“उन्हें यह भी ख़बर थी कि बाग़ियों ने खाने में आज क्या खाया है”
- कैप्टन हडसन के संबंध में एक ब्रिटिश अधिकारी
ख़ुफ़िया 1857 की नींव थे, जिनका दोनों पक्षों ने खूब प्रयोग किया। ‘चपाती आंदोलन’ के समय फ़क़ीर-संन्यासियों के भेष में ख़ुफ़िया घूमते रहे। वहीं, अंग्रेज़ों की नज़रबंद कानपुर छावनी से लखनऊ तक सूचनाएँ जाती रही। लाठियों, टोपियों, जूतियों में छुपा कर। यह अंदाज़ा लगाना कठिन है कि कौन किसके साथ था। स्वयं बहादुर शाह ज़फ़र किसके साथ थे।
अभिजात्य और व्यवसायी वर्ग के एंग्लोफिल (अंग्रेज़-प्रेमी) होने के कई वाज़िब कारण थे। उनकी नज़र में अंग्रेज़ बेहतर प्रशासक थे, आधुनिक शिक्षा और तकनीकों को ला रहे थे। उनकी सोच में सिपाहियों का विद्रोह भारत को आगे ले जाने के बजाय पीछे ले जा रहा था। नतीजतन दिल्ली में जासूसी एकतरफ़ा हो गयी। वहाँ क्रांतिकारी सिपाहियों और इंक़लाबियों का हुजूम था, खूब नारेबाज़ी होती, मगर अच्छे रणनीतिकार कम थे। दूसरी तरफ़, अंग्रेज़ फूँक-फूँक कर कदम रख रहे थे, शतरंज के खेल के धैर्य के साथ।
ब्रिटिशों के प्रखर और काबिल जासूसों में तीन नाम ऊपर उभरते हैं- एक थे काने मौलवी रज़ब अली जिन्होंने अंग्रेजों के लिए एक बहुत बड़ा ख़ुफ़िया तंत्र स्थापित किया; दूसरे थे मुंशी जीवन लाल, जिनका रोज़नामचा आज एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है; तीसरे थे बहादुर शाह ज़फ़र के समधी मिर्ज़ा इलाही बख़्श।
रज़ब अली रसूखदार व्यक्ति थे, जो ब्रिटिश प्रशासन में ऊँचे पदों पर रहे थे, और दिल्ली पर अच्छी पकड़ थी। आज भी उनके परिवार की शाखाएँ मौजूद हैं। उन्होंने लाल किले के अंदर और बाहर, हर जगह अपने जासूस तैयार किए। बहादुरशाह ज़फ़र की बेगम ज़ीनत महल और हकीम एहसान-उल्ला ख़ान तक को अंग्रेज़ों की तरफ़ मोड़ना शुरू किया।
मुंशी जीवन लाल तो लाल किले के एक तहख़ाने से ख़ुफ़िया गतिविधियों को अंजाम दे रहे थे। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है,
“मैंने बाग़ियों की जानकारी के लिए दो ब्राह्मण गिरधारी मिश्र और हीरा सिंह मिश्र, और दो जाट रखे थे, जो मुझे किले से बाहर की जानकारी लाकर देते, जिसे मैं बड़े साहबों को पहुँचाने का इंतज़ाम करता।”
आगे 1 जून को उन्होंने अपनी डायरी में खुलासा किया है,
“बादशाह ने मिर्ज़ा अबू बकर, मिर्ज़ा अब्दुल्ला और मिर्ज़ा मुगल बेग को बुला कर डाँटा कि वे बाग़ियों का साथ न दें, वरना एक दिन फाँसी पर लटकाए जाएँगे। बादशाह ने अपने भविष्य पर कहा-
कफ़न पहन कर ज़िंदगी की अय्याम
किसी बाग में गुजार दूँगा।”
ख़ुफ़िया काग़ज़ों में एक-एक चीज़ बारीकी से और मानचित्र बना कर लिखी जाती। कहाँ बंदूकें लगायी गयी हैं, कहाँ बारूद जमा है, कहाँ से पानी आ रहा है। टीले पर बैठे ब्रिटिश चाय पीते हुए इन्हें पलटते और अपनी रणनीति बनाते। इन खबरों के बदौलत जून के दूसरे हफ़्ते में ही अंग्रेज़ों ने कश्मीरी गेट तक अपनी पहुँच बनायी, और कई बाग़ी मारे गए, लेकिन जनरल बर्नार्ड उस वक्त वापस टीले पर लौट गए। जीवन लाल ने अपनी डायरी में संभावना लिखी है कि अंग्रेज उसी वक्त आगे बढ़ जाते तो दिल्ली जीत जाते।
10 जून से दिल्ली पर नियमित गोला-बारी शुरू हो गयी। दिल्ली वाले और स्वयं बादशाह अपनी-अपनी छतों पर बैठ कर यह युद्ध देखने जमा हो जाते। उनमें कई वहीं मारे जाते। कभी शाह बुर्ज़ गिरता, कभी कोई शाही दरवाज़ा। कोतवाल मोइन-उद-दीन ने लिखा है,
“हौज़ के इर्द-गिर्द तीस-चालीस दरबारी बैठे बादशाह का इंतज़ार कर रहे थे। जैसे ही बादशाह हज़ूर अपने कमरे से निकल कर हौज़ की ओर बढ़े, आसमान से तीन गोले आकर फट पड़े, और वह बाल-बाल बचे…बादशाह ने कहा- हम फिरंगियों को रोकने की बात कर रहे हैं, मगर इन गोलों की बारिश को अब कौन रोकेगा?”
19 जून को भारतीय सिपाहियों ने दिल्ली टीले पर जवाबी हमला किया। हमला प्रभावी रहा और कुछ इमारत बुरी तरह ध्वस्त हुए। मगर वहाँ कंपनी के गुरखा रेजिमेंट ने उन्हें टीले तक पहुँचने नहीं दिया। यह युद्ध अब रोज की बात थी। जून के अंत तक दिल्ली काले धुएँ के साये में रहने लगी। शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने लिखा,
“बिस्तर और कपड़े बेच-बेचकर जिंदगी गुजार रहा हूँ; गोया दूसरे लोग रोटी खाते हैं, मैं कपड़े खाता हूँ; डरता हूँ कि कपड़े सब खा लूँगा, तब आलमे बरहंगी, नंगे हालत में, भूख से मर जाऊँगा।”
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
1857 की कहानी - तीन (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-3_22.html
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