सिपाहियों के विद्रोह में आज हम किनको नेता घोषित करें, यह हमारी अपनी प्राथमिकता हो सकती है, लेकिन इतिहास का साधारण पाठ करने वाला भी किसी एक को 1857 का नेता नहीं कह सकता। मेरठ से दिल्ली जा रही पहली टुकड़ी के सबसे अग्रिम सिपाही कौन थे? वह कौन थे, जो कानपुर की बग़ावत को ज़मीन पर लीड कर रहे थे? क्या वे दोनों किसी एक ही व्यक्ति के आदेश पर कार्य कर रहे थे?
मैं नेपथ्य से उकसाते या भड़काते लोगों की बात नहीं कर रहा। न ही ज़बरदस्ती थोपे गए नेता जैसे बादशाह ज़फ़र की बात कर रहा हूँ। क्रांतियों के नेतृत्व में यह छवि स्पष्ट दिखती है, जो कम से कम 29 मार्च (मंगल पांडे की घटना) से लेकर जून के प्रथम सप्ताह तक स्पष्ट नहीं थी। जब छावनियों ने विद्रोह कर दिया, नेता उभरने लगे। लेकिन, उनमें से एक भी इतने प्रभावी या जनसम्मत नेता नहीं थे, जिनकी हुंकार पर पूरा भारत साथ दे सके।
5 जून को कानपुर के सिपाहियों ने बग़ावत की, और छावनी से निकल कर नवाबगंज़ आ गए। लेकिन, मेरठ के विपरीत उन्होंने यूरोपीय लोगों की जान नहीं ली थी। उनका इरादा दिल्ली की ओर बढ़ कर भारतीय सिपाहियों का साथ देने का था।
नाना साहेब पेशवा से सिपाहियों ने वार्ता की, जिसका संदर्भों को मिला कर सपाट अर्थ है- “अब तक आपके सिपाही ब्रिटिश छावनी को समर्थन दे रहे थे। लेकिन, अब आप को खुल कर एक चुनना होगा। आप हमारे साथ हैं या ब्रिटिश के?”
“मेरा फिरंगियों से क्या लेना-देना? मैं तुम लोगों के साथ हूँ”, नाना साहेब ने कहा
“पेशवा साहेब! आप हम सबके सर पर हाथ रखिए। हम इन फिरंगियों को उखाड़ फेंकेंगे”
“ऐसा ही होगा। तुम लोग यहाँ से खजाना लेकर कल्याणपुर निकल जाओ। मैं वहाँ पहुँचता हूँ, और फिर साथ दिल्ली चलेंगे।”
जब सिपाही निकल गए, तो उन्होंने दीवान अज़ीमुल्ला ख़ान के साथ मशविरा किया। उन्होंने कहा, “अगर ये सिपाही दिल्ली निकल गए, तो हमारी ताक़त यहाँ कमजोर पड़ जाएगी। कानपुर छावनी में अभी फिरंगी बहुत कम हैं। इन्हें घेर कर हम अपनी शर्तें रख सकते हैं। हमें सभी बाग़ियों को जमा कर अपने सैनिकों में मिलाना होगा।”
नाना साहेब हाथी पर सवार होकर बाग़ियों की तलाश में कल्याणपुर निकले। वहाँ पहुँचते-पहुँचते आधी रात हो गयी। हज़ारों सिपाही कानपुर से 11 मील आगे कल्याणपुर के डाक बंगला के पास जमा थे।
नाना साहेब ने हवलदार टीका सिंह को समझाया, “दिल्ली का इरादा अच्छा है। मगर, छावनी में अभी बहुत खजाना, बारूद, हथियार बचे हैं। गंगा घाट के नीचे और गड्ढों में फिरंगियों ने बहुत कुछ छुपा रखा है। आप लोग बेहतर जानते हैं। हम पहले इन चंद फिरंगियों को जीत लें, फिर दिल्ली की ओर साथ कूच करेंगे।”
सिपाहियों में इस प्रस्ताव को लेकर कुछ मन-मुटाव होने लगा। कुछ लोग दिल्ली और कुछ लखनऊ जाने की भी बात करने लगे। कुछ को अपने भविष्य की चिंता होने लगी कि जीत के बाद उन्हें क्या वेतन मिलेगा?
नाना साहेब के सहयोगियों ने दोहरे वेतन और मुफ़्त भोजन का प्रस्ताव रखा। अंग्रेज़ों की क़िलाबंदी तोड़ने के लिए हर मुख्य सिपाही को एक सोने का कड़ा ईनाम की भी घोषणा हुई। फिर क्या था? आगे-आगे नाना साहेब की हाथी, और पीछे हज़ारों सिपाही ड्रम बजाते हुए नवाबग़ंज के पास एक मैदान में जमा हो गए। ज्वाला प्रसाद को बाग़ी सिपाहियों के साथ एक सेनापति का पद मिला, वहीं मराठा सैनिकों के सेनापति बने नाना साहेब के मित्र - तात्या टोपे।
तात्या टोपे ने कानपुर में पेशवा झंडा फहराया और आदेश दिया गया कि शहर के सारे ईसाइयों को मार डाला जाए। वहाँ से ही कानपुर में ईसाई नरसंहार की शुरुआत हुई, जिसमें ओल्ड रेसिडेंसी के हर ईसाई को घर घुस कर, दुकानों में छुपे लोगों को निकाल कर मारा गया।
उस समय छावनी के अंदर 280 यूरोपीय सिपाही/अफ़सर, 470 अन्य यूरोपीय नागरिक (परिवार आदि), 100 भारतीय नौकर, और 20 भारतीय सिपाही मौजूद थे।
नाना साहेब ने जनरल व्हीलर को चिट्ठी भेजी, “10 बजे सुबह (6 जून) हम आक्रमण करने की घोषणा करते हैं”
यह पहला संदर्भ है जब ब्रिटिश और भारतीय सेनाओं के मध्य नैतिक रूप से स्पष्ट युद्ध की घोषणा हुई। जहाँ दो सेनाएँ हों, उनके औपचारिक सेनापति हों, युद्धभूमि हो, अग्रिम संदेश दिए गए हों। भले ही यह असंतुलित था, और भारतीय सेना पूरे देश की सहमति से नेतृत्व नहीं कर रही थी।
एक अंग्रेज़ अधिकारी लेफ़्टिनेंट थॉमसन ने लिखा, “जनरल यह खबर सुन कर चौंक उठे, और पूरी छावनी को तुरंत मोर्चा संभालने के आदेश दिए। हम जहाँ भी, जैसी भी स्थिति में थे, भागे चले आए। हमने सामने खड़ी सेना को देखा। वे हमसे कहीं अधिक थे। हमने गड्ढे में छुप कर लड़ने का निर्णय लिया, मगर हम बुरी तरह घिर गए थे।”
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
1857 की कहानी - दो (8)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-8.html
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