Thursday, 3 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - दो (3)



कलकत्ता से पहले ही गंगा किनारे हलचल शुरू हो चुकी थी। ‘चपाती आंदोलन’ से लेकर संन्यासियों और फ़क़ीरों के भेष में घूमते लोग कोई झूठी अफ़वाह नहीं लगती। इसके कई प्रामाणिक संदर्भ मिलते हैं कि संगठित रूप से यह गतिविधियाँ हो रही थी। मुहावरों में कहें तो भले कुछ घट नहीं रहा था, मगर हवा बदलने लगी थी। 

मार्च 1857 में एलिज़ा स्नेड नामक एक स्त्री ने अपना संस्मरण कुछ यूँ दर्ज़ किया है,

“शाहजहाँपुर से फ़तेहपुर के रास्ते में ‘ओल्ड कानपुर होटल’ में रुकने का फ़ैसला किया। एक वही होटल यूरोपीय महिलाओं के लिए कुछ ढंग का था। मुझे बताया गया कि सारे कमरे कुछ राजाओं और ज़मींदारों के गुर्गों और बंदूक़धारियों ने पहले ही आरक्षित कर रखे हैं। 

मुझे बरामदे पर एक गंदा और बेतरतीब कमरा दिया गया, जिसमें उनका मुनीम रहता था। मुझे हैरानी तब हुई जब मैंने कुछ सिपाहियों को वहाँ मसखरी करते देखा। अमूमन जब भी कोई सिपाही हमें देखता, तो अदब से पेश आता, सलाम करता। मगर वे मुझे देख कर अजीब से हँसी-ठहाके  लगा रहे थे। जब छह बजे शाम को मुझे उनका बचा-खुचा खाना दिया गया, तो मेरा धैर्य टूट गया। मैं तुरंत सवारी बुलवा कर फ़तेहपुर रवाना हुई। ऊबड़-खाबड़, कच्ची सड़कों से गुजरते हुए चौबीस घंटे लग गए।”

उसी दौरान एक अन्य स्त्री एमी होर्न जिनका ज़िक्र आगे कुछ अधिक असहज संदर्भ में आएगा, उन्होंने लिखा है कि लखनऊ में जब वह शाम को टहलने निकली तो कुछ लफ़ंगों ने उनके गले में फूलों की माला फेंक दी।

इनकी बातों का तात्पर्य यह था कि पहले भारतीय अंग्रेज़ों से डर कर रहते या अदब से पेश आते थे, मगर 1857 में वे कुछ बाग़ी मूड में लग रहे थे। इस भूमिका के साथ मेरठ चलता हूँ, जो अन्यथा भी मेरी रुचि की जगह है।

1803 में मराठों से एक संधि के बाद अंग्रेज़ों को यह जगह हाथ लगी, और उसके बाद इसका उन्होंने कायाकल्प कर दिया। आज भले ही गंगा और यमुना नदियाँ दूर नज़र आयें, मगर उस वक्त वह आधुनिक दोआब का हिस्सा था, जहाँ अंग्रेज़ों ने अपनी सबसे बड़ी और सबसे आलीशान छावनी बनायी। कानपुर के अफ़सर अर्ज़ी लगाते कि मेरठ पोस्टिंग मिल जाए। इतने दशकों बाद भी मेरे ख़्याल से मेरठ भारत की दूसरी या तीसरी सबसे बड़ी कैंटोनमेंट होगी (अनुमान है, पक्का मालूम नहीं)।

ब्रिटिश इस छावनी से दिल्ली, पंजाब, गुरखाओं, अवध, मराठा सभी पर थोड़ी-बहुत नज़र रख लेते थे। यहाँ यूरोपीय सिपाही भारतीयों की अपेक्षा लगभग बराबर अनुपात में थे, इसलिए यहाँ विद्रोह की आशंका सबसे कम थी। आँकड़ा था- कुल 1778 अंग्रेज़, और 2234 भारतीय सिपाही। ऐसा अनुपात भारत की किसी अन्य छावनी में नहीं था। 

