Saturday, 10 March 2018

एक कविता - रिसता हुआ झूठ / विजय शंकर सिंह

ऊंची जगहों से रिसता हुआ झूठ,
नीचे नगर में फैल कर,
एक सड़ांध मारता ,
कीचड़ पैदा कर देता है ।
उसी बजबजाते और
बदबू मारते कीचड़ में लिपटे पांव,
और ऊपर दूर कहीं आसमान में
इन सब से बेफिक्र हो
घूमता हुआ चांद ,
कितना खूबसूुरत लगता है न !

© विजय शंकर सिंह )

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