Monday, 21 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - तीन (2)


                     चित्रः झोकन बाग,

जब रानी लक्ष्मीबाई की शर्तें डलहौज़ी ने नहीं मानी, तो झाँसी का किला कैप्टन स्कीन को सौंपना पड़ा। स्वयं रानी को एक दोमंजिला शाही महल और पाँच हज़ार मासिक पेंशन देकर शांत रखने की कोशिश की गयी। वह शांत तो नहीं रही। उनके और नाना साहेब के मध्य योजनाएँ बनने का एक प्रमाण तो कुछ चिट्ठियाँ हैं, दूसरी उनकी कार्यशैली (modus operandi) है। दोनों ही अंग्रेजों से संवाद बनाए रखते हुए गुप्त गतिविधियाँ कर रहे थे, जिसे कुछ ब्रिटिश वर्णनों ने, कपट कहा। 

मई, 1857 में कैप्टन स्कीन को सूचना मिली कि सिपाहियों में विद्रोह का षडयंत्र चल रहा है। दिल्ली से निकली एक चिट्ठी झाँसी की 12वीं इंफ़ैंट्री छावनी में मिला, जिसमें यह संदेश था- “जो सिपाही हमारा साथ नहीं देगा, वह हमारे जात का नहीं”। 5 जून को सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। कैप्टन स्कीन ने सभी ईसाइयों को झाँसी किले में बुलवा लिया, और अपनी क़िलाबंदी मज़बूत करने लगे। मगर उनके संसाधन बहुत कम थे।

8 जून को उन्हें विद्रोही सिपाहियों ने प्रस्ताव भिजवाया,

“अगर आप यह किला हमें वापस कर दें, तो हम आपके सभी लोगों को सुरक्षित रखने का वादा करते हैं।”

आगे के वर्णनों में अस्पष्टता है। छवि-निर्माण का दोतरफ़ा दबाव होता है और दस्तावेज पक्के नहीं मिलते। न ब्रिटिश इतिहासकारों और न ही भारतीयों में रानी लक्ष्मीबाई की शुरुआती भूमिका पर पक्की बात मिलती है। लेकिन, यह कम मुमकिन लगता है कि सिपाही-विद्रोह की पूर्व जानकारी उन्हें नहीं रही होगी।

कैप्टन स्कीन ने रानी को चिट्ठी भिजवायी, “आप सिपाहियों से यह हस्ताक्षरित आश्वासन दिलाएँ कि वह हमें सुरक्षित जाने देंगे।”

कानपुर में भी नाना साहेब के हस्ताक्षर कराने की बात कही गयी थी। यह अंग्रेज़ों को लगता होगा कि हस्ताक्षर पत्थर की लकीर है, मगर ऐसी कोई मान्यता 1857 के भारतीयों में नहीं दिखती। झाँसी के संदर्भ में यह भी वर्णित है कि लिखवाया गया- “अगर यह वचन तोड़ा गया, तो हिंदू गोमांस खाएँगे, और मुसलमान सूअर”। 

रानी से विमर्श के बाद सिपाहियों ने इस करारनामे पर हस्ताक्षर कर दिए। जब अंग्रेज़ झाँसी के किले से एक-एक कर निकल रहे थे, भारतीय सिपाहियों और नागरिकों का हुजूम यह नज़ारा देख रहा था। रानी लक्ष्मीबाई की आँखें अपने उस किले की वापसी देख रही थी, जो उनसे ‘हड़प नीति’ के तहत छीन लिया गया था। भले वास्तव में यह उतना फ़िल्मी न रहा हो, मगर घटनाक्रम कुछ यूँ ही थे।
                        मृतकों की सूची

किले के अंदर 18 पुरुष, 19 महिलाएँ और 19 बच्चे (कुल 56) यूरोपीय मूल के थे। उन सबको सिपाही बाहर निकाल कर झाँसी के एक छतरीदार बगीचे (अब मात्र मैदान) ‘झोकन बाग’ लेकर गए। वह स्थल उन दिनों झाँसी आने वाले संत-फ़कीरों का विश्राम-स्थल हुआ करता। उस दिन वहाँ उन्हें घेर कर तलवारों से काट दिया गया। एक गर्भवती महिला मिसेज मुटलो और उनके एक बच्चे को छोड़ कर हर अंग्रेज़ की हत्या कर दी गयी।

