पुरानी कहावत है, एक झूठ को छुपाने के लिए हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। आज जब सावरकर के माफीनामे पर बहस छिड़ गई है तो, भाजपा, सावरकर के माफीनामे का औचित्य साबित करने के लिए, कभी शिवाजी के पत्रों तो कभी काकोरी के शहीद, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खान और ठाकुर रोशन सिंह द्वारा एक दया याचिका में, माफी के इनग्रेडियेंट ढूंढ रही है। आज जिक्र करते हैं, काकोरी के शहीदों के कथित माफीनामे की, जिसे बीजेपी प्रवक्ता ने, कल एक टीवी चैनल पर सावरकर के माफीनामे के समतुल्य ठहराने की कोशिश की।दोनो में मौलिक अंतर है। सावरकर का माफीनामा, मुक्त करने, अंग्रेजों का वफादार रहने और उन्हें माई बाप मानने के वायदों से लबरेज था तो, काकोरी शहीदों की दया याचिका, विधि की परंपरा और क्रिमिनल जस्टिस की एक प्रक्रिया का अंग था। इसे खुद राम प्रसाद बिस्मिल ने ही, अपने एक लेख में, स्पष्ट कर दिया है जिसे भगत सिंह ने अपने एक लेख में उद्धरित किया है।
भगत सिंह पर, आधिकारिक विद्वान और गंभीर शोधकर्ता, प्रोफेसर चमन लाल जिन्होंने, भगत सिंह के लेखों का संपादन और संकलन किया है, ने बिस्मिल, अशफाक और रोशन सिंह द्वारा दी गई दया याचिका के औचित्य और उद्देश्य पर, भगत सिंह द्वारा लिखे, एक लेख का विवरण दिया है, जो इस संबंध में सारी स्थिति, खुद ही, स्पष्ट कर देता है। एक क्रांतिकारी और लेखक, दोनों ही रूपों में भगत सिंह अलग ही दिखते हैं। वह 1923 में 16 साल की उम्र में क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो गए थे और 1931 में फांसी पर चढ़ गए। कुल 8 साल का समय उन्हे मिला था, और कोई भी यह समझ सकता है कि, वह न केवल भारत में, बल्कि पूरी दुनिया के क्रांतिकारी आंदोलनो में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। उन्होंने इस अवधि में न केवल राजनीतिक क्रांतिकारी कार्य किए, बल्कि, खूब लिखा भी। इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र या साहित्य की बेहतरीन किताबों को पढ़ने में, उन्होंने काफी समय बिताया। उनका लेखन, चार भाषाओं, उर्दू, हिंदी, पंजाबी और अंग्रेजी में है। भगत सिंह ने सात वर्षों में 130 से अधिक दस्तावेज लिखे, जिनमें लगभग 400 सौ पृष्ठ शामिल थे! कोर्ट स्टेटमेंट, पैम्फलेट, निबंध और स्केच के अलावा उन्होंने 50 से अधिक पत्र लिखे। उनके, एक जेल साथी की यादों के आधार पर, कई लोगों का मानना है कि भगत सिंह ने जेल में चार अन्य किताबें भी लिखीं थीं; लेकिन वे अब अनुपलब्ध हैं।
भगत सिंह ने काकोरी कांड के शहीदों पर पंजाबी/उर्दू पत्रिका कीर्ति में कुछ निबंध लिखे। उसी में एक लेख है, "राम प्रसाद बिस्मिल का संदेश," जिसे, यहां 'भगत सिंह रीडर' से लेकर, पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। यह लेख वर्तमान समय में उठे विवाद को स्पष्ट करने के लिए प्रासंगिक है। यह लेख राम प्रसाद बिस्मिल के लिखे एक संस्मरण रेखाचित्र पर आधारित है। बिस्मिल के लेख का यह अंश, विद्रोही नाम से कीर्ति पत्रिका में छपा था। प्रोफेसर चमन लाल का कहना है कि भगत सिंह, विद्रोही छद्म नाम से भी लेख लिखते थे और यह लेख भगत सिंह द्वारा, छद्म नाम से लिखा गया है। इस लेख में काकोरी के शहीदों द्वारा दिए गए मर्सी पेटिशन यानी दया याचिका का उल्लेख है। मैने यह लेख और संदर्भ अंग्रेजी पत्रिका फ्रंट लाइन (प्रिंट एडिशन) के 20 दिसंबर, 2019 के अंक से लिया है।
