गांधी ने अब लोगों को, नमक कानून तोड़ने और अदालती गिरफ्तारी के लिए राजी करते हुए, गांव-गांव जाने का फैसला किया । इस बीच, उन्होंने, अपने अखबार के माध्यम से, महिलाओं से नमक कानूनों के खिलाफ, आंदोलन में भाग नहीं लेने के लिए कहा, क्योंकि 'वे पुरुषों के बीच कहीं खो जाएंगी। गांधी जी का महिलाओ के बारे में यह विचार, आज के समय को देखते हुए, प्रतिगामी लग सकता है, पर आज से लगभग 92 साल पहले, देश का समाज, महिलाओं के प्रति इतना उदार और खुला हुआ नहीं था, और न ही, महिलाओं में शिक्षा का प्रसार भी इतना था। ऐसी परिस्थितियों में, गांधी जी का इरादा, महिलाओं को, सत्याग्रह में, खुल कर शामिल होने के बजाय, उन्होंने, महिलाओ के लिए कुछ अन्य, रचनात्मक कार्य ढूंढने और करने के लिए कहा, जिससे, भारत के इतिहास में, वे अपनी छाप छोड़ सकें। महिलाओ के लिए उन्होंने शराबबंदी और नशा मुक्ति जैसे सामाजिक आंदोलनों से जुड़ने के लिए कहा। महिलाओं को, शराब बूथों पर धरना देने, पिकेटिंग करने और शराब के आदी लोगों का 'हृदय परिवर्तन' करने की जिम्मेदारी निभाने के लिए लिए कहा।
हालांकि, कमलादेवी चट्टोपाध्याय और पेरिन कैप्टन (दादाभाई नौरोजी की पौत्री) ने खुल कर, नमक सत्याग्रह में भाग लिया था। इन दोनों महिलाओं ने, गुजरात में धोलेरा नमक क्षेत्र में, नमक सत्याग्रह का नेतृत्व किया था। गांधी ने पेरिन कैप्टन और कमलादेवी चट्टोपाध्याय को, उनके इस साहस और शांतिपूर्ण सत्याग्रह करने के लिए बधाई दी, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि 'उन्होंने, पुरुषों की इस लड़ाई स्थल (नमक सत्याग्रह) से बाहर रह कर, अन्य सामाजिक कार्यों में अपना योगदान, बेहतर तरह से किया होता। कमलादेवी चट्टोपाध्याय और पेरिन कैप्टन, समाज के बेहद समृद्ध और अभिजात्य, वर्ग से आती थीं। वे, देश की उन लाखों करोड़ों, उन महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी, जो अनपढ़ और आर्थिक तथा सामाजिक रूप से पिछड़ी थी। फिर भी गांधी जी ने, कमलादेवी चट्टोपाध्याय को अपनी यात्रा और सत्याग्रह में, सम्मिलित होने से, मना कर दिया था। गांधी जी ने, महिलाओं को याद दिलाया कि, वे पूरी विनम्रता के साथ, "उनसे यह आशा करते हैं कि, महिलाएं, एक विशेष क्षेत्र (मद्य निषेध) कार्यक्रम में जुटने और, उन कर्करामों में, अपने सर्वोत्तम गुण दिखाने में सफल होंगी।"
गुजरात, और देश भर में, सत्याग्रह और जन आंदोलन की खबरें गांधी जी तक पहुंचाई जा रही थी। देश के कोने कोने से सत्याग्रह और लोगों द्वारा गिरफ्तारी की खबरें आ रही थी। इसी बीच पेशावर में एक बड़ी घटना हो गई। 23 अप्रैल को, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत में कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी के कारण पेशावर में अभूतपूर्व सामूहिक प्रदर्शन हुआ। पेशावर में, सत्याग्रह का नेतृत्व, सीमांत गांधी (फ्रंटियर गांधी) के नाम से प्रसिद्ध, खान अब्दुल गफ्फार खान कर रहे थे। खान अब्दुल गफ्फार खान भारत के इस नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर क्षेत्र में कई वर्षों से सक्रिय थे, और उन्होंने, एक संगठन, खुदाई खिदमतगार का गठन किया था। गांधी जी के सिद्धांतों पर संगठित यह संगठन, कोंग्रेस से अलग था। 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक सभा में शामिल होने के बाद ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने ख़ुदाई ख़िदमतगार की स्थापना की और पख़्तूनों के बीच लाल कुर्ती आंदोलन का आह्वान किया। विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी 3 वर्ष के लिए हुई थी। उसके बाद उन्हें यातनाओं की झेलने की आदत सी पड़ गई। जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए 'ख़ुदाई ख़िदमतग़ार' नामक संस्था की स्थापना की और अपने आन्दोलनों को और भी तेज़ कर दिया। 