के सबसे बड़े नेता और सर्वेसर्वा बने रहे। 1924 में उनका निधन हुआ था। लेनिन के नेतृत्व में जो समाजवादी क्रांति रूस में हुयी थी, उसका दर्शन कार्ल मार्क्स के सिद्धांत थे। मार्क्स थे तो जर्मनी के पर उनका सारा अध्ययन लन्दन में हुआ था। मार्क्स कोई जनाधार वाले नेता नहीं थे बल्कि वे एक दार्शनिक थे और उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दर्शन का सूत्रपात किया था। मार्क्स ने इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के बाद श्रमिकों की स्थिति, पूंजी के एकत्रीकरण, श्रम और पूंजी के असमान वितरण पर व्यापक अध्ययन किया और पूंजी दास कैपिटल नामक एक विशद ग्रँथ लिखा। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार मे दो ही वर्ग हैं एक शोषक और दूसरा शोषित। मार्क्स ने पहले के लिये बुर्जुआ शब्द और दूसरे के लिये सर्वहारा प्रोलेटेरियत शब्द का प्रयोग किया। 1848 में उन्होंने एक छोटी सी पुस्तक लिखी, कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र। इस घोषणा पत्र का अंत एक कालजयी वाक्य से होता है, दुनिया के मज़दूरों एक हो, तुम्हारे पास खोने के लिये केवल तुम्हारे पांव में बंधी बेड़ियां हैं और जीतने के लिये सारा संसार ।
मार्क्स की अवधारणा यह थी कि समाजवादी क्रांति मज़दूरों के नेतृत्व में ही औद्योगीकृत देश मे होगी। पर उनकी यह अवधारणा सही नहीं हुयी। समाजवादी क्रांति हुयी भी तो पहले रूस और फिर चीन में , जो दोनों ही राष्ट्र यूरोप की तुलना में बहुत कम औद्योगीकृत कृत थे और मूलतः किसानों के थे। रूस को सामंती राज्य था। लेनिन का सबसे बड़ा योगदान था कि उन्होंने मार्क्स के मजदूर केंद्रित विचारधारा को रूस के स्थानीय समस्याओ से जोड़ कर उसका रूसीकरण किया और तब रूस में जारशाही के खिलाफ एक लंबा आन्दोलन चला और 1917 में यह क्रांति हुई। यह एक युग का अवसान था। 1990 तक आते आते रूस विखण्डित हो गया। अधिकतर सोवियतें आज़ाद मुल्क बन गए और कम्युनिस्ट पार्टी का पतन हो गया। 1924 से ले कर 1990 तक लेनिन की बहुत सी प्रतिमाएं लगीं और वे संभवतः दुनिया के अकेले राष्ट नायक थें जिनकी मृत्यु के बाद भी उनका शव ममीकृत कर के रखा गया। समय अपनी गति से चलता रहता है। इतिहास बनता बिगड़ता रहता है। रूस में भी यह कोई अपवाद नहीं था। रूस में ही लेनिन की मूर्तियां हटा दी गई। कम्युनिस्ट साहित्य का प्रकाशन बन्द हो गया।
त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति के गिराने को ले कर सभी की अपनी अपनी प्रतिक्रिया आ रही है। कुछ लेनिन को विदेशी कह रहे हैं तो कुछ हत्यारा। वे लेनिन और स्टालिन का अंतर भी नही समझ पा रहे हैं। पर लेनिन की एक मूर्ति अमेरीका में है जिसका इतिहास बहुत रोमांचक है। अमेरिका पूंजीवाद की नाभि है और अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के पूंजी के केंद्र मैनहट्टन में लेनिन, रूस से निष्कासित होने के बाद खड़े हैं, यह खबर अचंभित करने वाली है। वे रेड स्क्वायर नामक एक बहुमंजिले भवन के ऊपर तनी हुई मुट्ठी से क्रांतिकारी अभिवादन करते हुये खड़े थे। अब उन्हें एक भव्य स्मारक के रूप में नॉरफोक नामक स्थान पर स्थापित किया गया है।
1989 में सोवियत यूनियन बिखर गया था। रूस के बिखरने के बाद दुनिया का शक्तिकेन्द्र एक ध्रुवीय हो गया। अमेरिका का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी ढह गया था। उसी दौरान जब रूस में विदेशी निवेश बढ़ा तो अमेरिकी पूंजीपतियों का आवागमन और गतिविधियां बढ़ी।इसी सिलसिले में अमेरका से दो रीयल स्टेट डेवलपर रूस की यात्रा पर थे। वे मास्को गए और वहां उन्होंने एक स्थान पर लेनिन की 18 फुट ऊंची प्रतिमा उपेक्षित रूप से देखी। उनकीं उत्कंठा जगी और उन्होंने लेनिन के संबंध में जानकारी एकत्र की। वे रूस में लेनिन के योगदान और रूसी क्रांति के रोमहर्षक कहानियों को भी सुना। उन्होनें उस प्रतिमा को रूस से अमेरिका लाने का निश्चय किया। 