Tuesday, 15 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - दो (15)

चित्र: मार्ग्रेट व्हीलर द्वारा अपनी पवित्रता की रक्षा की यह छवि इंग्लैंड में प्रचारित की गयी

“यह संभवत: विश्व का सबसे कटु स्थान है। यह हत्यारों की काली दृष्टि, शैतान का जाल, धोखेबाज़ों का द्वार है। यहाँ के हर पत्थर घृणा से बँधे हैं, और मिट्टी कायरता से सनी है।”

- फ़्रेडेरिक ट्रीव्स, सती चौरा घाट के विषय में

27 जून, 1857, कानपुर

अंग्रेज़ छावनी अपनी यात्रा के लिए आखिरी चीजें समेट रहे थे। स्त्रियाँ अपने वस्त्रों के अंदर सोना-जवाहरात छुपा कर रख रही थी, पुरुष अपनी जेबों में यथासंभव कारतूस भर रहे थे। उनके कपड़े खून और मिट्टी से सने थे, और तीन हफ्ते की इस लड़ाई के बाद उनके आँख धँस कर काले पड़ गए थे। अंग्रेज़ों को घाट तक पहुँचाने के लिए 16 हाथी, 80 पालकियाँ और कई बैलगाड़ियाँ आयी। 

पहले उन्होंने लगभग सवा सौ घायलों और मृतकों को पालकी पर लादा। वे उम्मीद कर रहे थे कि छावनी के बाग़ी सिपाही जिन्होंने उनके लिए पहले काम किया था, वे मदद के लिए आएँगे। लेकिन, वे उल्टे वहाँ खड़े होकर तंज कर रहे थे। अभी अंग्रेज़ सामान चढ़ा रहे थे, और बाज़ार की भीड़ छावनी में घुस कर सामान लूटने पहुँच चुकी थी। 

एमि हॉर्न ने लिखा है, “वे पास आकर हमें गंदी-गंदी गालियाँ दे रहे थे, और ऐसी अश्लील बातें कर रहे थे जिसे लिखा नहीं जा सकता”

वहाँ कुछ अंग्रेज़ अफ़सरों ने अकड़ भी दिखायी। संभव है इस कारण भीड़ भड़क उठी हो। जैसे कैप्टन मूर ने सिपाहियों से कहा, “तुम सबको याद रखा जाएगा। तुम्हें तुम्हारे किए का फल अवश्य मिलेगा।”

यह भी ज़िक्र है कि कुछ भारतीय सिपाही मदद के लिए भी सामने आए, और हाल-चाल पूछा। उन्होंने भरोसा दिलाया कि इलाहाबाद तक उनको किसी तरह की चिंता की ज़रूरत नहीं। (हालाँकि उन सिपाहियों की बाद में भारतीयों द्वारा खूब पिटाई की गयी और अंग्रेज़ों का पिट्ठू कहा गया।)

आखिर छावनी पूरी तरह खाली हुई, और वे लगभग डेढ़ मील का रास्ता चलते हुए घाट तक पहुँचे। घाट पर ही कर्नल विलियम का बड़ा बंगला स्थित था, जो अब खाली पड़ा था। वहीं एक मंदिर था, जहाँ तमाशबीनों की बड़ी भीड़ जमा थी।

घायल कर्नल एवार्ट पालकी से उतरने का प्रयास कर रहे थे, जब उन्हीं की इंफ़ैंट्री के दो घुड़सवार पास आए और उनकी नकल करते कहा, “परेड पूरी तैयार है?”

यह कहते हुए उन्होंने ठहाका लगाया और तलवार उनके पेट में घुसेड़ दी। उनकी पत्नी को भी काट डाला गया। नरसंहार शुरू हो चुका था, मगर आगे चल रहे अफ़सरों को खबर नहीं थी। जब जनरल व्हीलर घाट पर मंदिर के निकट पहुँचे, तो वहाँ बाबा भट्ट, बाला राव, तात्या टोपे ओर अज़ीमुल्ला ख़ान दिख गए। घोड़े पर सवार टीका सिंह और ज्वाला प्रसाद भी वहीं मौजूद थे।

अंग्रेज़ एक-एक कर नावों पर चढ़ने लगे, और जैसे ही पहली नौ नाव कुछ दूर चली, ज्वाला प्रसाद के इशारे पर उनके केवट पानी में कूद गए। भारतीय सिपाही नावों पर ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाने लगे। बूढ़े जनरल व्हीलर इस धोखे से हतप्रभ मंदिर की ओर देख रहे थे, तभी एक भारतीय ने कूद कर उनका गला काट दिया। कुछ अंग्रेज़ जवाबी गोलियाँ चलाने लगे, मगर निहत्थे औरतों, बच्चों और घायलों का तो भीड़ द्वारा कत्ल-ए-आम हो रहा था।

एक पादरी मॉन्टिफ़ ने विनती की, “चाहो तो सभी को कैदी बना लो, मगर हत्या मत करो।”, मगर उनको भी मार दिया गया। चार साल के बच्चों को छुरा घोंप कर, उनकी टाँग पकड़ कर घुमाते हुए नदी में फेंकने के विवरण हैं। इस भीषण नरसंहार के मध्य नाना साहेब का आदेश आया, “हत्यायें बंद की जाए। गोली नहीं चलायी जाए।”

मुमकिन है कि यह सब नाना साहेब की सहमति के बिना न भी हो रहा हो, क्योंकि उन्हें किसी ने घाट पर नहीं देखा। ज़िंदा बच गए सवा सौ अंग्रेजों को पकड़ कर नाना साहेब के पास सावदा हाउस ले जाया गया।

तीन नाव बच कर निकलने में कामयाब हुए, जिनमें एक को नज़फ़गढ़ के निकट राव राम बख्श के लोगों ने पकड़ा और सभी को मार डाला (स्वयं राम बख्श द्वारा भी मंदिर में छुपे अंग्रेजों को मारने का वर्णन है)। इनके अतिरिक्त दो युवतियों को घुड़सवार पकड़ कर अपने साथ ले गए। एक थी अठारह वर्ष की एमि हॉर्न जिसे घुड़सवार इस्माइल ख़ान ने अगले दस महीने तक अपनी दासी बना कर रखा। 

दूसरी थी, जनरल व्हीलर की सबसे छोटी बेटी मारग्रेट जो अठारह वर्ष की खूबसूरत युवती थी। उनके विषय में कई अफ़वाहें बनी। लंदन में नाटक खेले गए कि किस तरह उस वीरांगना ने एक घुड़सवार को मार डाला, और अपनी इज़्ज़त पर दाग़ नहीं लगने दिया। बाद में यह खबरें आयी कि सेकंड कैवलरी के घुड़सवार निज़ाम अली ख़ान की पत्नी बन कर वह रामपुर में है। मगर वहाँ भी नहीं मिली। 

1880 में मिसेज क्लर्क को कानपुर में एक अधेड़ महिला दिखी, जो संभवत: मारग्रेट व्हीलर थी। तलब करने पर उन्होंने कुछ इस भाव में कहा, 

“वह एक बुरा दौर था, जो बीत गया। मेरे पति ने उस वक्त मुझे हिंसा से बचाया। अगर आज मैं सामने आ जाऊँ, तो ऐसी ही हिंसा मेरे पति के परिवार के साथ की जाएगी।”

इतिहास में एक पक्ष के लिए हिंसा दूसरे पक्ष के लिए वीर-गाथा बनती आयी है। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - दो (14) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-14.html 

No comments:

Post a Comment