1937 में नये भारत सरकार अधिनियम के अन्तर्गत कराये गए चुनावों में लाल कुर्ती वालों के समर्थन से, काँग्रेस पार्टी को बहुमत मिला और उसने गफ्फार खान के भाई, खान साहब के नेतृत्व में मन्त्रिमण्डल बनाया जो, थोड़ा अन्तराल छोड़कर 1947 में भारत विभाजन तक काम करता रहा। नमक सत्याग्रह के दौरान हो रही गिरफ्तारियों के खिलाफ, खान अब्दुल गफ्फार खान के इस सगठन ने पेशावर में ब्रिटिश सरकार का प्रबल विरोध किया। पेशावर का यह अहिंसक प्रदर्शन, भारत के स्वाधीनता संग्राम में एक अहम स्थान इसलिए भी रखता है कि, इसी प्रदर्शन के दौरान, ब्रिटिश सेना के गढ़वाल रेजीमेंट की टुकड़ी जो, हवलदार मेजर, चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में, वहां तैनात थी, ने, अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया।
वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में हुआ था। उनके पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था, और वे एक किसान थे। 3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती हो गये। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। 1 अगस्त 1915 को, चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया। जहाँ से वे 1 फ़रवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद, अंग्रेजो ने, बहुत से सैनिकों को सेवा से निकाल दिया था और कुछ को पदावनत भी कर दिया था। चन्द्र सिंह को भी, जो हवलदार थे, जवान के पद पर पदावनत कर सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना से इस्तीफा देने का मन बना लिया। पर उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें समझाया गया कि, इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय के लिए घर जाने हेतु, सेना से, अवकाश भी दे दिया। अवकाश के दौरान ही, चन्द्र सिंह, महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये। पर बाद में, वे सेना में वापस चले गए। कुछ समय पश्चात इन्हें, इनकी बटालियन समेत, 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। जिसके बाद इनकी पुनः तरक्की हो गयी और इन्हें हवलदार बना दिया गया। बाद में, इन्हे, हवलदार मेजर के पद पर, पदोन्नत कर दिया गया।
पेशावर में जब नमक सत्याग्रह आंदोलन, जोर पकड़ने लगा तो, उन्हे, उनकी टुकड़ी के साथ, उस आंदोलन से निपटने के लिए, 23 अप्रैल 1930 को पेशावर, भेज दिया गया। गढ़वाल रेजीमेंट के कैप्टन रिकेट्स, जिन्हें, पेशावर में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए तैनात किया गया था, ने प्रदर्शनकारियों को चेतावनी देने के बाद भी, भीड़ को, तितर बितर न होने पर, गोली चलाने के आदेश दिए। इस आदेश पर, चंद्र सिंह गढ़वाली ने, निहत्थी जनता पर गोली चलाने से, साफ मना कर दिया। उनके, इस अवज्ञापूर्ण इस कृत्य ने, ब्रिटिश साम्राज्य को झकझोर कर रख दिया। हवलदार मेजर, चंद्र सिंह को, उसके साथियों सहित, जिन्होंने इस आदेश की अवज्ञा की थी, के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और उन सब पर, देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया। गढ़वाली सैनिकों का मुकदमा, पेशावर के ही एक एडवोकेट, मुकुन्दी लाल द्वारा अदालत में लड़ा गया। जिनके अथक प्रयासों के कारण, चंद्र सिंह को, मिली मृत्युदंड की सजा, आजीवन कारावास की सजा में बदल दी गई। 1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया।