लेख में लिखा है,
"...'राष्ट्र के शहीद का अंतिम संदेश श्री राम प्रसाद बिस्मिल', जिसका अनुवाद यहाँ [कीर्ति में] पहली बार किया जा रहा है। उन्होंने एक आत्मकथात्मक रेखाचित्र लिखा, जो गोरखपुर के एक पत्र स्वदेश में प्रकाशित हुआ है। इसका संक्षिप्त रूप पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ ताकि वे क्रान्तिकारी के अन्तिम विचारों को जान सकें।"
इस भूमिका के साथ भगत सिंह का यह लेख शुरू होता है।
16 दिसंबर, 1927 को प्रकाशित, उक्त लेख में, भगत सिंह 'विद्रोही' नाम से, लिखते हैं:
“फांसी का समय 19 दिसंबर को सुबह 6.30 बजे तय किया गया है। चिंता की कोई बात नहीं है, मैं ईश्वर की कृपा से बार-बार जन्म लूंगा और मेरा उद्देश्य दुनिया के लिए पूर्ण स्वतंत्रता सुनिश्चित करना होगा, कि प्रकृति प्रदत्त उपहारों को, सभी के द्वारा समान रूप से साझा किया जाना चाहिए और ऐसा होगा कि, कोई भी दूसरों पर शासन नहीं करेगा। हर जगह लोगों की अपनी लोकतांत्रिक संस्थाएं होनी चाहिए। मैं अब उन बातों का भी जिक्र करना जरूरी समझता हूं जो 6 अप्रैल 1927 को सेशंस कोर्ट के फैसले के बाद काकोरी कैदियों के साथ घटी थी। 18 जुलाई को अवध मुख्य न्यायालय में अपील हुई। वह केवल मौत की सजा पाए चार व्यक्तियों की ओर से की गई अपील थी। लेकिन पुलिस ने (क्रांतिकारियों की) सजा बढ़ाने के लिए काउंटर अपील दायर की थी। फिर अन्य लोगों ने भी अपील दायर की, लेकिन श्री शचींद्रनाथ सान्याल, भूपेंद्र नाथ सान्याल और सरकारी गवाह बनवारी लाल ने कोई अपील, दायर नहीं की थी। फिर प्रणवेश चटर्जी अप्रूवर (सरकारी या वायदा माफी गवाह) बन गया और उन्होंने अपनी अपील वापस ले ली। मौत की सजा अपरिवर्तित रही, लेकिन जोगेश चटर्जी, गोबिंद चरण कर और मुकंदी लाल को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सुरेश चंदर भट्टाचार्य और विष्णु शरण डबलिश की सजा को बढ़ाकर दस वर्ष कर दिया गया। रामनाथ पांडे की सजा को घटाकर तीन साल और प्रणवेश चटर्जी की सजा को चार साल कर दिया गया। प्रेम कृष्ण खन्ना की डकैती की सजा को घटाकर पांच साल कर दिया गया। अन्य अपीलें खारिज कर दी गईं। अशफाक की मौत की सजा अपरिवर्तित रही और शचींद्र नाथ बख्शी ने कोई अपील दायर नहीं की।"
"अपील दाखिल करने से पहले, मैंने पहले ही गवर्नर को एक आवेदन भेजा था कि, 'मैंने किसी गुप्त साजिश में भाग नहीं लिया है और न ही मेरा इनसे कोई संबंध होगा'। दया याचिका में भी इस अर्जी का जिक्र किया गया था। लेकिन जजों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। मैंने अपनी दलीलें जेल से मुख्य न्यायालय (अवध चीफ कोर्ट) को भेजीं, लेकिन न्यायाधीशों ने कहा कि यह राम प्रसाद का नहीं, बल्कि एक बहुत सक्षम व्यक्ति की मदद से लिखा गया है। बल्कि उन्होंने नकारात्मक रूप से कहा कि 'राम प्रसाद एक खतरनाक क्रांतिकारी हैं और अगर रिहा हुआ तो वही काम करेगा।"
