भाजपा के प्रवक्ता, सुधांशु त्रिवेदी ने यह कह कर कि, 'शिवाजी ने भी औरंगजेब को पांच पत्र लिखे हैं तो क्या उसे, उनका माफीनामा कहा जायेगा,' एक नया विवाद खड़ा कर दिया हे। शिवाजी ने निश्चित ही औरंगजेब को पत्र लिखे हैं, वे दिल्ली दरबार में भी हाजिर हुए थे, वहीं कैद भी हुए फिर कैद से निकल भागे और औरंगजेब से उनका लंबा युद्ध भी चला। फिलहाल, तो शिवाजी द्वारा, औरंगजेब को लिखा गया एक पत्र, पढ़िए। पत्र इस प्रकार है।
"बादशाह सलामत ! इस साम्राज्य-रूपी भवन के निर्माता बादशाह अकबर ने पूर्ण गौरव से 52 (चन्द्र) वर्ष राज्य किया। उन्होंने ईसाई, यहूदी, मुसलमान, दादूपन्थी, नक्षत्रवादी (फलकिया =गगनपूजक) , परीपूजक (मालाकिया), विषयवादी (आनसरिया), नास्तिक, ब्राह्मण, श्वेताम्बर-दिगम्बर, आदि सब धर्म सम्प्रदायों के प्रति सार्वजनीन मैत्री (सुलह-इ-कुल = सबके साथ शान्ति) की सुनीति को ग्रहण किया था। सबकी रक्षा और पोषण करना ही उनके उदार हृदय का उद्देश्य था । इसीलिए वे ‘जगद्गुरु’ कहलाए|
उसके बाद बादशाह जहाँगीर ने २२ वर्ष तक अपनी दया की छाया जगत और जगतवासियों के सिर के ऊपर फैलाई। उन्होंने बन्धुओं के तथा प्रत्यक्ष कार्य करने में अपना हृदय लगा दिया, और इस प्रकार मन की इच्छाओं को पूर्ण किया। बादशाह शाहजहाँ ने भी 32 वर्ष राज्य कर सुखी पार्थिव जीवन के फल स्वरूप अमरता अर्थात सौजन्य और सुनाम कमाया । फारसी का पद्य है- “जो आदमी जीवन में सुनाम अर्जन करता है, वह अक्षय धन पाता है, क्योंकि मृत्यु के उपरान्त उसके पुण्य-चरित्र की कथा ही उसके नाम को बनाए रखती है|”
(जदु नाथ सरकार, शिवाजी एंड हिस टाइम्स )
निश्चित ही जदुनाथ सरकार, का संदर्भ प्रमाणिक है क्योंकि वे, औरंगजेब पर एक आधिकारिक विद्वान माने जाते हैं। अब इस पत्र की तुलना, जब सावरकर द्वारा लिखे गए माफीनामे से करते है तो, हमें यह याद रखना होगा कि, यह पत्र, शिवाजी ने औरंगजेब को आगरा जेल से नहीं लिखा था। इतिहास में दर्ज है कि, जब मिर्ज़ा राजा जय सिंह के मनाने पर शिवाजी, औरंगजेब के दरबार में आते हैं तो, उन्हे कम मनसब वाले मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा किया जाता है और जब शिवाजी अपनी आपत्ति जाहिर करते हैं तो, उनकी आपत्ति से उठा शोर सुनकर, औरंगजेब ने पूछा यह शोर कैसा है। तब मिर्ज़ा राजा जय सिंह ने कहा कि, दिल्ली की गर्मी से, शिवाजी असहज हो गया है। और कोई बात नही। पर औरंगजेब को यह बात समझ में आ गई कि, यह मामला दिल्ली की गर्मी का नहीं है और उसी समय शिवाजी को गिरफ्तार कर आगरा किले में बंद कर दिया जाता है।
शिवाजी आगरा किले से कैसे निकल भागते हैं और फिर मथुरा काशी होते हुए दक्षिण पहुंच जाते हैं, यह एक रोचक और लोकप्रिय किस्सा है। पर शिवाजी ने जेल से कोई माफी या कोई चिट्ठी नहीं लिखी थी। वे यह जानते थे कि, उनका मुकाबला एक बेहद समृद्ध और सशक्त सम्राट से है। शिवाजी ने युद्ध की रणनीति बदली। गुरल्ला युद्ध की शैली विकसित की और औरंगजेब के शब्दों में, इस पहाड़ी चूहे ने, औरंगजेब को इतना छकाया कि, उसके पच्चीस साल, दक्षिण में बीते और वहीं औरंगजेब का देहांत भी हो गया।
