आज 23 मार्च को उनका जन्मदिन है। हालांकि आज ही के दिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटका दिया गया था, इस लिये वे अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे।
डॉ लोहिया बीसवीं सदी में गांधी के बाद सबसे लोकप्रिय राजनीतिक चिंतक और राजनेता रहे। वे समाजवादी विचारधारा के थे। पर समाजवाद के जनक कार्ल मार्क्स की विचारधारा को भी उन्होंने कहीं न कहीं खारिज किया है। " मार्क्सवाद एशिया के खिलाफ यूरोप का अंतिम हथियार है." यह वाक्य जब उन्होंने कहा तो सभी मार्क्सवादी विचारकों में ज़बरदस्त प्रतिक्रिया हुआ। मार्क्सवाद खुद ही अपने समय मे विकसित हो रहे पूंजीवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ और शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिये कृतसंकल्प था । डॉ लोहिया की विचारधारा मूल रूप से सैद्धांतिक मार्क्सवाद और गांधीवाद के व्यावहारिक सोच के बीच कहीं थी। उन्होंने अपनी विचारधारा को स्पष्ट करने के लिये मार्क्स गांधी और सोशलिज़्म नामक पुस्तक लिखी है। राजनैतिक विचारधारा के अतिरिक्त, उन्होंने भारत विभाजन के अपराधी, इतिहास चक्र आदि अपने समय की चर्चित पुस्तकें भी लिखी हैं ।
लोहिया एक मौलिक विचारक थे। भारतीय गणतंत्र को लेकर उनकी सोच देसी थी। अपने इतिहास, अपनी भाषा के सन्दर्भ में वे पाश्चात्य विचारधारा से अक्सर असहमत रहते थे। सन् 1932 में जर्मनी से पीएचडी की उपाधि प्राप्त करने वाले राममनोहर लोहिया ने साठ के दशक में अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन की की शुरुआत की जो तब तक आज़ादी के बाद का सबसे असरदार आंदोलन था। स्वभाषा का अंग्रेजी के स्थान पर प्रयोग उनके लिये अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों–करोडों को हीन ग्रंथि से उबरकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था । उनके अनुसार,
‘‘मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें। इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं।’’
विदेश से पढ कर आनेे के बावजूद भी उन्हें उन प्रतीकों का अहसास और लगाव था जो भारतीय अस्मिता की पहचान है। चित्रकूट में रामायण मेला उन्हीं की संकल्पना थी । उन्ही के शब्दो मे उनका यह प्रसिद्ध वाक्य पढ़े।
‘ऐ भारतमाता, हमें शिव का मस्तिष्क दो, उन्मुक्त हृदय के साथ जीवन की मर्यादा से रचो’
‘‘मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें। इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं।’’
विदेश से पढ कर आनेे के बावजूद भी उन्हें उन प्रतीकों का अहसास और लगाव था जो भारतीय अस्मिता की पहचान है। चित्रकूट में रामायण मेला उन्हीं की संकल्पना थी । उन्ही के शब्दो मे उनका यह प्रसिद्ध वाक्य पढ़े।
‘ऐ भारतमाता, हमें शिव का मस्तिष्क दो, उन्मुक्त हृदय के साथ जीवन की मर्यादा से रचो’
लोहिया कोई आर्म चेयर राजनेता नहीं थे। संसद हो या सड़क वे दोनों ही जगह अपनी मज़बूत दखल रखते थे। इतनी लोकप्रियता के बाद भी वे संसद में बहुत देर से पहुंचे। 1952, 57, और 62 के चुनाव हारने के बाद भी वे भारतीय राजनीति में सबसे लोकप्रिय विरोधी नेता बने रहे। 1963 में वे फर्रुखाबाद से लोकसभा में पहुंचे । यह एक उपचुनाव था। तब संसद जवाहरलाल नेहरू की प्रभा मंडल से घिरी थी। लोहिया जो खुद भी कभी नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ कर हार चुके थे, ने 1963 में नेहरू सरकार के खिलाफ संसदीय इतिहास में पहला अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत किया। प्रस्ताव गिरा । उसे गिरना ही था। लेकिन लोहिया का उद्देश्य प्रस्ताव पर बहस करना और सरकार को एक्सपोज़ करना था। संसद में विपक्ष मज़बूत हुआ और 1963 से 1967 , अपनी मृत्यु तक वे सबसे जुझारू औऱ लोकप्रिय नेता बने रहे। वे संसद ही सड़क पर भी सक्रिय रहते थे। " सड़क जब खामोश हो रहने लगती है संसद आवारा हो जाती है, " कहने वाले डॉ लोहिया के विचार सदैव उन सबको अनुप्राणित करते रहेंगे जो जनता की बेहतरी, समता मूलक समाज, और एक ऐसी दुनिया बनाना चाहते हैं जहाँ जो सम्मान, समता और उन्नत जीवन और विचार के साथ जीवन यापन कर सकें।
डॉ लोहिया के जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण !!
© विजय शंकर सिंह
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