1994 में वह प्रतिमा मास्को से अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में लायी गयी। रेड स्क्वायर शब्द से मास्को या किसी कम्युनिस्ट देश के एक प्रमुख चौराहे का भान होता है जहां लाल झंडे लिये लोग खड़े हैं और कम्युनिस्टों का कोई उत्सव देख रहे हैं। पर कोई रेड स्क्वायर नाम का प्रमुख स्थान न्यूयार्क में भी है, इस पर बहुतों सहित मुझे भी पहले आश्चर्य लगा। न्यूयार्क के मैनहट्टन नदी के किनारे एक बहुमंज़िली लाल रंग की बड़ी सी अट्टालिका का नाम रेड स्क्वायर है। जो ईस्ट विलेज नामक स्थान पर स्थित है। उसी भवन की छत पर रूस से लाकर लेनिन की प्रतिमा स्थापित की गई।
लेनिन की यह प्रतिमा 1989 में बननी शुरू हुई थी और जब तक बन कर तैयार होती तब तक सोवियत रूस बिखर गया था। वह प्रतिमा वैसे ही उपेक्षित पड़ी रही। इस प्रतिमा को मॉस्को से लाने वाले दोनों अमेरिकन के नाम माइकेल शाओन और माइकेल रोजेन थे। 1997 में न्यूयार्क टाइम्स में मार्टिन स्टोल्ज़ नामक एक पत्रकार ने इस प्रतिमा स्थान्तरण पर एक रोचक लेख लिखा है। एक यात्री के हवाले से उसने लिखा है कि रेड स्क्वायर में कहीं से भी देखने पर लेनिन की प्रतिमा दिखती थी और ऐसा लगता था कि वह प्रतिमा न्यूयॉर्क के पूंजीवादी चरित्र को देख रही है। रोजेन से पूछे जाने पर कि उसने यह प्रतिमा मैनहट्टन में ही क्यों स्थापित की तो रोजेन ने जवाब दिया कि प्रतिमा जल्दी में आ गयी और उसके लिये उचित स्थान नहीं बन पाया था तो उसे रेड स्क्वायर बिल्डिंग पर ही खड़ा कर दिया गया। उसने यह भी कहा कि, रेड स्क्वायर में प्रतिमा लगाने को लेकर कोई राजनैतिक विरोध या चर्चा भी नहीं हुई।
मैनहट्टन की उस सम्पति रेड स्क्वायर के बिक जाने और उसके नए स्वामी द्वारा उसका नवनिर्माण कराने के कारण उस प्रतिमा को बाद में वहां से अन्यत्र स्थापित किया गया। प्रतिमा स्थानान्तरण का एक कारण यह भी कहा जाता है कि नए स्वामी को भवन पर लेनिन की प्रतिमा पसन्द नहीं थी। लेकिन नापसंदी के बावजूद भी नए स्वामी ने प्रतिमा को सम्मान पूर्वक उतारा और नए स्थान जहाँ पर प्रतिमा को स्थापित किया जाना था, के बन जाने तक सुरक्षित रखा। बाद में प्रतिमा को वहां से उतार कर फिर नए स्थान पर स्थापित कर दिया गया। अब वह प्रतिमा 178 नोरफॉल्क जो माइकेल रोजेन की ही संपत्ति थी वहां स्थापितं है। किसी भी राजनैतिक दल या दक्षिणपंथी समूह ने इस प्रतिमा पर आज तक कोई आपत्ति नहीं की , जब की अमेरिका में मार्क्स या लेनिन के अनुयायी हैं ही नहीं।
दुनिया मे कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं जो भले ही अपने देश के महानायक हों पर उनकी उपलब्धियां और दर्शन दुनिया भर के समाज को अनुप्राणित करती है। भारत के महात्मा गांधी भी इसी कोटि में आते हैं। 100 से अधिक देशों में उनकी प्रतिमाएं है। उनके दर्शन ने तीसरी दुनिया ही नहीं अमेरिकी समाज को भी प्रभावित किया है। तीसरी दुनिया के अनेक देशों ने साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिये गांधी का ही रास्ता अपनाया। गांधी से किसी की भी असहमति हो सकती है पर विश्व मे उनका जो स्थान है वह अनोखा रहेगा। लेनिन ने भी अपनी क्रांतिकारी सोच और दुर्दम्य इच्छा शक्ति ने एक नए प्रकार के परिवर्तन की राह खोली। वे भी अपने देश की सीमाओं के पार चले गए। मार्क्स तो एक अध्येता थे। फिर भी लन्दन के हाई गेट नामक स्थान पर उनका स्मारक बना हुआ है। इंग्लैंड तो कभी भी कम्युनिस्ट नहीं हुआ और न होने की कोई आशा है। फिर भी कम्युनिस्ट विचारधारा के संस्थापक के स्मारक पर कोई आपत्ति नहीं की। विश्व मनीशा अनन्त है और इसका सम्मान किया जाना चाहिए ।
© विजय शंकर सिंह
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