जिसके बाद इन्हें अलग-अलग जेलों में स्थानान्तरित किया जाता रहा। पर इनकी सज़ा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को आजाद कर दिया। उनपर अपने घर, गढ़वाल जाने पर भी, सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा था। सरकार को आशंका थी कि, वे अपने इलाके वाले युवकों को ब्रिटिश राज के खिलाफ, भड़का सकते हैं। इसीलिये, वे कारावास से छूटने के बाद, वर्धा स्थित, गांधी जी के आश्रम, चले गये। गांधी जी इनसे बेहद प्रभावित रहे। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में, इन्होंने इलाहाबाद में रहकर, अपनी सक्रिय भागीदारी निभाई और फिर, भारत छोड़ो आंदोलन में, 3 तीन साल, जेल में भी रहे। बाद में, 1945 में इन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। स्वाधीनता के बाद, वह राजनीति में, आए और 1957 में गढ़वाल से ही, कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर, चुनाव लड़ा, पर वह, कांग्रेस के प्रत्याशी से, चुनाव हार गए। लंबी बीमारी के बाद वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का देहांत, 1979 में हो गया।
उस दौरान, देश में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जो स्वतंत्रता संग्राम और गांधी जी से प्रभावित न हुआ हो। चंद्र सिंह गढ़वाली भी, सैनिक होते हुए और ब्रिटिश राज की सेना में, अंग्रेजों की तरफ से युद्ध में भाग लेने के बावजूद, गांधी जी से प्रभावित हुए। एक रोचक, प्रसंग पढ़ें। जून 1929 में, महात्मा गांधी बागेश्वर, अल्मोड़ा (जो तब संयुक्त प्रांत में था, पर अब उत्तराखंड में है) आये थे और उन्होंने वहां एक जनसभा को संबोधित किया। उस जनसभा में, युवा चंद्र सिंह भी मौजूद थे। चंद्र सिंह, उस समय, अवकाश पर घर आये थे। चंद्र सिंह, ने अपनी सेना की टोपी पहन रखी थी। जनसभा में वे अपनी फौजी टोपी के कारण अलग ही दिख रहे थे। उनकी टोपी ने, गांधीजी का ध्यान खींचा। महात्मा ने उनसे पूछा कि "क्या वह सेना की टोपी से डरते नहीं हैं?" जिस पर युवा चंद्र सिंह ने यह कहते हुए उत्तर दिया कि, "यदि गांधीजी चाहें तो वे अपनी टोपी हटा सकते हैं।" तब गांधीजी ने उन्हें खादी की टोपी भेंट की। चंद्र सिंह ने गांधी की दी गई टोपी का सम्मान उस दिन रखा जब उन्होंने, निहत्थे, सत्याग्रहियों पर गोली चलाने का आदेश मानने से इनकार कर दिया। आज वे देश के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमर हैं।
सेना और पुलिस में, दो अपराधों की सज़ा, सेवा से बर्खास्तगी है। एक, आदेश का उल्लंघन और दूसरा, कायरता का प्रदर्शन। चंद्र सिंह के खिलाफ, आदेश न मानने को, देशद्रोह यानी आईपीसी की धारा 124A के अंतर्गत मुकदमा चलाया गया और आजीवन कारावास की सज़ा दी गई। इतिहासकार, इस बात पर भी चर्चा करते हैं कि, चंद्र सिंह, ने गोली चलाने के आदेश का उल्लंघन कर के, सेना के अनुशासन को तोड़ा, पर ऐसा करके, उन्होंने, पेशावर को, ब्रिटिश राज का दूसरा जलियांवाला बाग बनने से भी, बचा लिया। उन आदेशों का विरोध करके, क्या उन्होंने, कप्तान रिकेट्स को, उस बर्बर कृत्य की पुनरावृत्ति से, नहीं बचा लिया, जो उन्हें, 1919 के जलियांवाला बाग के हत्यारे, जनरल डायर के समकक्ष, इतिहास में खड़ा कर सकता था ? अंग्रेज़ इस बात को बिल्कुल नहीं भूले थे कि, जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद, ब्रिटिश लोकतंत्र और उदारवाद का नकाब उनके चेहरे से उतर गया था। उस बर्बर और अमानुषिक घटना के बाद, देश के वे उदारवादी और संविधानवादी नेता जो, ब्रिटश राज के पक्ष में यदा कदा खड़े रहते थे, वे भी ब्रिटिश राज के खिलाफ हो गए। यदि पेशावर में भी, जलियावाला बाग दुहरा दिया गया होता तो, उसके परिणाम की कल्पना की जा सकती थी। पर, हवलदार मेजर, चंद्र सिंह गढ़वाली के मन मस्तिष्क में, इस गंभीर, हुक्म उदूली के पीछे, यह सब, विमर्शपूर्ण बातें, निश्चय ही नहीं रही होगी। पर उनकी आत्मा ने, निहत्थे और अपने हक़ के लिये खड़ी भीड़ पर बर्बर रूप से