Saturday, 5 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - दो (5)


“ख़ल्क़ ख़ुदा का, 
मुल्क बादशाह का,
राज पेशवा का”

- जून, 1857 में हमीरपुर में मिला एक फतवा

मेरठ के 85 सिपाहियों के पैरों में बेड़ियाँ बाँध कर उनको दो मील परेड करते हुए मेरठ नगर के पूर्वी हिस्से के कारागार में ले जाया गया। ज़ाहिर है उन्हें इस हालत में न सिर्फ़ बैरक के सिपाहियों बल्कि आम नागरिकों ने भी देखा। इन विद्रोही क़ैदियों में 48 मुसलमान और 37 हिंदू सिपाही थे, और उनकी सुरक्षा के लिए 60वीं राइफ़ल के यूरोपीय सैनिक और 20वीं इंफ़ैंट्री के दो दर्जन भारतीय सैनिक थे। इस पूरे दृश्य की कल्पना मन में की जा सकती है। 

ब्रिटिश दस्तावेज़ों में इन सिपाहियों को भड़काने के पीछे दो मुसलमान नायक (Naik) सिपाही पीर अली और कुदरत अली की साज़िश बतायी गयी है। यूँ भी एक साथ 90 में से 85 सिपाहियों का कारतूस के ख़िलाफ़ बगावत करना बिना किसी योजना के संभव नहीं।

आगे ज़िक्र अधिक फ़िल्मी हो जाता है। अंग्रेज़ अफ़सर शाम को उन्हें वेतन देने कारागार गए जब उन कैदियों ने कहा कि हम इस वेतन का क्या करेंगे? वहीं 20वीं इंफ़ैंट्री के कुछ भारतीय सिपाही जब निराश होकर शाम को मिस डॉली के कोठे पर पहुँचे, तो उन्हें वेश्याओं ने लताड़ा, 

“तुम नामर्द यहाँ क्या करने आए हो? तुम्हारे साथियों को इस तरह बेइज्जत किया गया और तुम देखते रहे? जाओ! अपनी मर्दानगी पहले छावनी में दिखाओ!”

मिस डॉली स्वयं एक ब्रिटिश सैनिक की विधवा रही थी, इसलिए इस क़िस्से में मसालेबाज़ी नज़र आती है। लेकिन, अगस्त 1857 में कैप्टन हेनरी नॉर्मन की लिखी एक औपचारिक चिट्ठी मिली, ‘मेरठ के सिपाहियों को भड़काने के इल्जाम में Mees Dolly को फांसी पर लटकाया गया’।

भड़काने वालों में कोई दो-चार लोग नहीं थे। यह एक पूरी प्रक्रिया थी। 9 मई की उस शाम को मेरठ के कमिश्नर की पत्नी एलिसा ग्रिथ्ड ने भोजन के वक्त ज़िक्र किया, “बाज़ार में मैंने कुछ तख्तियों पर लिखा देखा- मुसलमानों! इन फिरंगियों को काट डालो”

बैरकपुर से अलग देखें, तो दोआब इलाकों में मौलवियों द्वारा 1857 को जिहाद बनाना इसे अधिक हिंसक बनाता गया। हिंदुओं ने भी जम कर हिंसा की, जिसका जिक्र आगे होगा। लेकिन फिरंगी नस्ल या ईसाई धर्म के ख़िलाफ़ किसी भी हद तक जाने को जायज ठहराने में इस्लामी जिहाद की भूमिका रही। मैं जिहाद वाले वाक्य को घुमा-फिरा कर लिख सकता था, लेकिन लगा कि सपाट ही कह दूँ क्योंकि इस पर बाक़ायदा शोध हो चुके हैं। 

10 मई के रविवार की सुबह गर्मी से तप रही थी। सेंट जॉन गिरजाघर में सात बजे सुबह ही अपनी-अपनी मेमसाहबों के साथ लाटसाहेबों का जमावड़ा लगने लगा था। इस गिरजाघर की घंटी जब छावनी में गूँज रही थी, तो बाबा औघड़नाथ मंदिर और मस्जिद नं. 9 में अलग हुंकार हो रही थी। छुट्टी का दिन था, तो सभी बैठ यही योजना बना रहे थे कि अब आगे क्या? 

