बात सिर्फ़ कारतूस की नहीं थी, अंग्रेज़ों के रवैये की थी। कारतूस के लिए तो सावधानियाँ बरती जा रही थी, सिपाहियों को बारंबार विकल्प दिए जा रहे थे। लोड करने के तरीके से लेकर चिकनाई के अवयव बदले जा रहे थे। लेकिन, अंग्रेज़ों ने अपने ही सिपाहियों के मध्य वर्गीकरण की जो खाई बनायी थी, वह दिख जाती थी। जब आपकी फ़ौज में आधे से अधिक सिपाही भारतीय हों, तो आप उनको जूते की नोक पर नहीं रख सकते। जैसे मुसलमान सिपाहियों को जान-बूझ कर ‘सूअर’ कहना, सभी भारतीय सिपाहियों से आवेदन में ‘yours slave’ लिखवाना, उन्हें कहीं कम वेतन और सुविधाएँ देना, और बाइबल पढ़ाना।
जब मैंने 1824 के बैरकपुर विद्रोह की बात की, तो वहाँ धर्म मुद्दा बना; मगर नेपथ्य में बात यह भी थी कि भारतीय सिपाहियों को मथुरा से बैरकपुर (कलकत्ता) तक पहले पैदल मार्च कराया गया और उसके बाद बर्मा के जहाज पर बिठा कर युद्ध लड़ने कहा गया। सिपाही भड़क गए कि यह कैसी यातना दी जा रही है? तुम लोग बग्घी में घूम रहे हो, और हमें भेड़-बकरी समझ रखा है? उसके बाद उन सिपाहियों की जालियाँवाला बाग की तरह घेर कर निर्मम हत्या की गयी, जिससे लंदन भी हिल उठा कि यह कैसी तानाशाही चल रही है। मगर ब्रिटिशों का बर्ताव बहुत अधिक नहीं बदला। यह तो भारत के शासकों की कमजोरी थी कि खेतिहर प्रजा परिवार पोसने के लिए अंग्रेज़ों की फौज में लात-जूते खाकर भी भर्ती हो रही थी। जब सवाल रोटी का हो, तो इन सिपाहियों में नायक, खलनायक और गद्दार क्या ढूँढना?
मंगल पांडे की घटना के बाद कलकत्ता में यह पत्राचार मिलते हैं कि सिख और मुसलमानों पर विश्वास बढ़ा, और उनकी भर्ती बढ़ाने का निर्णय लिया गया। लेकिन, यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही वर्ष पहले सिखों का कत्ल-ए-आम और उनकी पराजय के ज़िम्मेदार भी बंगाल रेजिमेंट के भारतीय सैनिक थे। जब महाराज रणजीत सिंह अपना कोहिनूर हीरा हिंदू मंदिर में जमा कराने की बात कर रहे थे, उस समय वे हिंदू सैनिक सिखों का साथ दे सकते थे। लेकिन उन्होंने सेना का अनुशासन निभाया और अंग्रेज़ों की ओर से लड़े। तो वह चंद सिखों से अब क्या उम्मीद करते? सिखों का अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ स्वतंत्र विद्रोह और उनका दमन 1857 से पहले से ही हो रहा था, जो इस कड़ी से भिन्न विषय है। रही बात मुसलमानों की, तो उन्होंने अंग्रेज़ों का विश्वास यूँ भी मेरठ के बाद खो दिया, जिससे सैयद अहमद ख़ान भी खिन्न हो गए। सावरकर ने अपनी पुस्तक में मुसलमानों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है, और उस काल के अंग्रेज़ इतिहासकारों ने मुसलमानों को मुख्य षड्यंत्रकारी (Chief conspirators) का दर्जा दिया।
यह कई परतों का इतिहास है, जिसे अलग-अलग चश्मे से देख कर बात नहीं बनेगी। रुक कर, सोच कर, खुले मन से पलटना होगा।
अलग-अलग इतिहास लेखकों ने मंगल पांडे के बाद और मेरठ से पहले अंबाला छावनी के विद्रोह की बात लिखी है। इसे पढ़ कर उन रहस्यमयी गुमनामी बाबा की याद आ सकती है, जो अंबाला होते हुए मेरठ आए थे। 8 मार्च, 1857 को अंबाला के एक सिपाही का जिक्र मिलता है, जिसने कानपुर से आयी उसके भाई की चिट्ठी दिखायी। लिखा था- “छावनी की सरकारी डिपो के आटे में गाय और सूअर का माँस मिला है”।
हर ऐसी खबर में गाय और सूअर साथ ही मिले रहते थे। अफ़वाह अंबाला पहुँच रही थी, तो असंतोष होगा ही। मेरठ डिस्पैच में भी अंबाला छावनी में आगजनी का जिक्र है। हाल में हरियाणा सरकार ने ‘(मेरठ नहीं) अंबाला से 1857 संग्राम की शुरुआत’ का मुद्दा रखा है। शुरुआत किसी भोगौलिक क्षेत्र से हो, सैनिक किसी भी छावनी में एक क्षेत्र से नहीं थे। इसलिए ऐसे क्षेत्रीय नायक चुनने से बेहतर इतिहास उपलब्ध कराया जाए। अंबाला पर प्रामाणिक सामग्री ढूँढ कर, मैं आगे उस संबंध में लिखने का प्रयास करुँगा। फ़िलहाल मेरठ।
24 अप्रिल 1857, मेरठ छावनी
कर्नल कार्ल स्मिथ ने सिपाहियों को गोली चलाने के अभ्यास के लिए परेड मैदान में बुलाया। पहले हवलदार-मेजर ने कारतूस लोड कर गोली चलाने का तरीका समझाया, और उसके बाद सिपाहियों को बारी-बारी से कारतूस बाँटे गए।
“हम यह कारतूस नहीं छू सकते”, एक सिपाही ने कहा
“मगर क्यों? यह तो पुराने कारतूस जैसे ही हैं”
“नहीं। ये कारतूस कलकत्ता से आए हैं।”
“मगर हवलदार मेजर ने अभी-अभी चला कर दिखायी”
“वह अपने धर्म को भूल चुके, मगर हम नहीं भूल सकते”
सिर्फ़ पाँच सिपाहियों हीरा सिंह, परसाद सिंह, गुलाम नबी ख़ान, शेख़ मोहम्मद और दिलावर ख़ान ने कारतूस लिए। शेष 85 सिपाहियों ने कारतूस लेने से इंकार कर दिया।
अगले दस दिन तक सिपाहियों से पूछ-ताछ चली। 9 मई को सिपाहियों को मैदान में बुला कर फ़ैसला सुनाया गया। अधिकांश को दस साल का कारावास मिला। लेकिन, जो उस फ़ैसले के साथ किया गया, वह एक सिपाही के आत्मसम्मान पर चोट था। लुहारों को बुला कर सार्वजनिक रूप से उनके पैरों के नाप लेकर पूरे एक घंटे तक खड़ा कर उन्हें बेड़ियाँ बाँधी गयी। उनमें से कइयों ने अंग्रेजों के लिए युद्ध लड़े थे, और उस दिन उन्हें जानवरों की तरह बाँध दिया गया।
अगले दिन रविवार की सुबह थी। अफ़सर मेकिंज़ी अपने बरामदे में अखबार पढ़ रहे थे, जब उनके सेवक शिवदीन भागे हुए, “साहब! साहब! छावनी में हल्ला मचा है। सिपाही साहेब लोगों को मार रहे हैं”
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
1857 की कहानी - दो (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-3.html
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