मेरठ से चली लहर एक शृंखला की तरह यमुना और गंगा के किनारे बढ़ रही थी। मेरठ-दिल्ली के बाद कानपुर-फतेहगढ़ होती हुई इलाहाबाद और बनारस, और फिर पटना। छावनियाँ भी इसी पंक्ति में बनी थी क्योंकि उस वक्त नाव से यात्रा अधिक सुलभ थी। जैसे छोटी लहर केंद्र से बाहर की तरफ़ फैलती बड़ी लहर बनती जाती है, वह इस केंद्रीय धुरी से पूरे दोआब में पसर रही थी। इसका एक मुख्य केंद्र अगर दिल्ली था, तो दूसरा बन रहा था लखनऊ। कानपुर छावनी नेस्तनाबूद करने के बाद अगला तार्किक पड़ाव भी वहीं था।
लखनऊ में मुख्य कमिश्नर लॉरेंस तकनीकी रूप से अवध के राजा थे। लखनऊ के ब्रिटिश रेजिमेंटों में 7000 भारतीय सिपाही, और पूरे अवध में नवाब के कार्यकाल से चले आ रहे 20,000 भारतीय सिपाही थे। लेकिन, इतनी बड़ी रियासत के लिए उनके पास हज़ार यूरोपीय सैनिक भी नहीं थे! ब्रिटिश इंफ़ैंट्री मेरठ और कानपुर छावनियों से भी कमजोर थी। एक काबिल मेजर आउटरैम जिन्होंने नवाब वाजिद अली शाह से लखनऊ अपने हाथ में लिया था, वह फ़ारस युद्ध से लौटे नहीं थे। यह अंग्रेज़ों का रणनीतिक ब्लंडर कहा जा सकता है कि उन्होंने अवध को मामूली समझ लिया, और अपने सैनिक बढ़ाए ही नहीं।
अंग्रेज़ गोमती किनारे साठ एकड़ में फैली रेसिडेंसी में रहते थे, जिसका मेहराबी प्रवेश द्वार कहलाता- बेली गार्ड गेट। यह आज के जमाने के बिल्डरों की किसी बड़ी सोसाइटी की तरह था। अंदर ही उनके अपने ज़रूरत की दुकानें, शादी हॉल, गिरजाघर, अस्पताल बने थे। वहीं एक तीन मंजिले बंगले में कमिश्नर लॉरेंस रहा करते।
रेसीडेंसी के दक्षिण और पूर्व में नवाबों के ज़माने की खूबसूरत इमारतें थी। कैसर बाग पैलेस के सामने मोती महल। कुछ आगे बढ़ने पर छोटा इमामबाड़ा, बेगम कोठी, सिकंदरबाग। पहले इसे कैसरबाग़ के पास इसलिए बनाया गया था कि अंग्रेज़ नवाब पर नज़र रख सकें। अब मामला उल्टा था। लखनऊ के छह लाख़ लोगों की नज़रें इस छोटी सी रेसीडेंसी पर थी। अगर किसी अंग्रेज़ महिला को रेसीडेंसी के दरवाज़े से निकल कर बाहर कैसरबाग़ की ओर आना होता, तो वे उन घूरती निग़ाहों से ही घबरा जाती।
छावनियाँ रेसीडेंसी के करीब न होकर छितरायी हुई थी। उनकी बड़ी छावनियाँ तीन मील दूर मड़ियाँव में थी। एक छावनी उससे भी दो मील आगे मुदरीपुर में थी। एक गोमती पार थी। लॉरेंस ने अपने मन में रणनीति बना कर सभी यूरोपीय नागरिकों को रेसीडेंसी के अंदर रहने बुलवा लिया। सिकंदरबाग के निकट एक पुरानी लेकिन मजबूत इमारत ‘मच्छी भवन’ को बारूदखाने में तब्दील कर दिया। आगे योजना यह थी कि आस-पास की मस्जिदें, और कुछ ऊँची इमारतें उड़ा दी जाएँ, मगर उनके सलाहकारों ने समझाया कि मस्जिद गिराने से बवाल हो जाएगा।
एक ज़िक्र मिलता है कि मई के आखिरी महीने में लखनऊ बाज़ार में यूरोपीयों वेश-भूषा में खिलौने लगाए जाते, और लोग उस खिलौने का तलवार से सर काट कर आनंद लेते। 30 मई को मड़ियाँव की एक छावनी में 71वीं इंफ़ैंट्री के सिपाहियों द्वारा लेफ़्टिनेंट ग्रांट और ब्रिगेडियर हैंड्सकॉम्ब की गोली मार कर हत्या कर दी गयी। अगले दिन हरी झंडियाँ लहराते मुसलमानों ने शहर में दंगा करना शुरू किया और एक यूरोपीय मुंशी को मारा। लेकिन, लॉरेंस ने अपने जासूस लगा कर प्रमुख षडयंत्रकारियों को पकड़ लिया। वाज़िद अली शाह के भाई और कुछ सहयोगियों को भी गिरफ़्त में लिया गया। बनारस से आए बाइस लोगों को गोली मार दी गयी, और आठ लोगों को मच्छी भवन के सामने फाँसी पर लटका दिया गया।
लॉरेंस की किस्मत अच्छी थी कि जिन सिपाहियों ने विद्रोह किया था, वे लखनऊ आने की बजाय दिल्ली की तरफ़ निकल गए। लेकिन, विद्रोह की आग तो अभी शुरू ही हो रही थी। 3 जून को गोमती पार की एक छावनी में अंग्रेज़ अफ़सरों और उनके बीवी-बच्चों को मारा जाने लगा। कुछ अंग्रेज़ गोमती पार कर आने लगे, तो उन्हें खदेड़ कर मारा गया।एक मिसेज बार्नेस का संस्मरण है कि नदी किनारे कुछ तीर-धनुष लिए ग्रामवासियों ने उनकी और अन्य अंग्रेज़ों की रक्षा की। कुछ लोगों को मिठौली के राजा लोनी सिंह ने भी शरण दी (बाद में वह अंग्रेजों के ख़िलाफ़ हो गए)।
जून के दूसरे हफ्ते तक खैराबाद, फ़ैज़ाबाद, दरियाबाद, सुल्तानपुर, परसादीपुर, गोंडा हर जगह अंग्रेजों को मारा जाने लगा। अवध में ब्रिटिश प्रशासन पूरी तरह पस्त हो चुका था, और अधिकांश सरकारी सेवाएँ ठप्प पड़ गयी थी। इन सबके बावजूद लखनऊ की रेसीडेंसी आश्चर्यजनक रूप से सुरक्षित थी। ये छोटे-छोटे विद्रोह लखनऊ के इस गढ़ तक पहुँच नहीं रहे थे।
28 जून को कानपुर के सती चौरा घाट में मारे गए अंग्रेजों की खबर लखनऊ पहुँची। संकेत स्पष्ट थे कि लखनऊ अगला लक्ष्य होगा। 30 जून की सुबह रेसीडेंसी पर गोलियाँ चलनी शुरू हो गयी।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
1857 की कहानी - दो (16)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-16.html
No comments:
Post a Comment