इस पत्र में शिवाजी, अकबर, जहागीर शाहजहां की तारीफ करते हैं और औरंगजेब को यह मशविरा भी देते हैं कि वह अपने पुरखों की तरह एक उदार नीति का अनुसरण करें। यह पत्र एक कूटनीतिक पत्र है। दो राजाओं के बीच का पत्र है। शिवाजी जितनी वीरता, युद्ध कौशल, जनता से संवाद, लोकप्रियता के लिए जाने जाते हैं, उतना ही, अपने कूटनीतिक दांव पेंच के लिए भी इतिहास में याद किए जाते हैं। उन्हे जाणता राजा यानी जनता का राजा, मराठी लोक साहित्य में कहा जाता है।
सावरकर के आजीवन कारावास, अंडमान में उनको दी गई यातना, और अंडमान पूर्व उनके जीवन और स्वाधीनता संग्राम में, योगदान पर कोई विवाद नहीं है बल्कि जो कुछ भी उनपर आरोपित किया जाता है वह तो जेल से छूटने के लिए लिखे गए उनके माफीनामे, ब्रिटिश पेंशन, स्वाधीनता संग्राम से किनारा कर लेने और एक फासिस्ट तथा साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद की पैरोकारी से संबंधित है। पर आरएसएस और बीजेपी के मित्र, सावरकर के दोनो काल खंड को अलग अलग कर के नही। देखते हैं और वे निर्लज्जता तथा फूहड़ता से, माफीनामे से लेकर, जिन्ना से सावरकर की वैचारिक मित्रता और हमखयाली का भी बचाव करते हैं, और शिवाजी के बारे में यह कहना कि, शिवाजी ने भी, औरंगजेब को, पत्र लिखे थे तो क्या उसे माफी नामा कहा जायेगा, यह कुतर्क है, संदर्भ से अलग हटकर दिया गया बयान है और शिवाजी का अपमान करना भी है।
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान, राहुल गांधी का सावरकर के बारे में दिया गया उनका बयान और सावरकर के माफीनामे का उल्लेख, एक ऐतिहासिक तथ्य है और यह सब दस्तावेज,प्रकाशित हो चुके हैं और पब्लिक डोमेन में हैं। सावरकर के जीवन पर अध्ययन करने के लिये उनके जीवन को दो भागों में बांट कर देखना होगा। एक अंडमान के पहले का जीवन, दूसरा अंडमान के बाद का जीवन। अंडमान के काले पानी की सज़ा उनके जीवन मे एक टर्निंग प्वाइंट की तरह रही है। यह तथ्य कभी कभी अचंभित भी करता है कि 1857 के विप्लव को देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम घोषित करने वाला, ब्रिटेन में आज़ादी की अलख जगाने वाला, कैसे अंडमान की त्रासद यातनाओं से टूट कर माफी मांग कर आज़ाद हो गया और फिर वह उन्हीं अंग्रेज़ों के निकट भी आ गया जिनको उखाड़ फेंकने के वह मंसूबे बांधा करता था। कैसे एक नास्तिक व्यक्ति अचानक हिन्दुत्व की अलख जगाते जगाते, मुस्लिम लीग के सरपरस्त एमए जिन्ना का बगलगीर बन गया।
इतिहास और राजनीति संभावनाओं का खेल होती है, यहां कुछ भी हो सकता है। अखंड भारत और हिंदुत्व का सिद्धांतकार जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ मिलकर अंग्रेज़ों की कृपा से सरकार बनाता है, गांधी की हत्या के षडयंत्र का मुकदमा झेलता है और अंत मे उपेक्षित और खामोशी से आत्मार्पण कर के मर भी जाता है। अंडमान पूर्व और अंडमान बाद के सावरकर में यह विरोधाभासी अंतर क्यों है ? यह सावरकर के जीवन और कृतित्व पर अगर कोई शोध कर रहा है तो, उसे इन दृष्टिकोण से भी अध्ययन करना चाहिए।
