Friday, 23 March 2018

Ghalib - Aagosh e gul kushoodaa / आगोश ए गुल कुशूदा - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह



ग़ालिब - 31.
आगोश ए गुल कुशूदा बराये बिदाअ है,
ऐ अंदलीब चल, कि चले दिन बाहर के !!

Aagosh e ghul kushoodaa baraaye bidaa'a hai,
Ai andleeb chal, ki chale din bahaar ke !!
- Ghalib

अंदलीब - बुलबुल
कुशादा - खुला हुआ, अनावृत्त

ऐ बुलबुल, अनावृत्त पुष्प और खुल कर फैल रहा है। बसंत अब जाने वाला है । अब तेरे भी इस बाग से विदा होने का समय आ गया है। अतः अब तू भी यहां से चल ।

पुष्प का खिलना और फिर मुरझा जाना यह जीवन चक्र है। यही जीवनचक्र मौसम के बारे में भी है। वसंत का आगमन, यौवन और अवसान एक अनिवार्य प्रक्रिया है। अंदलीब को आकर्षण है उत्फुल्ल पुष्प का। पर जब फूल अपनी अवधि पूरी कर चुका तो अंदलीब क्या करे। बसन्त के अवसान के प्रारम्भ काल का संकेत पुष्प ने अपनी उत्फुल्लता के शिखर पर पहुंच कर दे दिया। अब वह अगले वसंत फिर खिलेगा, बुलबुलें फिर आएंगी, कुछ समय बहार के गुजरेंगे और फिर वही ग्रीष्म की तपा देने वाली गर्मी। यह शेर काल चक्र और निर्दिष्ट नियति को स्पष्ट करता है। एक वाक्य में कहूँ तो सब कुछ परिवर्तन शील है। अपने अपने समय पर सब बदलता रहता है।

© विजय शंकर सिंह

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