“आपने हिंदुस्तान के सभी अपराधों और हत्याओं को माफ़ कर दिया…मैंने तो किसी की हत्या भी नहीं की…मैंने विवशता के कारण विद्रोहियों का साथ दिया, फिर भी मुझे माफ़ी नहीं दी जा रही…उन महिलाओं और बच्चों को मारना सिपाहियों और बदमाशों की करतूत थी। मेरे भाई के घायल होने के बाद मेरे सैनिक तो कानपुर छोड़ चुके थे।”
- नाना साहेब पेशवा की ब्रिटिश सरकार को लिखी चिट्ठी जिसमें उन्होंने बीबीघर नरसंहार से स्वयं को अलग किया (20 अप्रिल, 1859/ आर सी मजूमदार की 1857 पर पुस्तक में उद्धृत)
मैं यह मान कर चल रहा हूँ कि 1857 के डेढ़ सौ वर्ष से अधिक के बाद, अब एक परिपक्वता से लोग पढ़ेंगे। इसमें नायक ढूँढने के बजाय सार्वजनिक पत्रों को पलटेंगे, और एक सम्यक सोच बनाएँगे। नाना साहेब का स्वयं को सिपाही विद्रोह से अलग करना एक ऐसा दस्तावेज बना कि, आर सी मजूमदार को अपनी किताब संशोधित करनी पड़ी, और उनके ही शब्दों में ‘so called heroes’ के खाँचे में रख दिया। इसका अर्थ यह नहीं कि वही अंतिम सत्य है, किंतु वह एक लिखित तथ्य है।
बीबीघर के विषय में जॉन फिचेट ने गवाही दी, जिसके अनुसार भारतीय सिपाही महिलाओं की हत्या के विरोध में थे। वह सिर्फ़ पुरुषों को मारने के लिए तैयार थे। उस मध्य तात्या टोपे का आदेश आया कि सभी को मारना आवश्यक है। सावरकर ने अपनी पुस्तक में इसको उचित बताया है क्योंकि अंग्रेज़ इलाहाबाद से कानपुर तक भारतीयों की हत्या करते आ रहे थे, जिसका बदला लेना आवश्यक था। उन्होंने यह भी लिखा कि इन कुटिल गोरी महिलाओं ने जासूसी पत्र इलाहाबाद भेजे थे।
पहले सिपाहियों ने महिलाओं और बच्चों को खींच कर आंगन में लाने का प्रयास किया, लेकिन चीख-पुकार में यह मुश्किल हो रहा था। आखिर बीबीघर की खिड़कियों में बंदूकें तान कर अंधा-धुंध गोलियाँ चलायी गयी। मगर सिपाहियों ने खुद ही खीज कर यह प्रक्रिया बंद कर दी।
गवाही के अनुसार उसके बाद बेगम हुसैनी ख़ानुम के आशिक सरवर ख़ान दो मुसलमान कसाइयों और दो अन्य हिंदुओं (सौराचंद और एक अनामित) को लेकर आये, जिन्होंने तलवार लेकर काटना शुरू किया। आधे घंटे से अधिक तक नरसंहार चलता रहा, जिसमें एक बार सरवर ख़ान की तलवार भी टूट गयी। कुल 73 महिलाओं और अलग-अलग उम्र के 125 बच्चों की कथित हत्या का विवरण है (जिसमें कुछ अधमरे रह गए थे, और बाद में मारे गए)। लाशों के ढेर को वहीं कुएँ में फेंका जाने लगा।
सावरकर ने अपनी पुस्तक में इसका वर्णन करते हुए लिखा है, “आज तक आदमी कुएँ का पानी पीता था, अब कुआँ आदमी का रक्त पी रहा था। फ़तेहगढ़ में जलते हुए लोगों का आर्तनाद जब अंग्रेज़ आकाश में फेंक रहे थे, तब बीबीगढ़ में रक्त से सने गोरी चीखें पांडे पाताल में फेंक रहे थे। मनुष्य की इन दो भिन्न जातियों में सौ वर्षों से जमा रकम का हिसाब इस तरह चुकता होने लगा।”
यह मुमकिन है और ब्रिटिश काग़जों से भी यही दिखता है कि, उस वक्त नाना साहेब अहीरवा में लड़ रहे थे। इसलिए नाना साहेब की चिट्ठी सच हो सकती है, कि उनके परोक्ष में तात्या टोपे और अज़ीमुल्ला ख़ान ने यह निर्णय लिया हो। वहीं, इतनी बड़ी घटना नाना साहेब के सहमति के बिना ही हो गयी, इस पर प्रश्नचिह्न है।
जब अहीरवा से हार की खबर आने लगी, कानपुर से सिपाही और आम नागरिक भागने लगे। कुछ दिल्ली की ओर निकले, और कुछ बिठूर घाट से नदी पार कर लखनऊ की तरफ़। नाना साहेब कानपुर का बारूदखाना उड़ाने का आदेश देकर बिठूर की ओर निकल गए। यह भीषण विस्फोट भी ब्रिटिश संस्मरणों में वर्णित है।
हैवलॉक की सेना जब कानपुर पहुँची, यह एक वीरान मरघट सा दिख रहा था। मेजर बिंघैम ने बीबीघर के विषय में लिखा,
“फर्श पर टखनों तक खून जमा था, और लाशें बिखरी पड़ी थी…बच्चों के जूते बिखरे थे…कुआँ लाशों से भरा पड़ा था”
17 जुलाई को हैवलॉक ने एक टुकड़ी नाना साहेब के पीछे बिठूर भेजी, मगर वहाँ भी वीराना था। उन्होंने कयास लगाया कि नाना साहेब गंगा पार कर कहीं आगे निकल गए। अंग्रेज़ों ने उनका महल लूट कर उसे जला दिया। नाना साहेब के एक सहयोगी (पेशवा कलक्टर वर्णित) को पकड़ लिया गया, और मेजर बिंघैम ने लिखा,
“हमने उसके हाथ-पाँव बाँध दिए, और उसके मुँह में जबरन गोमाँस और सूअर का माँस ठूँस कर उसका धर्म भ्रष्ट कर दिया…मुझे याद नहीं कि उसके बाद वह जिंदा बचा या नहीं, अन्यथा उसे फांसी पर लटकाने में बहुत आनंद आता।”
हैवलॉक, जॉन नील को ज़िम्मेदारी सौंप कर लखनऊ निकल रहे थे। जॉन नील ने अपनी क्रूरता का वर्णन स्वयं किया है कि, वह ब्राह्मणों को पकड़ कर उन्हें पहले फर्श पर गिरा खून साफ़ करवाते, और फिर उन्हें वहीं फाँसी पर लटका देते।
किसी भी मंजे हुए इतिहासकार के लिए इनमें से एक पक्ष को नायक बनाना बायें हाथ का खेल है। भारतीय राष्ट्रवादी इतिहासकार बीबीघर और सतीचौरा अंश को छोटा कर अंग्रेज़ों की हिंसा पर पन्ने भर सकते हैं, वहीं ब्रिटिश इतिहासकार ‘Never forget Cawnpore!’ के नारे पर भारतीयों का वीभत्स पक्ष दिखा सकते हैं। भारतीयों के अंदर जाति और धर्म के नायकों पर रस्सा-कशी हो सकती है। लेकिन, यह स्याह-सफ़ेद क़िस्सा नहीं, यह इतिहास है जिसके कई पन्ने अभी खुलने बाकी है और कुछ शायद कभी न खुलें।
खैर, कानपुर से अब लखनऊ का रुख किया जाए।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
1857 की कहानी - तीन (6)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-6_27.html
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