"बुद्धि, क्षमता आदि की, सराहना करने के बाद, उन्होंने कहा कि 'वह एक निर्दयी हत्यारा है, जो उसे गोली भी मार सकता है जिससे उसकी कोई दुश्मनी नहीं है'। वैसे भी कलम तो उनके पास थी, चाहे कुछ भी लिख लें! लेकिन चीफ कोर्ट के फैसले से पता चलता है कि हमें बदले की भावना से ही मौत की सजा दी गई है।"
"अपील खारिज कर दी गई, और फिर गवर्नर और वायसराय के पास दया याचिका दायर की गई। यूपी के लगभग सभी निर्वाचित सदस्य, विधान परिषद ने राम प्रसाद बिस्मिल, राजिंदर नाथ लाहिड़ी, अशफाकउल्ला और रोशन सिंह की मौत की सजा को कम करने के लिए एक हस्ताक्षरित अपील की थी। मेरे पिता (बिस्मिल के पिता) के प्रयास से दो बड़े जमींदारों और 250 ऑनरेरी मजिस्ट्रेटों ने अलग-अलग अर्जी दाखिल की थी। असेम्बली और काउंसिल ऑफ स्टेट के 108 सदस्यों ने भी वायसराय को हमारी फांसी की सजा को बदलने के लिए अर्जी दी। उन्होंने यह भी लिखा था कि, "जज ने कहा था कि 'अगर वे पछताएंगे तो सजा को काफी कम कर दिया जाएगा।' हर तरफ से, सजा कम करने की अपीलें की जा रही थीं, लेकिन वे (ब्रिटिश) हर तरह से हमारे खून के प्यासे थे और वायसराय ने भी हमारी एक न सुनी।"
“पंडित मदन मोहन मालवीय, कई लोगों के साथ वायसराय से मिले। सभी ने सोचा कि, अब मौत की सजा माफ कर दी जाएगी। लेकिन क्या होना था। चुपचाप दशहरे के दो दिन पहले सभी जेलों को तार भेज दिया गया कि फांसी की तारीख तय हो गई है। जब जेल अधीक्षक ने, मुझे इस तार के बारे में बताया तो, मैंने भी कहा कि, अब तुम अपना काम करो, लेकिन उनके (जेलर के) आग्रह पर बादशाह को दया का तार भेजा। उस समय प्रिवी कौंसिल में अपील दाखिल करने का विचार भी आया। एक वकील, मोहन लाल सक्सेना को तार दिया गया और जब उन्हें बताया गया कि, वायसराय ने सभी आवेदनों को खारिज कर दिया है, तो किसी ने इस पर विश्वास नहीं किया। उनके कहने पर, प्रिवी काउंसिल में भी, अपील दायर की गई; हालांकि, परिणाम हमें पता था, और अपील को, समय से पहले खारिज भी कर दिया गया।
“अब सवाल उठेगा कि, सब कुछ पहले से जानते हुए भी, मैंने माफी नामा, दया याचिका और अपील दर अपील क्यों भेजी? मुझे केवल एक ही कारण प्रतीत होता है कि, राजनीति शतरंज का खेल है। बंगाल ऑर्डिनेंस बंदियों के बारे में सरकार ने विधानसभा में जोर देकर कहा है कि उनके खिलाफ पुख्ता सबूत हैं, जिन्हें हम गवाहों की सुरक्षा के लिए खुली अदालत में पेश नहीं कर सकते, हालांकि दक्षिणेश्वर बम और शोभा बाजार षड़यंत्र के मामलों की सुनवाई खुली अदालत में होती थी। सीआईडी सुपरिटेंडेंट की हत्या का केस भी खुली अदालत में चला और काकोरी केस की सुनवाई में भी डेढ़ साल लग गए। अभियोजन पक्ष के 300 गवाह पेश किए गए, किसी को कोई दिक्कत नहीं हुई, हालांकि यह भी कहा गया कि, काकोरी कांड की जड़ बंगाल में ही है। मैंने सरकारी घोषणाओं का खोखलापन और पाखंड को उजागर करने के लिए यह सब किया। मैंने माफी भी मांगी, अपील भी की, लेकिन होना क्या था ? मुझे भी पता था। हकीकत तो यह है कि, जालिम मारता भी है और रोने भी नहीं देता!"
