ग़ालिब - 33
हम आज अपनी परेशानी ए खातिर उनसे ,
कहने जाते तो हैं , पर देखिये क्या कहते हैं !!
Ham aaj apnee pareshaanee e khaatir un se ,
kahne jaate to hai , par dekhiye kyaa kahte hain !!
- Ghalib .
kahne jaate to hai , par dekhiye kyaa kahte hain !!
- Ghalib .
इसका अर्थ स्पष्ट है। हम किसी न किसी आशा में अपने कष्टों के निदान हेतु , किसी के पास , अपनी बात कहने जाते तो हैं , पर देखना है , हमारी बात सुन कर , क्या निदान करते हैं या वह क्या कहते हैं।
ग़ालिब का काव्य गूढ़ है और बहुत से अर्थों को समेटे हुए है। ग़ालिब का जीवन , देश के इतिहास की एक बेहद रोमांचक और गौरवपूर्ण घटना का भी गवाह है। उनके काल में आधिकारिक रूप से , मुग़ल साम्राज्य का खात्मा हो गया था और ब्रिटिश राज की नींव पडी। देश का सबसे पहला जन आंदोलन किसी विदेशी साम्रयाज्य को उखाड़ फेंकने के लिए हुआ था। यह अलग बात है कि वह विद्रोह असफल हुआ। उस असफलता से हमने कोई सबक सीखा या नहीं , पर अंग्रेज़ों ने उस से यह सीख ज़रूर ली कि देश पर राज करना है तो देश के सामाजिक तानेबाने को दरकाना होगा और वह बिल्लियों के बीच रोटी के बंटवारे की तरह बंदरों की भूमिका निभाते रहे। हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य की नीवं उसी विप्लव के बाद पडी। ग़ालिब की आत्म कथा , दस्तम्बू , और उनके लिखे पत्रों में इस विप्लव की अनेक कथा बिखरी पडी है। बस आप को उस में से इतिहास को शोधित करना होगा। ग़ालिब इतिहास लेखक नहीं रहे हैं , वह इतिहास के गवाह ज़रूर रहे हैं।
अब ज़रा इस शेर की पृष्ठभूमि में जाइए। ग़ालिब का परिवार आगरा से दिल्ली आया था। दिल्ली दरबार के वे आश्रित रहे। लोहारू एक छोटी सी रियासत है , जो , दिल्ली के पास थी। वहाँ के नवाब द्वारा इन्हे कुछ पेंशन जीवन यापन के लिए दी जाती थी। 1806 में उन्हें नवाब लोहारू द्वारा , 10,000 रूपये वार्षिक पेंशन स्वीकृत की गयी थी । बाद में नवाब के देहांत के बाद रियासत के नवाबों में जो विवाद हुआ उसका असर इनकी पेंशन पर भी पड़ा। परिणामतः , पेंशन की राशि कम हो कर आधी रह गयी। उस 5, 000 में से भी 2, 000 इनके नाम पर किसी और को दे दी गयी। ग़ालिब के लिए यह बेहद आर्थिक तंगी का दौर था। ग़ालिब के यहाँ , अक्सर काव्य गोष्ठियां जमा करती स्वभावतः उनका हाँथ खुला हुआ था। इस आर्थिक तंगी में मुग़ल बादशाह भी कुछ नहीं कर सकते थे। क्यों कि उनका भी हाल आर्थिक रूप से बहुत अच्छा नहीं था। अंग्रेज़ों ने दिल्ली में अपना रेजिडेंट बैठा रखा था , जो वास्तविक शासक था। एक जुमला बहुत प्रसिद्द था। ख़ल्क़ खुदा का , मुल्क़ बादशाह का , हुक्म कंपनी बहादुर का। 1859 की महारानी की घोषणा के बाद तो , मुल्क़ और हुक्म दोनों ही ब्रिटेन का हो गया।
उस समय कलकत्ता , ब्रिटिश राज की राजधानी थी। गवर्नर जनरल वहीं बैठता था। किसी ने ग़ालिब को राय दी कि वह कलकत्ता जाएँ और अपनी शिकायत गवर्नर जनरल से करें। ग़ालिब ने अंग्रेज़ों को देने के लिए एक याचिका तैयार की और वह कलकत्ता गए। कलकत्ता जाना उस समय आसान नहीं था। वह , आगरा , बाँदा , कानपुर, लखनऊ होते हुए वाराणसी पहुंचे और बनारस में वह काफी समय तक रुके। बनारस के घाटों और सुबह के मनोरम दृश्यों पर उन्होंने फारसी में बेहद प्रसिद्द और सुन्दर नज़्म भी लिखी । दिल्ली से चार महीने बाद वह कलकत्ता पहुंचे। वहाँ उनकी भेंट गवरनर जनरल से तो हुयी नहीं, पर उनकी अर्जी ज़रूर पहुंची और बैरंग वापस भी आ गयी। वहां भी उनकी बात सुनी नहीं गयी। वे वापस दिल्ली आ गये। यह शेर कितना मासूम और सच बयानी है कि हम अपनी व्यथा, व्यथा दूर करने वाले तक पहुंचा ही सकतें हैं आगे निगाहे करम करने वाले की नज़र जाने।
© विजय शंकर सिंह
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