“प्रातः पाँच बजे जाग कर इत्र-सुगंधित जल से स्नान करती थी। उसके बाद वस्त्र धारण करती। साधारण तथा सफ़ेद चंदेरी साड़ी उन्हें पसंद थी। तदनंदर पूजा पर बैठ जाती। विधवा होते हुए प्रायश्चित अर्घ्य देती, तुलसी वृंदावन में तुलसी की पूजा करती। उसके बाद पार्थिव पूजा करती।
दरबारी संगीतज्ञ साम-गायन करते। कथावाचक कथा सुनाते। मांडलिक सरदार वंदना करते। दरबार के साढ़े सात सौ दरबारियों में एक भी अनुपस्थित रहता तो कारण पूछती। पूजा-पाठ के बाद नाश्ता करती। कोई विशेष कार्य न होता तो एक घंटे आराम करती।
उसके बाद चाँदी की थालियों में रेशम वस्त्र से लपेट कर उपहार दिए जाते। उसमें पसंद की चीजें रख कर शेष सेवकों में वितरित करने कह देती। अपराह्न तीन बजे पुरुष वेश में दरबार जाती। उनकी वेशभूषा होती- पाजामा, गहरे नीले रंग का कोट, सर पर टोप और उसके ऊपर एक सुंदर पगड़ी। बूटी के काम किया हुआ दुपट्टा अपनी कमर में बाँधते जहाँ से एक तलवार लटक रही होती। इस वेश में वह साक्षात गौरी दिखती थी।
पुरुष वेश के अतिरिक्त कभी-कभी स्त्री वेश भी पहनती। विधवा होने के कारण नथनी आदि सौभाग्य अलंकरण नहीं धारण करती। कलाई में हीरे की चूड़ियाँ। गले में मोतियों का हार। कनिष्ठा उंगली में हीरे की अंगूठी। बालों में जूड़ा। सफ़ेद साड़ी और सफ़ेद कंचुकी।
दरबारी उन्हें प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। उनका कक्ष अलग होता, जिसका दरवाज़ा दरबार में खुलता।”
- रानी लक्ष्मीबाई की दिनचर्या (मूल पुस्तक दत्रात्रेय बलवंत पारसनीस लिखित ‘महारानी लक्ष्मीसाहेब यांचे चरित्र’/ सावरकर की पुस्तक में भी उद्धृत)
मार्च से जुलाई 1857 की गतिविधियों को अगर सिपाही विद्रोह मान भी लिया जाए, तो जुलाई के बाद पारंपरिक युद्धों के उदाहरण मिलेंगे। उनमें संगठित सेनाएँ, सेनापति, मोर्चे और युद्ध-क्षेत्र मिलते हैं। अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम से उसकी अप्रत्यक्ष तुलना हो सकती है। इसे धर्म-युद्ध कह कर समेटना इसलिए कठिन है क्योंकि यह किसी दो धर्मों के मध्य युद्ध नहीं था। यह ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ़ कुछ रियासतों, ज़मींदारों, सिपाहियों, और आम नागरिकों के गुटों का संगठन था जो अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम में भी दिखता है। अंतर यह था कि वहाँ कि लड़ाई मूलतः ब्रिटिश मूल के लोगों और ब्रिटिशों के मध्य ही थी, जबकि भारत में यह भारतीय बनाम अंग्रेज़ थी। इस कारण भारतीय युद्ध को स्वतंत्रता संग्राम कहना अनुचित नहीं।
जैसा मैंने पहले लिखा है कि पहले कार्ल मार्क्स ने इसे ‘वार ऑफ़ इंडिपेंडेंस’ कहा, और उसके बाद विनायक सावरकर ने स्वातंत्र्य संग्राम। आज की तारीख़ में दो विपरीत विचारधारा के लोग अगर इस नामकरण से सहमत थे, तो यह इतिहासकारों के मध्य सिर्फ़ अर्थ-विद्या (semantics) का प्रश्न रह जाता है।
इस युद्ध में दिल्ली, लखनऊ और कानपुर के मुख्य मोर्चों की भूमिका पहले बन चुकी है। झाँसी की एक घटना का विवरण यहाँ आवश्यक है, जो दिल्ली, सती चौरा, शाहजहाँपुर, बरेली आदि स्थानों पर हो रहे युद्धेतर नरसंहारों की शृंखला में है।
क्रिस्टीना रोसेट्टी ने अलफ्रेड टेनिसन की तर्ज़ पर एक कविता लिखी ‘इन द राउंड टावर ऐट झाँसी’ जिसमें भारतीयों द्वारा ब्रिटिश अफ़सर स्कीन और उनकी पत्नी की हत्या का चित्रण है। यह कविता भारतीयों के खिलाफ़ है, और एक स्त्री कवि द्वारा एक रानी पर आक्षेप भी। लेकिन इससे सिद्ध होता है कि अंग्रेजों के मन में 1857 की छवि साधारण घटना नहीं बल्कि क्रीमिया युद्ध से मिलती-जुलती थी।
“वे सौ आए, हज़ार आए
नहीं बची किरण आशा की
गर्जन करते झुंड नीचे
बढ़ते गए, बढ़ते गए, बढ़ते गए”
[A hundred, a thousand to one; even so;
Not a hope in the world remained:
The swarming, howling wretches below
Gained and gained and gained.
Skene looked at his pale young wife:–
“Is the time come?”–“The time is come!”–Young, strong, and so full of life:
The agony struck them dumb.
Close his arm about her now,
Close her cheek to his,
Close the pistol to her brow–
God forgive them this!
“Will it hurt much?”–“No, mine own:
I wish I could bear the pang for both.”
“I wish I could bear the pang alone:
Courage, dear, I am not loth.”
Kiss and kiss: “It is not pain
Thus to kiss and die.
One kiss more.”–“And yet one again.”–
“Good bye”, “Good bye”]
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
1857 की कहानी - दो (19)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-19.html
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