शाम के पाँच बजे तक सदर बाज़ार में हल्ला-गुल्ला होने लगा। एक अफ़वाह फैल गयी थी कि काली पलटन के हथियार छीने जा रहे हैं। एक अफ़सर के पास उनके नौकर घबराये हुए आए, “साहब! बाज़ार में लोग कह रहे हैं कि आज रात एक भी फिरंगी ज़िंदा न बचे।”

साढ़े पाँच बजे कैप्टन टेलर को जानकारी मिली की बीसवीं इंफ़ैंट्री के जवानों ने ‘लोडेड’ बंदूकें उठा ली है और अपने बैरक से बाहर आकर जमा हो गए हैं। वह जब घोड़े पर सवार होकर पहुँचे तो भीड़ जमा थी, लेकिन हाथों में बंदूक नहीं नज़र आए।

छह बजे के आस-पास तीसरी लाइट कैवेलरी के एक भारतीय घुड़सवार वहाँ पहुँचे और सिपाहियों से कहा, “अब जो करना है, जल्दी करो। फिरंगियों को खबर हो गयी है।”

कुछ ही मिनटों में हाथों में बंदूक लिए सिपाही परेड मैदान में पहुँच गए। यह हलचल देख कर जैसे ही कर्नल फिनिस अपने घोड़े पर वहाँ पहुँचे, तो उनके सीने में पंद्रह गोलियाँ दाग दी गयी। वहीं टहल रहे कैप्टन मैकडोनाल्ड और ट्रीगर भी मारे गए। छह अंग्रेज़ अफ़सर भाग कर कर्नल कारमाइकल स्मिथ के बंगले के अहाते में एक शौचालय में छुप गए। थोड़ी देर बाद जब कुछ उनमें से तीन बाहर निकल कर आए, तो उनकी आँखों के सामने बंदूक की नाल थी। 

एक अंग्रेज़ अफ़सर ने लिखा है, “जब मेरे घर के बाहर बाग़ी सिपाही आ गए, तो मैंने अपने कपड़े फाड़ कर चेहरे पर स्याही छिड़क ली। हिंदुस्तानी लिबास में मैं एक विश्वासपात्र शेख के साथ भाग गया। बस्ती की ओर भागते हुए मैं यूरोपीय बंगलों को जलते हुए देख रहा था। भीड़ चिल्ला रही थी- अल्लाह! अल्लाह! मरे फिरंगी!”

लेफ़्टिनेंट मेकेंजी ने लिखा है, “मुझे सिपाहियों ने तलवार लेकर घेर लिया, और मैं अकेला जैसे-तैसे उनसे लड़ने की हिम्मत जुटा रहा था। मैं लड़खड़ा कर गिरने ही वाला था कि कैप्टन क्रेगी ने गोली चला दी, और सिपाही तितर-बितर हो गए…मेरी बहन और कैप्टन क्रेगी की पत्नी गिरजाघर गए थे, तो हमें लगा कि पहले उन्हें चल कर बचाना चाहिए। मगर तभी खबर आयी कि सिपाही कारागार की तरफ़ कैदियों को छुड़ाने निकल गए हैं। हम बाज़ार होते हुए कारागार की तरफ़ घोड़े दौड़ा रहे थे और भीड़ हमें देख कर चिल्ला रही थी- मारो! मारो!…सामने से एक पालकी आ रही थी, जब अंदर झाँका तो एक खून से लथ-पथ यूरोपीय महिला की लाश थी। मैंने चेहरे पर ग़ौर किया, वह मेरी बहन नहीं थी।…हम जब कारागार पहुँचे तो क़ैदी छूट कर बाहर आ गए थे, और आराम से बैठ कर लुहारों से बेड़ियाँ कटवा रहे थे, और एक भारतीय सिपाही जेल के दरवाजे पर बंदूक लिए हमारा स्वागत कर रहा था। हम यह दृश्य देखते ही वहाँ से भाग गए।…इस शोर-गुल में ही कुछ सिपाही चिल्ला रहे थे- चलो! दिल्ली चलो!”
(क्रमशः)

© प्रवीण झा 

1857 की कहानी - दो (4) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-4.html


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