Tuesday, 8 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - दो (8)

“हमारे सभी वाहन टूट चुके हैं। अधिकांश वरिष्ठ अफ़सर 
मर चुके हैं। कई औरतें और सिपाही मारे जा चुके हैं। अगर बच गया है तो सिर्फ़ हमारा ब्रिटिश हौसला। न जाने वह भी कब तक बच पाएगा?”

- जनरल ह्यूग व्हीलर (कानपुर) द्वारा जनरल लॉरेंस (लखनऊ) को लिखी एक ख़ुफ़िया चिट्ठी, जून 1857

14 मई 1857 को कानपुर छावनी में कुल 170 ब्रिटिश सिपाही (अफ़सर मिला कर) और 3000 भारतीय सिपाही थे। ऐसे अनुपात में यूरोपीयों का भय स्वाभाविक था, ख़ास कर जब दिल्ली में कत्ल-ए-आम हो रहा था। फिर भी 67 वर्षीय जनरल व्हीलर आश्वस्त थे कि उनके भारतीय सिपाही उनका बहुत आदर करते हैं। 

कानपुर की छावनी मेरठ की तरह एक विशाल छावनी थी, जो गंगा किनारे छह मील लंबाई तक फैली थी। जब विद्रोह की खबरें आयी तो व्हीलर ने छावनी की परिधि में गड्ढा खोद कर उसकी मिट्टी बाहर की तरफ़ फेंकने का आदेश दिया। यह एक कामचलाऊ किलाबंदी थी, जिसमें बाहर गिरायी मिट्टी का महार तीन फ़ीट ही ऊँचा था। साथ ही कई जगह छेद भी रह गए थे। ऐसे गड्ढे बाहर से हमले से तो थोड़ी-बहुत रक्षा करते। लेकिन, छावनी के अंदर सिपाही बंदूक उठा लेते तो भागने का रास्ता नहीं मिलता!

उन्होंने छावनी की परिधि में दस तोप लगवा दिए, जो इतनी बड़ी छावनी के हिसाब से बहुत कम थे (पहले तो सात ही लगे थे, तीन बाद में आए)। उसके बाद जनरल व्हीलर ने अपने सहयोगी ढूँढने शुरू किये। पास ही बिठूर में नाना साहेब पेशवा से उनके पेंशन के विषय में चर्चाएँ चलती रही थी। व्हीलर को भरोसा था कि वह अपने पेंशन के लिए उनका साथ दे सकते हैं। उनका यह भी मानना था कि उनके मराठा सिपाही पुरबिया सैनिकों से कम घुलेंगे-मिलेंगे, और विद्रोह की संभावना कम होगी।

ब्रिटिश नैरेटिव के अनुसार नाना साहेब के दोनों हाथ में लड्डू थे। अगर ब्रिटिश जीत जाते, तो उनके द्वारा दिए गए सहयोग का मुआवज़ा पेंशन रूप में मिल जाता। वहीं, अगर सिपाही अंग्रेजों से जीत जाते, तो उनका पेशवा राज वापस मिल जाता। एक तरफ़ बिठूर के मराठा सिपाही छावनी में अंग्रेजों की रक्षा का दिखावा करते, दूसरी तरफ़ उनके लोग बाहर से जनता को भड़काते। अंग्रेज़ों का निष्कर्ष यही रहा कि नाना साहेब उनके साथ ‘डबल गेम’ खेल रहे थे। अगर यह निष्कर्ष ठीक था, तो भारतीयों से भी वह दोहरा खेल ही खेल रहे थे। लेकिन, दोनों तर्कों को मिला कर इसे ‘कूटनीति  की ढाई चाल’ कहा जा सकता है।

21 मई 1857 को नाना साहेब एक हाथी पर बैठ कर अपने सिपाहियों के साथ छावनी पहुँचे। उनके सिपाहियों का विवरण कुछ यूँ लिखा है, “उनका नेतृत्व एक पतली आवाज़ वाला दुबला ब्राह्नण ज्वाला प्रसाद कर रहा था, जिसके पीछे तीन सौ ढीले-ढाले सिपाही थे। फिर भी नाना साहेब का समर्थन पाकर खुशी हुई।”

