एक हत्या के मामले में, दोषसिद्ध और सजा की अपील की सुनवाई के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने, यह, व्यवस्था दी कि,
"पुलिस के सामने किए गए कबूलनामे की वीडियोग्राफी सबूत के रूप में अस्वीकार्य है।"
इस अपील की सुनवाई, सीजेआई, उदय उमेश ललित, जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ ने किया था। पीठ का फैसला है,
"सीआरपीसी की धारा 161 के तहत एक आरोपी द्वारा पुलिस को दिया गया बयान सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं है।"
इस मामले में, अभियुक्तों को निचली अदालत ने आईपीसी की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया था और उनकी अपील कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दी गई थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अपील स्वीकार कर ली।
अपील में, सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि,
"अभियोजन का पूरा मामला तथाकथित इकबालिया बयानों या अभियुक्तों द्वारा दिए गए स्वैच्छिक बयानों पर आधारित है, जब वे पुलिस हिरासत में थे। पुलिस के अनुसार, सभी आरोपियों को एक स्कूल की इमारत से गिरफ्तार किया गया और अगले दिन औपचारिक रूप से हिरासत में ले लिया गया। अभियुक्तों ने, अपने द्वारा किए गए, कुल 24 अपराधों को स्वीकार किया। कैसे उन्होंने हत्याओं की योजना बनाई और उन्हें अंजाम दिया, इसके बारे में उनका कबूलनामा एक वीडियो में रिकॉर्ड किया गया है, जिसे अदालत के सामने भी, ट्रायल के दौरान, प्रदर्शित किया गया था। ट्रायल कोर्ट ने माना था कि, इन वीडियो टेपों का इस्तेमाल सबूत के तौर पर भी किया जा सकता है। ट्रायल कोर्ट के, इस तर्क को उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा था।"
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में आगे कहा,
"ट्रायल कोर्ट और अपीलीय कोर्ट दोनों ने अभियुक्तों के स्वैच्छिक बयानों और उनके वीडियोग्राफी बयानों पर भरोसा करने के, पूरी तरह से गलत किया है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत, एक आरोपी को खुद के खिलाफ गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। फिर, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 25 के तहत, एक पुलिस अधिकारी के समक्ष एक आरोपी द्वारा दिया गया इकबालिया बयान सबूत के रूप में अस्वीकार्य है।"
अदालत ने हाल ही में वेंकटेश चंद्रा बनाम कर्नाटक राज्य के एक फैसले का भी हवाला दिया | जिसमें इसी तरह के, ऑन्जर्वेशन, सुप्रीम कोर्ट ने दिए हैं।
अपील की अनुमति देते हुए पीठ ने कहा;
"अपराध वास्तव में भयानक था। फिर भी, अपराध को वर्तमान अपीलकर्ताओं से जोड़ कर देखना, कानून के अनुसार, उचित नहीं था। पुलिस को केवल, अभियुक्तों के कबूलनामे, जो वीडियो पर भी हैं, के ही आधार पर, उसे सुबूत मानते हुए, दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। कानून के स्थापित सिद्धांतों के तहत नहीं किया गया है।"
मामले का विवरण
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० मुनिकृष्णा कृष्णा बनाम राज्य यूआईसूर पीएस द्वारा
2022
० CJI उदय उमेश ललित, जस्टिस एस रवींद्र भट और सुधांशु धूलिया
प्रमुख कानूनी विंदु.
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० भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872; धारा 25, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973; धारा 161, ट्रायल कोर्ट और अपीलीय कोर्ट दोनों ही, अभियुक्तों के स्वैच्छिक बयानों और उनके वीडियोग्राफी बयानों पर भरोसा करने में पूरी तरह से गलत हो गए।
० एक पुलिस अधिकारी के सामने एक आरोपी द्वारा दिया गया इकबालिया बयान सबूत के रूप में अस्वीकार्य है।
० एक आरोपी द्वारा दिया गया बयान सीआरपीसी की धारा 161 के तहत पुलिस के लिए सबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं है।
(पैरा 13)
० परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मामले में, न्यायालय को प्रत्येक परिस्थितिजन्य संभावना की जांच करनी होती है, जिसे साक्ष्य के रूप में उसके सामने रखा जाता है और साक्ष्य को केवल एक निष्कर्ष की ओर इशारा करना चाहिए, जो कि अपराध है।
(विजय शंकर सिंह)
अच्छी जानकारी !
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