प्रत्येक मनुष्य का जीवन एक ही पथ पर सदैव नहीं चलता है। पथ परिवर्तन होता रहता है। अंडमान के पहले के सावरकर, दृढ़ प्रतिज्ञ, स्वाधीनता संग्राम के सेनानी, एक इतिहासकार हैं, और अंडमान के बाद वही सावरकर, अंग्रेज़ो के समक्ष आत्मसमर्पित, क्षमा याचिकाओं का पुलिंदा लिये और स्वाधीनता संग्राम से अलग हटते हुए, नास्तिकता को तिलांजलि देकर धर्म की राजनीति करते हुए नज़र आते हैं। गांधी की हत्या के बाद, वही सावरकर, निंदित और हत्या के षड़यंत्र में, अदालत से बरी हो जाने के बाद भी, पूरी ज़िंदगी अकेले संत्रास में गुजारते हुये 1966 में प्राण त्याग देते हैं। ज़िंदगी के तीन पक्षों,अंडमान के पहले, अंडमान के बाद, और गांधी हत्या के बाद, में यही सावरकर अलग अलग दिखते हैं। पर किस सावरकर की सराहना की जाय, किस सावरकर की आलोचना की जाय और किस सावरकर की भर्त्सना की जाय, यह सावरकर की, देश के प्रति भूमिका से ही, तय किया जा सकता है।
अंडमान पूर्व काल मे, सावरकर, न केवल स्वाधीनता-संग्राम से जुड़े थे, बल्कि उन्होंने 1857 के विप्लव के इतिहास को अलग दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। उन्होंने इस विप्लव को प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम कह कर इतिहास लेखन में एक नयी बहस की शुरुआत कर दी। अंग्रेजों की सिपाही विद्रोह की थियरी से बिल्कुल अलग यह दृष्टिकोण था। सावरकर एक नास्तिक और एक तर्कसंगत व्यक्ति थे जो, सभी धर्मों में रूढ़िवादी विश्वासों का विरोध करते थे ।
लेकिन वही सावरकर अंडमान की भयंकर यातना के कारण टूट गए और माफी मांग कर अंग्रेज़ो की सरपरस्ती में आ गए। उन्होंने धर्म की राजनीति शुरू कर दी। अगर आप, एमए जिन्ना का भी अतीत देखें तो धर्म के बारे में सावरकर और जिन्ना के बीच आश्चर्यजनक समता मिलेगी। जिन्ना भी मजहबी मुस्लिम नहीं थे। पर जब वह मुस्लिम लीग के सदर बने तो, मुसलमानों के सबसे बड़े नेता बन कर उभरे। सावरकर भी यही चाहते थे कि, वह हिंदुओं की एकल आवाज़ होकर उभरें। दोनों ही गांधी और उनके ब्रिटिश राज विरोधी आंदोलनों के विरुद्ध थे। दोनों ही अपने अपने धर्म के लिये अलग देश चाहते थे। अंग्रेज़ो के इशारे पर एक दूसरे के धर्म के विरुद्ध लड़ने वाले सावरकर और जिन्ना ने साझा सरकारें चलायी, अंग्रेजों का साथ दिया और स्वाधीनता संग्राम के सबसे प्रखर आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया ! पर जिन्ना, जहां धर्म के आधार पर अलग मुल्क पाने में सफल रहे, वही सावरकर, बुरी तरह से नकार दिए गए और उनके हिंदू राष्ट्र की थियरी को हिंदुओं ने ही कूड़ेदान में फेंक दिया। लंदन में गांधी को मांसाहार न करने पर 'बिना मांस खाये कैसे अंग्रेज़ो से लड़ोगे' कह कर, गांधी की खिल्ली उड़ाने वाले सावरकर, गांधी के विराट प्रभामंडल में ब्लैक होल की तरह खो गये। हिंदू राष्ट्र का तर्क किसी भी सनातनी हिंदू के गले नहीं उतरा। सबने गांधी, पटेल, नेहरू, आज़ाद, सुभाष आदि धर्मनिरपेक्ष सोच के नेताओं का साथ दिया, और भारत आज़ाद होकर स्वाधीनता संग्राम की सांझी विरासत के सहारे ही समृद्ध होता गया और आज भी, तमाम झंझावत के बाद, उसी सोच पर अग्रसर है।
लेकिन इन तमाम पथ विचलन, और साम्प्रदायिक राजनीति और द्विराष्ट्रवाद के प्रवर्तन के बाद भी, सावरकर के अंडमान पूर्व जीवन को नजरअंदाज कर देना उनके साथ अन्याय होगा। हम अक्सर जब किसी की समीक्षा करते हैं तो या तो उसे नायक बनाकर न भूतो न भविष्यति के रूप में महिमामंडित कर चित्रित कर देते हैं या फिर उसे खलनायक बनाकर दशानन की तरह देखने लगते हैं। सावरकर की आलोचना और निंदा, उनकी अंडमान - बाद गतिविधियों और गांधी हत्या में भूमिका के लिये, की जानी चाहिये, क्योकि, अखंड भारत के सपने के साथ खंड खंड भारत करने वाली साम्प्रदायिक राजनीति के वे एक हिस्सा रहे हैं। पर अंडमान पूर्व जिस उत्साह और ऊर्जा के साथ वे स्वाधीनता संग्राम में थे, को भी याद किया जाना चाहिये।