बाद में उन्हें पता लगा कि ज्वाला प्रसाद स्वयं एक षडयंत्रकारी थे, जो पहले ही सेकंड कैवेलरी के सूबेदार टीका सिंह के साथ मिल कर विद्रोह की योजना बना चुके थे। 1 जून को सूबेदार टीका सिंह और हवलदार मेजर गोपाल सिंह की ख़ुफ़िया मुलाक़ात नाना साहेब और उनके भाई बाला राव के साथ एक नाव पर हुई।

जब इस ख़ुफ़िया मुलाक़ात की खबर अंग्रेजों तक पहुँची तो नाना साहेब ने ब्रिटिश अफ़सर हिलर्सडन को कहा, “मैं उन्हें यही समझा रहा था कि आप लोगों का विश्वास न तोड़ें, किसी तरह का विद्रोह न करें और आपके खजाने (treasury) की रक्षा करें”

5 जून को सेकंड कैवेलरी ने तीन गोलियाँ चला कर विद्रोह का आग़ाज़ कर दिया। उन घुड़सवारों का मुक़ाबला करने के लिए कोई यूरोपीय अफ़सर नहीं था, और वे बड़ी आसानी से खजाने तक पहुँच गए। वहाँ एक बूढ़े सूबेदार मेजर भवानी सिंह तलवार लेकर सामने खड़े हो गए। 

उन्हें घुड़सवारों ने कहा, “भवानी सिंह! हम बाग़ी हो गए हैं। आप भी इस बग़ावत के हिस्सा हैं”

भवानी सिंह ने कहा, “मैं इस सरकार का तब तक मुलाजिम हूँ, जब तक मैं इस्तीफ़ा नहीं देता। इस वक्त ख़ज़ाने की रक्षा ही मेरा कर्तव्य है। तुम मुझे मार कर ही वहाँ पहुँच सकते हो।”

बाग़ी सिपाहियों ने भवानी सिंह पर तलवार के कुंदे से प्रहार कर उन्हें गिरा दिया, और खजाना लेकर नवाबगंज़ की ओर निकल गए। इतने में फ़र्स्ट इंफ़ैंट्री के सिपाहियों ने बगावत कर दिया, और बंदूक हाथ में ले ली।

उनके कर्नल जॉन इवार्ट चिल्लाए, “मेरे बच्चों! यह ग़ुनाह मत करो। तुमने वादा किया था कि मेरा आखिरी दम तक साथ दोगे।”

उन्होंने जॉन इवार्ट पर गोली तो नहीं चलायी, मगर उन्हें गड्ढे में छोड़ कर आगे बढ़ गए। अब तो हर टुकड़ी बग़ावत कर रही थी। 

जमादार खुदाबख़्श छावनी में हुक्का पी रहे थे जब एक सिपाही भागे आए, “53वीं रेजिमेंट ने विद्रोह कर दिया है”

“मगर हमारी तो 56वीं है”

“हम भी विद्रोह कर रहे हैं”

“फिर तुम्हें मेरी लाश पर से गुजरना होगा”

“हम आपकी जान क्यों लेंगे? आप हमारे बुजुर्ग (सीनियर) हैं।”

इन संदर्भों से एक तरह का द्वंद्व झलकता है, जो अपने कर्तव्य को लेकर भारतीय सिपाहियों, ख़ास कर बुजुर्ग सिपाहियों के मन में था। उन्होंने कई वर्ष ब्रिटिश सेना में बिताए थे, और यह बग़ावत उनमें से कइयों से बिना विमर्श के अचानक की गयी थी। वे इस बदलाव से असहज हो गए थे। 

जनरल व्हीलर के पास ये खबरें पहुँच रही थी, और वह नाना साहेब से मंत्रणा की सोच रहे थे। वे भौंचक्के रह गए जब एक सूबेदार ने उन्हें बताया, “नाना साहेब के लोगों ने ही तो खजाना लूटा है!”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

1857 की कहानी - दो (7)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-7.html

No comments:

Post a Comment