इस नरसंहार के बाद सिपाही हुंकार भरते हुए दिल्ली जाने की तैयारी करने लगे। 11 जून को पलटन दिल्ली रवाना हो गयी। 12 जून को रानी लक्ष्मीबाई ने सागर-नर्मदा क्षेत्र के कमिश्नर मेजर अर्सकिन को कुछ यूँ चिट्ठी लिखी, 

“मुझे इस बात का पश्चाताप है कि मैं आपके नागरिकों की रक्षा नहीं कर सकी। मेरे पास मात्र सौ-डेढ़ सौ रक्षक थे, जो उन सिपाहियों के लिए काफ़ी नहीं थे। बल्कि झाँसी के लोग और मैं स्वयं इस घटना के बाद घबराए हुए हैं।”

एक कुशल कूटनीति का नमूना 14 जून की अगली चिट्ठी में दिखता है,

“झाँसी और अन्य मुख्य नगरों की सुरक्षा के लिए हम अपनी सेना बढ़ा रहे हैं। किंतु हमें यूरोपीय आर्थिक सहयोग की आवश्यकता होगी, ताकि अनुशासन बना रहे।”

2 जुलाई को मेजर अर्सकिन ने उत्तर लिखा,

“मुझे आपके हरकारे भवानी और गंगाधर द्वारा 12 और 14 जून के पत्र प्राप्त हुए हैं, और सामग्री को समझ लिया है।

मुझे उम्मीद है कि जल्द ही मैं झांसी में व्यवस्था बहाल करने के लिए अधिकारियों और सैनिकों को भेजने में सक्षम हो जाऊंगा। यूरोपीय सैनिकों को तेजी से देश को अशांत जिलों में भेजा जा रहा है, लेकिन जब तक कोई नया अधीक्षक झांसी नहीं आता, मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि आप जिले का प्रबंधन करें। ब्रिटिश सरकार के लिए राजस्व एकत्र करना, आवश्यक पुलिस जुटाना और अन्य उचित सरकार अनुमोदित व्यवस्था करना आपका उत्तरदायित्व है। जब नए अधीक्षक कार्यभार लेंगे, तो आपको कोई परेशानी नहीं देंगे और आपके सभी नुकसान और खर्च के लिए भुगतान करेंगे।

मैं आपको फारसी और हिंदी दोनों में अपनी मुहर और हस्ताक्षर के साथ एक उद्घोषणा भेजता हूँ जिसके अनुसार- आप अगले आदेश तक ब्रिटिश सरकार के नाम पर जिले पर शासन करेंगी…

आप मेरे वचन पर निर्भर हो सकती हैं कि भारत के सभी हिस्सों में जल्द ही व्यवस्था बहाल हो जाएगी। जो विद्रोही दिल्ली में एकत्र हुए थे, लगभग सभी युद्ध में मारे जा रहे हैं। जिन ग्रामीणों द्वारा लूट और हत्या की गई थी, उन्हें फांसी दी जा रही है। मैं आपको दिल्ली पर कब्जा करने की उद्घोषणा की एक प्रति संलग्न करता हूं।”

ब्रिटिश इतिहासकार जॉन केये तक ने लिखा है कि उनके पास कोई प्रमाण नहीं कि रानी लक्ष्मीबाई की नरसंहार में भूमिका थी। यह बात तो जुलाई में लॉर्ड कैनिंग के कानों तक पहुँचनी शुरू हुई कि, बिना रानी के गुप्त आदेशों के यह नरसंहार संभव नहीं था। इतिहासकार सॉल डेविड के अनुसार -

‘झाँसी और सतीचौरा एक जैसी ‘मराठा’ सोच थी, जिसमें अपने पत्ते तब तक पूरे नहीं खोले जाते जब तक जीत पक्की न हो’
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - तीन (1) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-1_21.html

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