Wednesday, 16 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - दो (16)

कानपुर में कंपनी राज खत्म और पेशवा राज स्थापित हुआ, और दिल्ली में मुगल राज। मगर इनका सांकेतिक महत्व ही था। उन दिनों राज से अधिक अराजकता अधिक थी। आस-पास के कई ज़मींदार उनके राज को मानने को ही तैयार नहीं थे। मसलन बलरामपुर के ज़मींदार राजा दिग्विजय सिंह ने कहा, “मैं नहीं जानता कौन हैं ये नाना साहेब और क्या है ये पेशवा राज”। 

उसी तरह, बहादुरशाह ज़फ़र और उनके शहज़ादों पर दिल्ली के अंदर या बाहर बहुत अधिक सहमति नहीं थी। वे धन बहा रहे थे, फ़तवे निकल रहे थे, मगर उनका व्यापक महत्व धार्मिक अधिक था। प्रशासनिक सुधार की चर्चा उन घोषणापत्रों में नहीं थी। एक फौरी समझ यह भी थी कि पेशवा राज का अर्थ हिंदू राज और मुग़ल राज का अर्थ इस्लाम राज। मराठों और मुग़लों का यह द्वंद्व यहाँ दोहराने की ज़रूरत नहीं। 

इस संबंध में कुछ बेहतर स्थितियाँ रुहेलखंड में नज़र आती है। वहाँ भी ज़फ़र की तरह एक बयासी वर्ष के व्यक्ति ख़ान बहादुर ख़ान रोहिल्ला के हाथ में सिपाहियों ने सत्ता सौंपी। उन्होंने बरेली में बादशाह के सूबेदार रूप में पद लिया, खुशी राम और शोभा राम उनके सहायक बने। उनका राजकीय घोषणापत्र विनायक सावरकर ने अपनी पुस्तक में क्रॉसॉफ्ट विल्सन के मार्फ़त उद्धृत किया है,

“हिंदुस्तान देश के वासियों! स्वराज्य-प्राप्ति का दुर्लभ अवसर तुम्हें प्राप्त हो गया है। इस अपूर्व अवसर का तुम लाभ लोगे या फिसल जाने दोगे? हिंदू और मुसलमान बंधुओ! यह ध्यान रखना कि इस देश में अगर अंग्रेजों को रहने दिया तो वह हमारे धर्म और राष्ट्र का सत्यानाश कर देंगे। 

अंग्रेज़ों के फ़रेब के कारण आज तक हम हिंदुस्तानियों ने अपनी गर्दन अपने ही तलवार से काटी है। अत: इस गृह-क्लेश की ग़लती हमें ठीक कर लेनी चाहिए। अंग्रेज़ हमें यह कपटी सलाह देते आए हैं कि मुसलमान हिंदू से लड़ें, और हिंदू मुसलमानों से।

परंतु बंधुओं! आप उनके जाल में मत फँसना। हमारे चतुर हिंदू मित्र यह जानते हैं कि अंग्रेज़ भरोसेमंद नहीं। ये पृथ्वी से अन्य धर्मों को मिटाना चाहते हैं, हिंदू और मुसलमान, दोनों को कुचलते हैं। मैं अपील करुँगा कि हर मुसलमान जो कुरान पढ़ते हैं, हर हिंदू जो माता में श्रद्धा रखते हैं, वह फ़िरंगियों के ख़िलाफ़ इस युद्ध में सम्मिलित हों।”

इसी तरह, अलीगढ़ में भी एक पंचायत-स्वराज जैसी स्थिति बन रही थी। लेकिन, प्रशासनिक संरचना कहीं भी स्पष्ट नहीं थी। एक गाँव या एक जिले के कोतवाली और छावनी को हरा कर यह कहते कि हम आज़ाद हो गए। इस नीति से कुछ स्थान तो तीन हफ्ते से कम तक स्वतंत्र रहे। अंग्रेज़ों ने जल्द ही वापस अपनी पोज़ीशन बना ली।

अंग्रेज़ों को यह भरोसा था कि अगर दिल्ली पर पुन: क़ब्ज़ा कर लिया जाए, तो बाकी प्यादे-घोड़े अपने-आप ही कट जाएँगे। इस कारण जहाँ कानपुर में कहीं से कोई मदद नहीं दिख रही थी, वहीं दिल्ली में हर तरफ़ से फौज जा रही थी। अलीपुर तक जनरल बर्नार्ड की सेना आ चुकी थी। मेरठ से 27 मई को ब्रिगेडियर विल्सन की टुकड़ी ने कूच किया।

अंग्रेज़ों की इस सेना से लड़ने निकली मुग़ल सेनाएँ संख्या में अधिक किंतु अनुशासन में पिछड़ी थी। उन्हें सेना कहने के बजाय एक बाग़ी गुट कहना ही उचित होगा, क्योंकि उनका केंद्रीय नेतृत्व भी स्पष्ट नहीं था। मेरठ की तरफ़ हिंडन नदी के पास ग़ाजी-उद-दीन नगर (अब ग़ाज़ियाबाद) में बहादुरशाह ज़फ़र के पोते मिर्ज़ा अबू-बकर को एक गुट का मुखिया बना दिया गया था। वहीं, करनाल की तरफ़ ‘बदली की सराय’ में बादशाह के बेटे मिर्ज़ा खिज्र सुल्तान के नेतृत्व में सेना थी। उन्हें युद्ध का कोई अनुभव नहीं था। 

हिंडन नदी के पास युद्ध में मौजूद पहाड़गंज के बाग़ी कोतवाल मिर्जा मोइनुद्दीन हसन ख़ान ने लिखा है, 

“(मिर्ज़ा अबू बकर) पहली बार इस तरह की लड़ाई देख रहे थे। वह एक घर की छत पर बैठे थे। जैसे ही एक गोला फटा, वह छत से उतर कर एक घोड़े पर सवार होकर पीछे भाग गए। उन्हें इस हल्ले और गोली-बारी से कोफ़्त हो रही थी।”

वहीं, ‘बदली की सराय’ में भी मिर्ज़ा खिज्र-सुल्तान घोड़े पर सवार होकर भागने लगे। उन्हें वज़ीर महबूब अली ख़ान ने तलब की, तो कहा, 

“मैं कुछ असले (हथियार) के इंतज़ाम करने जा रहा हूँ”

यह कह कर वह भाग गए, मगर इन नौसिखिए सेनापतियों के बिना भी अंग्रेज़ों को ठीक-ठाक टक्कर मिली। आखिर अंग्रेजों ने इन दोनों को हराया और दिल्ली टीला (ridge) पर स्थित एक वीरान बाड़ा (बंगले) में जनरल बर्नार्ड और ब्रिगेडियर विल्सन की सेनाएँ आकर मिल गयी। यह बंगला एक मराठा राजपरिवार के व्यक्ति (और ब्रिटिश रेज़िडेंट के मित्र) राजा हिंदू राव का था, जो क्षेत्र आज बाड़ा हिंदू राव अस्पताल बन चुका है। इस टीले से पूरी दिल्ली बेहतर नज़र आ रही थी।

दिल्ली से निकाले जाने के एक महीने के अंदर ब्रिटिश सिपाही फिर से वर्तमान नॉर्थ कैम्पस इलाके में मंडराने लगे थे। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - दो (15) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-15.html


No comments:

Post a Comment