चित्र: सती चौरा घाट को ‘शैतान का जाल’ कहती एक पुस्तक (जो नाम एक सर्जन फ़्रेडेरिक ट्रीव्स ने दिया था)
“16 सितम्बर को जब मैं व्हीलर के खंदक (entrenchment) देखने गया, तो वह बहुत ही बदहाल था। घर टूट कर गिरे हुए थे, कंकाल बिखरे हुए थे, औरतों के कपड़े, संगीत के साज, किताबें जमीन से झाँक रहे थे”
- कैप्टन एडवर्ट मैसन की डायरी से
कानपुर में अंग्रेजों ने कम संसाधनों और छोटी फौज के बावजूद ठीक-ठाक संघर्ष किया। वहाँ से बच कर जीवित निकले सिर्फ़ चार अंग्रेज़ अफ़सरों में एक लेफ़्टिनेंट थॉमसन ने अपने संस्मरण में लिखा है - “जब रसद खत्म होने लगी, तो हम घोड़े मार कर खाने लगे। एक गाय चर रही थी, उसे भी गोली मार कर गड्ढे में खींच लिया और खा गए।”
कानपुर की ब्रिटिश छावनी ने दो हफ़्ते से अधिक तक भारतीय सिपाहियों के आक्रमण को रोक कर रखा।
लॉर्ड कैनिंग की पत्नी ने लिखा, “कानपुर जैसी स्थिति अगर कोई व्यक्ति संभाल सकता था, तो वह जनरल व्हीलर ही थे।”
12 जून तक छावनी के बैरक की छत, खिड़कियाँ, दरवाजे सब टूट चुके थे। उनके अस्पताल की छत गिर चुकी थी। लगभग पूरी छावनी खंदकों में आकर छुप गयी थी। छावनी में पानी पीने के लिए सिर्फ़ एक कुआँ था, जहाँ पहुँचने के लिए गड्ढे से निकल कर आना होता। निकलते ही सीधी फ़ायरिंग शुरू हो जाती। एक सिपाही मैककिलप ने महिलाओं और बच्चों के लिए पानी लाने का जिम्मा लिया था। कुछ दिन वह गोलियों से बचते-बचाते पानी लाते रहे, अंतत: मारे गए।
16 जून को व्हीलर ने एक ख़ुफ़िया चिट्ठी भेज कर लखनऊ से मदद माँगी। वहाँ के रेज़िडेंट लॉरेंस ने लिखा,
“हम गोमती के पार शत्रुओं से घिरे हुए हैं। इस वक्त कोई सहायता नहीं कर पाएँगे…भगवान आपकी रक्षा करे”
उसी दिन लखनऊ से चौथी और पाँचवी इंफ़ैंट्री के बाग़ी सिपाही नाना साहेब के खेमे में आ गए, जिन्होंने दावा किया कि वे दो दिन में छावनी जीत लेंगे। लेकिन, उनकी भी कोशिशें नाकाम रही। यह ज़िक्र, सावरकर और ब्रिटिश इतिहासकारों, दोनों ने किया है, कि कानपुर में भारतीयों के अंदर आपसी विवाद जन्मने लगे थे।
उदाहरण स्वरूप जब मुसलमान सिपाही बाज़ार में गाय काट कर खाने लगे, तो नाना साहेब के भाई बाबा भट्ट ने कसाई के हाथ काटने का आदेश दे दिया (शायद काट भी दिए)। इससे मुसलमान सिपाही भड़क उठे। उस समय अज़ीमुल्ला ख़ान और नाना साहेब ने समझाया कि मुसलमान हिंदुओं की नज़र से दूर जाकर माँस काटें, ताकि विवाद न हो। कुछ लूट-पाट करने वाले लोगों का भी ज़िक्र मिलता है, जो यूँ ही जमा हो गए थे।
जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे, नाना साहेब की चिंताएँ बढ़ रही थी। बनारस से खबरें आने लगी थी कि प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में ब्रिटिश टुकड़ियाँ पहुँच रही है, जो कत्ल-ए-आम करती इलाहाबाद की ओर बढ़ रही हैं। एहतियातन ग्रैंड ट्रंक रोड पर निगरानी रखी जाने लगी।
कुछ जादुई भविष्यवाणियाँ भी थी। नाना साहेब के गुरु ने कहा था कि 23 जून को प्लासी की लड़ाई के सौ साल पूरे होंगे, और फिरंगियों का राज खत्म होगा। ऐसे ही फ़तवे मुसलमानों के बीच घूम रहे थे। ख़ैर, इस तारीख़ ने दोनों धर्मों को कुछ समय के लिए एक कर दिया।
हवलदार राधे सिंह ने घोषणा की, “मेरी फ़र्स्ट इंफ़ैंट्री ने ही प्लासी में फिरंगियों को जीत दिलायी थी। आज अपने बाप-दादाओं की ग़लती सुधारने का समय आ गया है।”
जब धार्मिक भविष्यवाणियाँ आ गयी, तो रणनीति ने बैक-सीट ले ली। 23 जून की सुबह टीका सिंह की ललकार पर घुड़सवार ‘दीन के लिए’, ‘धरम के लिए’ जैसे नारे लगाते छावनी की ओर दौड़ गए। स्वाभाविक रूप से घोड़े गड्ढे तक पहुँच कर बिदक गए। अंग्रेज़ों ने तीन 9 पाउंड गोले दागे, और घुड़सवार ढेर हुए। वहीं, छावनी के उत्तर-पश्चिम छोर से स्वयं राधे सिंह नेतृत्व करते हुए दर्जनों सिपाही के साथ बढ़ रहे थे। उनकी स्वयं गोली लगने से मृत्यु हो गयी।
लेकिन, इस भविष्यवाणी से मिले जोश से भारतीय सिपाही छावनी में घुसने की कगार पर आ गए, और भारी हानि पहुँचायी। गोला-बारी के बाद जनरल व्हीलर के प्रिय पुत्र का सर धड़ से अलग होकर फट चुका था। इस ख़ौफ़नाक दृश्य से उनका हौसला व्यक्तिगत रूप से टूट गया। अपने 67 वर्ष के जीवन में 50 वर्ष उन्होंने भारत में ही बिताए थे। उन्होंने 24 जून को रेज़िडेंट लॉरेन्स को आख़िरी चिट्ठी लिखी, जिसकी अंतिम पंक्तियाँ थी-
“हम पिंजरे में फँसे चूहों की तरह नहीं मरना चाहते”
लॉरेंस की चिट्ठी 27 जून को लखनऊ से चली,
“हौसला बनाए रखिए। दो दिन के अंदर हमारी सेना कानपुर पहुँच रही है…शत्रुओं की शर्तें मत मानिए…नाना पर तो बिल्कुल भरोसा न करें। वह धोखा देंगे!”
यह चिट्ठी पढ़ने के लिए व्हीलर जीवित नहीं बचे।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
1857 की कहानी - दो (12)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-12.html
No comments:
Post a Comment