Sunday, 27 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - तीन (5)

बीस-तीस हज़ार भारतीय सिपाही बनाम पाँच-छह हज़ार ब्रिटिश और गुरखा। फिर भी ब्रिटिश को अगर कम नुकसान पहुँच रहा था, इसकी वजह उनकी अनुशासित योजना थी। आखिर इन भारतीय सिपाहियों को भी उन्होंने ही प्रशिक्षित किया था, लेकिन उनमें ऐसे सिपाही कम थे जो ब्रिगेडियर रैंक तक पहुँचे हों। जहाँ ब्रिटिश दिल्ली टीले पर एक छावनी में केंद्रित थे, भारतीय पूरी दिल्ली में बिखरे हुए थे। वे हर सुबह बिना किसी कमान के बंदूक उठा कर लड़ने चल पड़ते। 

जिहादियों का तो अलग ही हिसाब-किताब था। उन्हें बंदूक चलाना आता नहीं था, और यह लड़ाई तलवार-बाज़ी की थी नहीं। हाथापाई की लड़ाई में गुरखा कहीं अधिक फुर्तीले थे, जिनकी खुखरी के सामने जंग लगी तलवारें टिक नहीं पाती। टाइम्ज़ अखबार के विलियम रसेल ने लिखा (‘द लास्ट मुगल’ में संदर्भित),

“गाज़ी दिखने में अच्छे थे। कुछ लंबी दाढ़ी वाले बुजुर्ग जो हरी पगड़ी, कमरबंद और कुरान के निशान वाली अंगूठी पहने रहते। वे एक हाथ में ढाल, दूजे में तलवार लिए ‘दीन दीन’ चिल्लाते दौड़े हुए आते, कुछ अजीबोग़रीब करतब करते हुए हमला करते। इतने में ब्रिटिश रेजिमेंट का एक युवा सिपाही आगे आता, अपनी एनफिल्ड से निशाना लगा कर उन्हें मार गिराता।”

जून के अंत तक सिपाहियों का जोश गिरने लगा था। कई सिपाही युद्ध लड़ने जाते ही नहीं, और बाज़ार में घूमते रहते। जो नए सिपाही दूसरे इलाकों से रोज आ रहे थे, उनमें जोश अधिक होता। मगर पहली खेप के सिपाही अब घर लौटने की तैयारी और कुछ अपने भविष्य की फ़िक्र करने लगे।

ऐसा नहीं कि भारतीय आक्रमण से ब्रिटिश हानि नहीं हो रही थी। मेटकाफ़ हाउस ध्वस्त हो चुका था, बाड़ा हिंदू राव गोलियों से छलनी था। कम से कम एक मौके पर भारतीय सिपाही दिल्ली टीले पर चढ़ कर हाथापाई करने और छावनी जलाने के मुकाम तक पहुँचे। हताश जनरल विल्सन ने अपनी पत्नी को चिट्ठी लिखी थी, 

“पता नहीं हम कभी दिल्ली हासिल कर पायेंगे या नहीं...ये पांडे (pandies)* जितने मरते हैं, उतने फिर से खड़े हो जाते हैं”

दिल्ली में खाने की रसद खत्म हो रही थी, क्योंकि ग्रैंड ट्रंक रोड पर अंग्रेजों ने नाकाबंदी कर दी थी। पानी के नाम पर यमुना का पानी ही था, वहीं नहाना, वहीं पकाना, वहीं नित्य कर्म करना। मक्खियों, प्रदूषण और लाशों की दुर्गंध से बीमारियाँ भी पसरने लगी। ब्रिटिश जितने गोली से नहीं मरे, उतने इस बीमारी से मरने लगे। पहले करनाल में जनरल एंसन मरे थे, 5 जुलाई को ब्रिटिश सेनापति जनरल बर्नार्ड भी हैजा से मर गए। उसके बाद एक बूढ़े और बीमार जनरल रीड को कमान सौंपी गयी। इसके साथ ही ब्रिटिशों का भी जोश गिरने लगा। दो हफ़्ते बाद जनरल रीड खुद ही बीमारी का बहाना बना कर शिमला में आराम करने निकल गये। अब कमान मिली जनरल विल्सन को।

जनरल विल्सन ने लखनऊ चिट्ठी लिखी,

“हमारे सिपाहियों की संख्या दिन-ब-दिन घट रही है। हम दिल्ली पर क़ब्ज़ा करने की हालत में फ़िलहाल नहीं है। हम सिर्फ़ एक काम कर सकते हैं कि बाग़ियों को दिल्ली में उलझा कर रखें, ताकि वह बाकी देश में न पसरें। आप मुझे यथासंभव सिख रेजिमेंट भिजवाने का इंतज़ाम करें। उनके आने के बाद ही हम आक्रमण कर पायेंगे”

मिला-जुला कर दिल्ली ‘डेडलॉक’ स्थिति में थी, जहाँ न किसी की जीत हो पा रही थी, न हार। मगर इलाहाबाद से जो ब्रिटिश टुकड़ियाँ निकल रही थी, वह आक्रामक और ख़ूँख़ार रूप में थी। पेड़ों पर लाशें लटकाते हुए कानपुर की ओर कूच कर रही थी।

जब कानपुर में यह खबर पहुँची कि अंग्रेज़ों ने पूरा फ़तेहपुर जला दिया है तो एक और भीषण नरसंहार से बदला लिया गया। यह सतीचौरा, झाँसी, बरेली या शाहजहाँपुर से अधिक विकराल था। इस हद तक कि वर्णनों के अनुसार कुछ भारतीय सिपाहियों ने निहत्थी अंग्रेज़ महिलाओं पर गोली चलाने से इंकार कर दिया।

वह स्थान था- बीबीघर।

सावरकर ने संदर्भ सहित लिखा है कि टीका सिंह ने कहा, 

“ये महिलाएँ बीबीगढ़ में बच गयी तो इनके बयान लिए जाएँगे और उस आधार पर कानपुर के हर आदमी को ये अंग्रेज़ मार डालेंगे। इससे पहले कि अंग्रेज़ इनके बयान लें, कानपुर में एक भी गोरी चमड़ी शेष न बचे”

लगभग ऐसा ही हुआ।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - तीन (5) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-4_23.html 
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*मंगल पांडे के बाद ब्रिटिश लेखन में बाग़ियों के लिए यह नामकरण अनेक चिट्ठियों में मिलता है।

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