“हमारे जीवित रहने से कोई विद्रोह नहीं होने वाला था। अभी तक भारत में क्रांतिकारियों की तरफ से जनता के लिए ऐसी प्रबल अपील कभी नहीं की गई थी। लेकिन सरकार को इससे क्या लेना-देना? इसे (सरकार को) अपनी शक्ति पर गर्व है। इसे अपने दमन का अहंकार है। सर विलियम मौरिस ने स्वयं शाहजहाँपुर और इलाहाबाद के दंगों की मृत्युदंड की सजा माफ कर दी थी। और यह सजा माफी तब हुई, जब रोज दंगे हो रहे हैं। अगर सजा कम करने से दूसरों का हौसला बढ़ता तो यही बात साम्प्रदायिक दंगों के बारे में भी कही जा सकती थी। लेकिन यहां मुद्दा अलग था।"
यहां संकेत, अंग्रेजी राज की हिंदू मुस्लिम वैमनस्य को बढ़ावा देने की नीति की ओर है, यह वाक्य, साम्रदायिक वैमनस्यता के प्रति क्रांतिकारियों की चिंता को भी स्पष्ट करता है। अब आगे पढ़े,
“मैं अपने जीवन त्याग के इस समय में, निराश नहीं हूं कि यह (जीवन) बर्बाद हो गया। कुर्बानी कभी बेकार नहीं जाती। शायद हमारी आहों के कारण ही लार्ड बीरकेनहेड के मन में शाही कमीशन भेजने का विचार आया, जिसके बहिष्कार के लिए हिन्दू-मुस्लिम फिर से एकत्र हो गए। भगवान उन्हें शीघ्र ही कुछ सद्बुद्धि दें और वे फिर से एक हो जाएं। हमारी अपील खारिज होने के बाद मैंने अधिवक्ता मोहन लाल सक्सेना से कहा था कि कम से कम इस बार हमें मनाने के लिए हिंदू-मुस्लिम नेताओं को एक हो जाना चाहिए।"
लॉर्ड बरकेनहेड ने, जब साइमन कमीशन का विरोध हुआ तब 1928 में यह चुनौती दी थी, जो लोग साइमन कमीशन में किसी भी भारतीय को शामिल न किए जाने का विरोध (यह संकेत कांग्रेस की ओर था) कर रहे हैं, वे एक संविधान का मसौदा तैयार कर के दिखाए तो हम उस पर विचार करेंगे। कांग्रेस ने यह चुनौती स्वीकार की और मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक संविधान ड्राफ्ट कमेटी बनी जिसने, संविधान का एक मसौदा तैयार किया था, जिसे नेहरू रिपोर्ट कहते हैं। यहां उसी का उल्लेख है।
अब आगे पढ़े,
“सरकार ने उल्लेख किया था कि, अशफाकउल्ला खान, राम प्रसाद का दाहिना हाथ है। यदि अशफाक जैसा समर्पित मुसलमान क्रान्तिकारी आन्दोलन में रामप्रसाद की तरह आर्यसमाजी का दाहिना हाथ हो सकता है तो अन्य हिन्दू-मुस्लिम अपने तुच्छ स्वार्थों को भुलाकर एक क्यों नहीं हो सकते? अशफाक पहले ऐसे मुसलमान हैं, जिन्हें बंगाल क्रांतिकारी दल के सिलसिले में फाँसी दी जा रही है। भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली है। मेरा कार्य समाप्त हो गया है। मैंने एक मुस्लिम नौजवान को, कुर्बानी की राह पर लाकर हिन्दुस्तान को दिखा दिया है कि, मुस्लिम नौजवान भी, हिन्दू नौजवानों से ज्यादा जोश से, देश के लिए, अपनी जान कुर्बान कर सकता है और वह (अशफाक) सभी कसौटियों पर खरा उतरा भी था। अब कोई यह कहने की हिम्मत नहीं करेगा कि, मुसलमानों पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। यह पहला प्रयोग था जो सफल रहा।"
