Sunday, 27 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - तीन (6)

जिस कारतूस को लेकर विवाद हुआ, वही एनफ़िल्ड हार की वजह बन रही थी। इस राइफ़ल का निशाना 800 गज तक पक्का था, और भारतीय सिपाहियों के ‘ब्राउन बेस’ बंदूक से चौगुना प्रभावी था। इतिहासकार यह भी मानते हैं कि अंग्रेज़ जान-बूझ कर यही राइफ़ल अधिक प्रयोग कर रहे थे, ताकि बाग़ी सिपाहियों के सीने में वही कारतूस उतरे। यह एक तरह का मानसिक खेल था, जिसका असर 1857 के बाद दिखा।

इलाहाबाद से मेजर रेनॉड की टुकड़ी जुलाई की शुरुआत में कानपुर के लिए निकली। 7 जुलाई को स्वयं जनरल हैवलॉक इलाहाबाद से निकले। दूसरी तरफ़ कानपुर से लगभग 3500 भारतीय सिपाही उनसे लड़ने के लिए निकले। भारतीयों का सेनापति ज्वाला प्रसाद को बनाया गया, जिनके साथ दो कमांडर थे। एक घोड़े पर बैठे टीका सिंह, और दूसरे हाथी पर सवार तात्या टोपे।

नानकचंद और शेरर की डायरी के अनुसार 9 जुलाई तक एक यूरोपीय टुकड़ी मूरतगंज पहुँच चुकी थी, और 12 जुलाई को फ़तेहपुर। फ़तेहपुर में ही रेनॉड और हैवलॉक की सेना एक हो गयी। अंग्रेज़ों की टुकड़ी में जो भारतीय सिपाही थे, वे मुख्यतः मद्रास फ्यूजिलियर्स के दक्षिण भारतीय और फ़िरोज़पुर से आए सिख थे। शेष यूरोपीय सैनिक थे। शेरर अपने संस्मरण में यह भी लिखते हैं कि जब वे मार्च कर रहे थे, तो कुछ स्थानों को छोड़ कर अधिकांश स्थान वीरान थे। गाँवों के लोग फाँसी के डर से कहीं छुप गये थे।

फ़तेहपुर के पुल पर रेनॉड की छोटी टुकड़ी का मुक़ाबला विशाल भारतीय सेना से हुआ। हैवलॉक ने अपनी बड़ी टुकड़ी ठीक पीछे छुपा कर रखी थी, जो भारतीयों को नज़र नहीं आ रही थी (सावरकर के वर्णन में लिखा है कि अंग्रेजों ने तोप की बत्ती बुझा रखी थी)।

युद्ध पूरे जोश में धार्मिक जयकारों के साथ शुरू हुआ, किंतु ब्रिटिश हमलों के सामने टिक नहीं सका। विवरणों के अनुसार अंग्रेजों ने अगली पंक्ति में आठ तोप और सौ राइफ़लधारी रखे थे। उन्होंने ही अधिकांश को मार गिराया, और एक समय जब गोली एक हाथी को लगी तो भगदड़ मच गया। कैप्टन मॉड ने लिखा है,

“मुझे लगता है कि हाथी पर बैठे व्यक्ति तात्या टोपे थे, जिनके गिरने के बाद बाग़ियों का मनोबल गिर गया, और वह पीछे लौटने लगे। बाद में इस व्यक्ति (तात्या) ने हमें कई परेशानियाँ दी…हम कुछ समय बाद जब उस हाथी को देखने आगे बढ़े, एक अधमरा बाग़ी घुड़सवार नीचे गिरा था। वह हाथ जोड़ कर कह रहा था- अमन, अमन! हमें सख़्त हिदायत थी कि अब ऐसी कोई अपील नहीं सुनी जाएगी। हमने उसके सर में गोली मार दी।”

15 जुलाई को पांडु नदी के निकट एक बार और भिड़ंत हुई। वहीं, औंग गाँव में कैप्टन रेनॉड को जाँघ में गोली लगी और मारे गए। 16 जुलाई को महाराजपुर पहुँच कर ब्रिटिश सेना कानपुर की सीमा पर दस्तक दे चुकी थी। मगर, उन्हें मालूम पड़ा कि भारतीय पुनः संगठित होकर अहिरवा (वर्तमान कानपुर हवाई अड्डे के निकट) में उनका रास्ता रोकने के लिए खड़े हैं। 

वहाँ बाक़ायदा खंदक खोद कर, उसमें तोप बिठा कर क़िलाबंदी की गयी थी। अगर ब्रिटिश जोश में आगे बढ़ते, तो बुरी तरह मारे जा सकते थे। लेकिन, एक बार फिर हैवलॉक ने यह सूझ-बूझ दिखायी कि आगे बढ़े ही नहीं। महाराजपुर में रुक कर योजना बनाने लगे।

अगली सुबह जब ब्रिटिश निकले, तो उन्होंने देखा कि भारतीय पूरे जोश से लड़ रहे हैं, लेकिन रणनीतिक ग़लतियों से मारे जा रहे हैं। उस दिन हाथी पर सवार एक व्यक्ति ‘उठो! लड़ो! आखिरी बार’ कहते हुए भारतीयों को जागृत कर रहे थे। ब्रिटिशों का अनुमान था कि वह स्वयं नाना साहेब पेशवा थे, जिन्होंने बमुश्किल दो हफ्ते राज किया था। जो भी रहे हों, इस युद्ध में अंग्रेजों के दर्जनों सिपाही मारे गए।

अंततः अंग्रेज़ कानपुर नगर में घुस गए। अब उनकी अगली कोशिश थी कि नाना साहेब के शरण में रह रहे अंग्रेजों को मुक्त कराया जाए। लेकिन, उन्हें देर हो चुकी थी। 

शरणार्थियों को सर जॉर्ज पार्कर की बीवी के बंगले ‘बीबीघर’ में रखा गया था। वह जनाना घरों की तरह बाहर से बंद घर था, जिसके मध्य एक खुला आँगन और बाहर एक कुआँ था। वहाँ नाना साहेब की प्रिय तवायफ़ अदला की एक सेविका हुसैनी ख़ानुम ने उनकी ज़िम्मेदारी ले रखी थी। वह उनसे किसी क़ैदखाने की तरह चक्की पिसवाती, और स्वयं मसनद पर पान खाते बैठी रहती।

कानपुर हार के बाद उनका भविष्य तय किया जा चुका था। 15 जुलाई के 4.30 बजे दो रसूखदार अंग्रेज़ और एक चौदह साल के किशोर बीबीघर से बाहर लाये गये, और उनको गोली मार दी गयी। आधे घंटे बाद हुसैनी ख़ानुम ने अंदर अंग्रेज़ औरतों को बताया, “तुम सबको मारने का फ़ैसला लिया गया है।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - तीन (5) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-5_27.html 

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