सावरकर के प्रति किसी को भी अपनी श्रद्धा रखने का अधिकार है, पर सावरकर का घोर समर्थक भी इन तथ्यों से मुंह नहीं मोड़ सकता कि, अंडमान जेल से मुक्त होने के लिए, सावरकर ने कई माफीनामे ब्रिटिश सरकार को दिए थे, और ब्रिटिश सरकार ने, सावरकर को, कुछ शर्तो के साथ जेल से छोड़ा था।
अब सावरकर के माफीनामे के कुछ उद्धरण पढ़ें,"
० सरकार अगर कृपा और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादारी का कट्टर समर्थक रहूँगा जो उस प्रगति के लिए पहली शर्त है।
० मैं सरकार की किसी भी हैसियत से सेवा करने के लिए तैयार हूँ, जैसा मेरा रूपांतरण ईमानदार है, मुझे आशा है कि मेरा भविष्य का आचरण भी वैसा ही होगा।
० मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि रिहा करने पर उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा. केवल पराक्रमी ही दयालु हो सकता है और इसलिए विलक्षण पुत्र माता-पिता के दरवाजे के अलावा और कहां लौट सकता है?
० मेरे प्रारंभिक जीवन की शानदार संभावनाएँ बहुत जल्द ही धूमिल हो गईं. यह मेरे लिए खेद का इतना दर्दनाक स्रोत बन गई हैं कि रिहाई एक नया जन्म होगा. आपकी ये दयालुता मेरे संवेदनशील और विनम्र दिल को इतनी गहराई से छू जाएगी कि मुझे भविष्य में राजनीतिक रूप से उपयोगी बना देगी। अक्सर जहां ताकत नाकाम रहती है, उदारता कामयाब हो जाती है।"
० मैं और मेरा भाई निश्चित और उचित अवधि के लिए राजनीति में भाग नहीं लेने की शपथ लेने के लिए पूरी तरह तैयार हैं. इस तरह की प्रतिज्ञा के बिना भी खराब स्वास्थ्य की वजह से मैं आने वाले वर्षों में शांत और सेवानिवृत्त जीवन जीने का इच्छुक हूँ. अब सक्रिय राजनीति में प्रवेश नहीं करूंगा।
लेकिन सावरकर ने सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया, 1937 में, पर आजादी के लिए नहीं, यूरोप के फासिस्ट राष्ट्रवादी मॉडल पर भारत को ले जाने के लिए। उन्हे साथ मिला जिन्ना का। एक नया सिद्धांत गढ़ा गया द्विराष्ट्रवाद, यानी हिंदू और मुस्लिम अलग अलग राष्ट्र हैं। श्रद्धा से इतिहास नहीं बदलता।
सावरकर के अंडमान से छूटने के बाद, देश में जो महत्वपूर्ण स्वाधीनता संग्राम की घटनाएं घटी, वह इस प्रकार थीं।
० साइमन कमीशन का आना और उसका विरोध।
० लाला लाजपतराय पर बर्बर लाठी चार्ज और लालाजी की मृत्यु।
० भगत सिंह का असेंबली में बम फेंकना, उनकी गिरफ्तारी और ट्रायल।
० भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को फांसी।
० कांग्रेस द्वारा पूर्ण स्वराज का संकल्प लेना।
० गांधी की दांडी यात्रा और नमक सत्याग्रह।
० भगत सिंह को फांसी।
पर सावरकर का कोई भी पैरोकार, यह नहीं बताता कि, इन सब गतिविधियों पर सावरकर की कोई भी प्रतिक्रिया क्यों नहीं मिलती है? वे खामोश क्यों रहे, इन सभी घटनाओं पर ? इन सब घटनाओं पर, उनकी चुप्पी ही उनकी माफी की शर्तों को प्रमाणित करती है। जब जब, सावरकर के बारे में कोई चर्चा छिड़ेगी तो, यह सवालात उठेंगे और इन्हे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है।
( विजय शंकर सिंह )
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