Wednesday, 2 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - दो (2)


चित्र: बैरकपुर छावनी में बिंदा बाबा स्मारक (बिंदी तिवारी को जिस स्थान पर लटकाया गया) 

मेरठ पहुँचने से पहले कुछ देर कलकत्ता में रुकता हूँ। कुछ प्रति-प्रश्न मन में उठे, जिन्हें रखता हूँ। 

मंगल पांडे को 1857 का एक प्रतीक माना जाता है। इस विषय पर अधिकांश पुस्तकों में एक अध्याय उनके नाम से होता ही है। लेकिन, मंगल पांडे ने जब 29 मार्च को कलकत्ता के बैरकपुर में गोली चलायी, तो क्रांति का केंद्र बंगाल क्यों नहीं बना? यह कहना तो बेतुकी बात होगी कि बंगाल कम राष्ट्रवादी रहा। बीसवीं सदी के राष्ट्रवाद की नींव ही बंगाल में मिलती है। जहाँ ‘आनंदमठ’ लिखा जाना था, वहाँ का भद्रलोक समाज क्यों ऐसी घटना के बाद चुप रहा? 

अगर पुरबिया ब्राह्मणों की बात करें, तो मैं आँकड़े दे रहा हूँ। मंगल पांडे के रेजिमेंट में उस दिन कुल 196 ब्राह्मण सिपाही, 212 अन्य हिंदू जातियाँ, 49 सिख, और 106 मुसलमान छावनी में थे। मंगल पांडे के अतिरिक्त सिर्फ़ एक अन्य ने बंदूक उठायी। बाकी, उनके लाख कहने पर भी साथ नहीं आए। न ही उसके बाद बैरकपुर या दमदम में ऐसी घटना हुई।

कलकत्ता, जो अंग्रेजों का मुख्यालय था, और जहाँ अवध के नवाब रह रहे थे, वह कुछ महीने सबसे शांत इलाकों में रहा। कारतूस से धर्मभ्रष्ट होने की चर्चा कम हो गयी। मंगल पांडे की 34वीं नेटिव इंफैंट्री भंग कर दी गयी। लॉर्ड कैनिंग कुछ हद तक कलकत्ता से निश्चिंत हो गए। उन्होंने ब्रिटेन से भेजी जा रही नयी टुकड़ियों को आराम से जून तक आने कहा। 

आप अगर मंगल पांडे के कथन पीछे जाकर पढ़ें, तो उनकी निराशा थोड़ी-बहुत झलकती है। उन्होंने अपने ‘कोर्ट मार्शल’ में किसी का नाम नहीं लिया, इसकी वजह साथियों की रक्षा भी हो सकती है; लेकिन, जब वह कहते हैं कि ‘तुमने मुझे भड़काया तो अब साथ क्यों नहीं दे रहे?’ इसका अर्थ तो यही लगता है कि साथ आने की योजना थी। मंगल पांडे अकेले पड़ गए। 

उस बदनाम कारतूस से दमदम में पहली गोली चलाने वाले भी 17वीं नेटिव इंवेट्री के एक पुरबिया ब्राह्मण सूबेदार भोला उपाध्याय थे। उनको सूबेदार-मेजर पद देकर पुरस्कृत किया गया। उनकी ही टुकड़ी के एक अहीर सूबेदार भोंदू सिंह का जिक्र मिलता है, जिन्होंने कारतूस के प्रयोग से मना कर दिया, और बाद में आजमगढ़ में क्रांति-दूत बने।

विद्रोह के तौर पर बैरकपुर में यह पहली घटना नहीं थी। मंगल पांडे से पहले उसी छावनी में 1824 में सिपाही विद्रोह हुआ था, जो कहीं अधिक वीभत्स था। उस समय पुरबिया ब्राह्मणों और अन्य हिंदू सिपाहियों ने बर्मा जाने की समुद्र यात्रा में धर्म-भ्रष्ट होने का मुद्दा लेकर जहाज पर चढ़ने से इंकार कर दिया था। उन सबको घेर कर ताबड़तोड़ गोलियाँ चलायी गयी, जिसमें लगभग दो सौ सिपाही मारे गए और 12 को फांसी हुई। 

यह इतना क्रूर था कि सिपाही अपनी जान बचाने के लिए हुगली नदी में कूद रहे थे। विद्रोह के मुखिया सिपाही बिंदी तिवारी के पैरों में बेड़ियाँ बाँध कर पीपल के पेड़ से लटका दिया गया, और उनकी लाश को सड़ने छोड़ दिया गया। उस समय क्यों राजा-नवाबों ने इसके ख़िलाफ़ मुहिम नहीं छेड़ी? डलहौज़ी की हड़प नीति के बाद क्यों नींद खुली? 

इन कुछ असहज प्रश्नों के बावजूद मंगल पांडे की स्वतंत्र छवि नकारी नहीं जा सकती। उनके द्वारा अंग्रेजों के गढ़ में बंदूक उठाना एक ऐसा कदम था, जिसे भारत के कई सिपाहियों ने अधिक संगठित रूप से दोहराया। अगर हिंसक क्रांति के मॉडल रूप में देखा जाए, तो 1857 में सभी भौतिक अवयव मिल सकते हैं। बीसवीं सदी के अहिंसक सत्याग्रही राष्ट्रवाद के ठीक विपरीत 1857 में अहिंसा का नाम-ओ-निशां ढूँढना कठिन है। शायद इसलिए भी यह कार्ल मार्क्स को पसंद आया, और वह धड़ाधड़ रिपोर्ट लिखने लगे। 

1857 में अंग्रेज़ों को लूटना, खदेड़ कर मारना, आगजनी, तोड़-फोड़, अपहरण, सीधे युद्ध लड़ना, सभी एक साथ मिल जाएँगे। उसी अनुपात में भारतीयों की शहादत, उम्र-कैद, क्रूर यातनाएँ, फांसी भी मिल जाएँगी। इतने नाम कि गिनना कठिन हो। इतने नायक कि चुनना कठिन हो। यह असफल होकर भी उस मान्यता को तोड़ता है कि भारतीय एक भीरु समाज हैं, जो हिंसा नहीं कर सकते। इसके उलट यह ऐसी स्थिति सामने खड़ा करता है, जब राजा से प्रजा तक, सिपाही से मौलवी तक, शहरी से ग्रामीण तक, शिक्षित से अनपढ़ तक, पुरुष से स्त्री तक, हर धर्म में, हर जाति में तलवार उठाने की ताक़त दिखती है।

दूसरी तरफ़, हिंसा की ज़मीन कभी-कभार इतनी कच्ची होती है कि वह दमन को भी उचित बनाती है। भविष्य के नायक मंगल पांडे का साथ देने में उनके अपने साथी झिझकते हैं। भांग के नशे का तर्क अधिक वजन नहीं रखता, क्योंकि मंगल पांडे लड़खड़ा कर नहीं, बल्कि पूरी क्षमता से वार कर रहे थे। दो अंग्रेज़ अफ़सरों और एक घोड़े को गिरा चुके थे। संभवत: सिपाही इस हिंसा के बाद कोर्ट-मार्शल को लेकर चिंतित होंगे। हालाँकि, मेरठ ने इस भ्रम को तोड़ दिया। 

वहाँ सिपाही न सिर्फ़ साथ आए, बल्कि दिल्ली तक हुंकार भरते हुए शृंखला बनाते गए। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - दो (1) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-1.html 

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