छावनी मेरठ के एक बड़े हिस्से में फैली थी, और इसके बीच से उन दिनों एक साफ़-सुथरा ‘अबू नाला’ गुजरता था। छावनी के एक तरफ़ ‘गोरी पलटन’ का इलाका था, जहाँ अंग्रेज़ रहते। भारतीयों का हिस्सा ‘काली पलटन’ कहलाता। बड़े बंगले अंग्रेज़ों के हिस्से थे, और भारतीयों के लिए बैरक थे। गोरी पलटन की तरफ़ ही उत्तर भारत के सबसे प्राचीन गिरजाघर में एक ‘सेंट जॉन्स चर्च’ 1821 में बनाया गया। वहीं काली पलटन के पास बाबा औघड़नाथ मंदिर था, जिसे ‘काली पलटन वाला मंदिर’ भी बुलाया जाता है। एक ‘नंबर 9 मस्जिद’ का भी ज़िक्र मिलता है, जहाँ मुसलमान सिपाही जाया करते थे। 

छावनी के बाहर का ‘सदर बाज़ार’ यूरोपीय और भारतीयों के लिए एक ही था। वहाँ तमाम थोक-खुदरा दुकानों के अतिरिक्त सिपाहियों के मनोरंजन के लिए वेश्यालय भी थे, जिनमें एक यूरोपीय मूल की ‘मिस डॉली’ का अड्डा दस्तावेज़ों में मिलता है। मेरठ के आम नागरिक वहाँ से कुछ दूर दीवारों के पार रहते (अब वह दीवाल नहीं)।

आखिर अंग्रेजों की सबसे बड़ी छावनी, जहाँ सबसे अधिक संख्या में कुशल अंग्रेज़ सिपाही थे, वहाँ 1857 की सबसे संगठित और बड़ी क्रांति कैसे शुरू हुई? मंगल पांडे की घटना से वे थोड़े-बहुत प्रेरित हुए होंगे, लेकिन यह अब मान लेना चाहिए कि योजना कहीं बड़ी थी। यह एक झटके में शुरू हो गयी घटना नहीं थी। 

हालाँकि इसमें सत्य, मिथक और नैरेटिव छाँटना कठिन है। ‘ब्रिटिश डिस्पैच’ जो अब सार्वजनिक हैं, उनको छोड़ कर ऐसे मूल भारतीय दस्तावेज़ मिलने कठिन हैं, जो उस वक्त व्यवस्थित रूप से दर्ज़ किए गए हों। पचास-सौ साल बाद कहे-सुने इतिहास की प्रामाणिकता नहीं बनती। जैसे एक संदर्भ है कि अप्रिल के महीने में हाथी पर चढ़ कर कोई हिंदू संन्यासी अपने तमाम अनुयायियों के साथ कालका से अंबाला छावनी होते हुए सूरजकुंड आए, और उसके बाद काली पलटन वाले ‘बाबा औघड़नाथ मंदिर’ और ‘नंबर 9 मस्जिद’ में योजनाएँ बनने लगी।

किसी दस्तावेज में उन संन्यासी का नाम मुझे अब तक नहीं मिला। 1857 की योजना बनाने वाले अगर ऐसे कोई गुमनामी बाबा थे, तो उन्हें ढूँढा जाना चाहिए। सैकड़ों लोगों ने देखा होगा, सुना होगा, फिर नाम क्यों नहीं लिखा? अंग्रेज़ों की यातनाओं के बाद भी किसी ने मुँह क्यों नहीं खोला?

मेजर जी. डब्ल्यू. विलियम्स के कथन के अनुसार, “वह हिंदू फ़कीर मेरठ से पहले अंबाला में सिपाहियों से बात करते देखा गया था। लेकिन कुछ शक के बावजूद हमें राजद्रोह की संभावना नहीं दिखी”

एक हवलदार के अनुसार उन्हें मेरठ की 20वीं लाइन में देखे जाने के बाद मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। फिर तो नाम दर्ज़ हुआ होगा। कहीं यह नाम जान-बूझ कर किसी अनहोनी के अंदेशे से या किसी समझौते के तहत दबा तो नहीं दिया गया? इस इतिहास में ऐसे कई अनसुलझे रहस्य आएँगे, जिन्हें हम अपनी नज़र से देख कर पल्ला झाड़ेंगे या आड़े हाथों लेंगे। 

चाहे ऐसे कोई फ़क़ीर हों या न हों, मेरठ की विद्रोह की जड़ उसी 20वीं लाइन (20th Native Infantry) से बतायी जाती है।
(क्रमश:)

प्रवीण झा
Praveen Jha 

1857 की कहानी - दो (2) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-2.html 

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