"अशफाक! भगवान आपकी आत्मा को शांति दे। आपने मेरी और सभी मुसलमानों की लाज बचाई है और यह भी दिखाया है कि तुर्की और मिस्र की तरह भारत में भी ऐसे मुस्लिम नौजवान मिल सकते हैं।"
“अब देशवासियों से मेरा एक ही निवेदन है कि यदि उन्हें हमारी मृत्यु पर रत्ती भर भी दु:ख है तो वे किसी भी प्रकार से हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करें; यही हमारी अंतिम इच्छा है और यही हमारा स्मारक हो सकता है। सभी धर्मों और सभी दलों को, अब, कांग्रेस को अपना प्रतिनिधि मान लेना चाहिए। फिर वह दिन दूर नहीं, जब अंग्रेजों को, भारतीयों के आगे झुकना पड़ेगा।"
“मैं जो कुछ भी कह रहा हूं, वही अशफाक की भी राय है। अपील करते समय मेरी उनसे (अशफाकउल्ला खान) लखनऊ में बात हुई थी। वे, दया याचिका देने को राजी नहीं थे, मेरे कहने पर ही उसने ऐसा किया था।"
"मैंने सरकार से, यहां तक कहा था कि, जब तक वह मुझ पर भरोसा करने को (सरकार) तैयार नहीं होती, तब तक वह मुझे जेल में रख सकती है या किसी दूसरे देश में निर्वासित कर सकती है और मुझे भारत लौटने की अनुमति नहीं दे सकती है। लेकिन सरकार क्या करने वाली थी? सरकार तो हमें फाँसी देना चाहती थी, हिन्दुस्तानियों के कच्चे ज़ख्मों पर नमक छिड़कना चाहती थी, उन्हें दर्द से कराहते देखना चाहती थी। कुछ चीजें संतुलित हो सकती हैं और जब तक हम पुनर्जन्म लेते हैं और काम करने के लिए तैयार होते हैं, तब तक देश की स्थिति में सुधार हो जाना चाहिए।
अब राम प्रसाद बिस्मिल, अपील करने के उद्देश्य को स्पष्ट करते हैं,
"अब मेरी स्पष्ट सलाह है कि न तो किसी को ब्रिटिश अदालतों के सामने कोई बयान देना चाहिए और न ही कोई बचाव करना चाहिए। अपील करने का एक कारण यह भी था कि, फाँसी की तारीख़ टलवा दी जाए और युवाओं की ताकत और देशवासियों की मदद को देखा जाए ! मैं वास्तव में इससे निराश था। मैंने सोचा था कि जेल तोड़कर निकल जाऊं, अगर ऐसा हुआ होता तो बाकी तीनों की फांसी की सजा भी माफ कर दी गई होती। सरकार ने न किया होता तो मैं करवा देता। मैं इसके तरीके अच्छी तरह जानता था। मैंने जेल से छूटने की पूरी कोशिश की, लेकिन बाहर से कोई मदद नहीं मिली। मेरी मदद के लिए कोई युवा नहीं आया। युवाओं से मेरा निवेदन है कि जब तक बहुत से लोग शिक्षित नहीं हो जाते; गुप्त संगठनों (क्रांतिकारी आंदोलनों) पर ध्यान न दें। अगर उनमें देश सेवा करने की इच्छा है तो उन्हें खुलकर काम करना चाहिए। केवल खोखली लफ्फाजी सुनकर और हरे भरे चरागाहों की कल्पना करके, उन्हें अपने जीवन को संकट में नहीं डालना चाहिए। गुप्त कार्य के लिए, अभी समय नहीं है। इस ट्रायल के दौरान हमें काफी अनुभव हुए, लेकिन सरकार ने हमें इनका लाभ उठाने का कोई मौका नहीं दिया। लेकिन भारत और ब्रिटेन दोनों की सरकारों को इस बात का मलाल रहेगा।"
भगत सिंह ने लगभग ऐसी ही बातें अपने एक साक्षात्कार में भी कही हैं, इसे पढ़े,
"साक्षात्कार के समय उन्होंने यह भी कहा कि 'क्रांतिकारियों में साहस की कमी है और लोगों में अभी तक उनके लिए सहानुभूति नहीं है और उनमें क्षेत्रवाद बहुत है। वे एक-दूसरे पर पूरा भरोसा नहीं करते, इसलिए इस वजह से उनकी इच्छाएं दबी रह गईं। केवल मौखिक आश्वासन पर मुझे बार एट लॉ करने के लिए इंग्लैंड भेजने का वादा करते हुए पाँच हजार रुपये की पेशकश की गई; लेकिन मैंने इसे एक गहरा पाप माना और इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। लेकिन अफसोस की बात है कि कई भरोसेमंद और आत्म-बलिदानी माने जाने वाले साथियों ने अपनी निजी सुख-सुविधाओं के लिए पार्टी को धोखा दिया और हमारे साथ विश्वासघात किया।"
भगत सिंह का यह लेख जो बिस्मिल की आत्मकथात्मक प्रसंग पर आधारित है में, सारी बातें और उनकी चिंता सपष्ट रूप से सामने आ गई है। इन चिंताओं में, सबसे बड़ी चिंता हिंदू मुस्लिम में बढ़ रहे वैमनस्य की भी है तो क्रांतिकारियों के साथ युवाओं का न जुड़ना और कुछ साथियों का, सरकारी गवाह बन जाने की मनोवृत्ति भी है। अपील, दया याचिका और समवेत प्रार्थना, यह सब तो था, पर अपने लक्ष्य उद्देश्य और स्वाधीनता से विचलन, का संकेत लेशमात्र भी नहीं था। इन अपीलों का एक उद्देश्य यह भी था, न्यायिक परंपराओं का जो ढोल ब्रिटिश राज बार बार दिखता था, उसकी असलियत भी, सबके सामने उधेड़ कर रख दी जाय। काकोरी शहीदों की दया याचिका इसलिए दायर की गई थी कि, फांसी की सजा को उम्र कैद में तब्दील कर दिया जाय, इसलिए नहीं कि, उन्हे जेल से रिहा कर दिया जाय और वे फिर उन्ही अंग्रेजो की धुन पर नाचें जिन्हे उखाड़ फेंकने के लिए, उन्होंने सर पर कफ़न बांध रखा था। भाजपा के नेताओ और प्रवक्ताओं को, सावरकर के माफीनामे, और शिवाजी के कूटनीतिक पत्रों तथा काकोरी शहीदों की न्यायिक विधि परंपरा के अनुसार दी गई याचिकाओं के उद्देश्य, भाषा, और इरादे में अंतर समझने का विवेक विकसित करना चाहिए।
(विजय शंकर सिंह)
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