गोली चलाने से, मना कर दिया। यह एक सैनिक की आत्मा थी, जिसने एक असैनिक कृत्य करने का आदेश मानने से इनकार कर दिया। जलियावाला बाग हत्याकांड और इसकी जांच के लिये गठित हंटर कमीशन की रिपोर्ट को लेकर, ब्रिटिश संसद में, जबरदस्त बहस भी हुई। लेकिन, चंद्र सिंह गढ़वाली ने, अपने आत्मा की आवाज़ की भारी कीमत भी चुकाई। इतिहास में ऐसे, कई विस्मृत नायक हैं, जिनके बारे में, कम ही चर्चा होती है। भारत सरकार ने, उनकी स्मृति में, एक डाक टिकट भी जारी किया। उत्तराखंड की पहाड़ियों में, उनको अत्यंत सम्मान के साथ याद किया जाता है। जलियांवाला बाग, जहां हर किसी को याद है, पेशावर की घटना के बारे में, लोगों को कम ही जानकारी है।
नमक सत्याग्रह की इतनी व्यापक प्रतिक्रिया हुई कि, सभी बड़े शहरों में, लाखों लोग, स्वयंस्फूर्त सड़कों पर निकल आए। पेशावर, कलकत्ता, मद्रास और शोलापुर में अहिंसक आंदोलन के साथ साथ, कहीं कहीं, हिंसक घटनाएं भी हुई। पेशावर में तो चंद्र सिंह गढ़वाली ने, निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर, गोली चलाने से मना कर दिया था, पर कराची और मद्रास में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए, पुलिस को गोली चलानी पड़ी। लेकिन, बहुत अधिक जन हानि नहीं हुई। करांची में पुलिस की गोली से, कुछ युवकों की मृत्यु हुई। उसका उल्लेख करते हुए, गांधीजी ने लिखा "बहादुर युवक दत्तात्रेय, कहते हैं, वह, सत्याग्रह को ठीक से जानता भी नहीं था, पर वह सत्याग्रह में, गोली लगने से मारा गया । 18 साल का युवा, मेघराज रेवाचन्द्र, भी गोली का शिकार हुआ। इस प्रकार कराची में, जयराम दास सहित कई मनुष्य घायल हुए।"
जब आंदोलन व्यापक होने लगा तो, सरकार ने उसे कुचलने के लिए सख्ती की। 23 अप्रैल 1930 को, बंगाल आर्डिनेन्स फिर से जारी कर दिया गया। प्रेस पर नियंत्रण के लिए 27 अप्रैल 1930 को, सरकार ने कुछ संशोधनो के साथ, 1910 के प्रेस एक्ट को, एक अध्यादेश के रूप में पुनः जारी कर दिया। इसका असर, गांधी जी के अखबार, 'यंग इण्डिया' पर पड़ा, जो अब साइक्लोस्टाइल कर के निकाला जाने लगा। इस पर गांधी जी ने कहा, "हमें महसूस होता हो या न होता हो, कुछ दिन से हमपर एक प्रकार से फोजी शासन, किया जा रहा है। यह फौजी शासन आाखिर है क्या ? यही कि सैनिक, अफसर की मर्जी ही, कानून बन जाती है। फिलहाल, वाइसराय वैसा अफसर है और वह, जहां चाहे, साधारण कानून को बालाय-ताक रख कर, विशेष आज्ञाएं, लाद देता है और जनता बेचारी, उसका विरोध करने का दम भी नहीं जुटा पाती। पर मैं कहता हूं कि, वे दिन, अब चले गए कि, अंग्रेज शासकों के फरमानों के आगे, इम चुपचाप सिर झुका दें। मुझे उम्मीद है कि जनता इस आर्डिनेन्स से भयभीत न होगी और अगर लोकतंत्र के, सच्चे प्रतिनिधि होंगे तो, अखबार वाले भी इससे नहीं डरेंगे। थोरो का यह उपदेश, हमें ह्रदयंगम कर लेना चाहिए कि, 'अत्याचारी शासन में, ईमानदार आदमी का धनवान रहना कठिन होता है।' हम चूं चपड़ किये बिना, अपने शरीर को ही अधिकारियों के हवाले कर देते हैं तो, हमें उसी भांति, अपनी सम्मति भी उनके सुपुर्द कर देने में क्यों हिचकिचाहट होनी चाहिए! इससे हमारे आत्मा की तो रक्षा होगी!"
डॉ पट्टाभि सीतारमैया की किताब कांग्रेस के इतिहास में, विस्तार से लिखे गए, गांधी जी के वक्तव्य में, आगे लिखा गया है, "इस कारण मैं सम्पादकों और प्रकाशकों से अनुरोध करना चाहता हूं कि वे जमानत देने से इन्कार कर दें और सरकार न माने तो, या तो वे, प्रकाशन बन्द कर दें, या सरकार जो कुछ करना चाहे, उसे कर लेने दें। जब स्वतन्त्रता की देवी हमारा द्वार खटखटा रही हैं, और उसे रिझाने को हज़ारों ने घोर यातनायें सहन की हैं, तो देखना, अखबार वालों को, कोई यह न कह सके कि, मौका पड़ने पर, वे पूरे खरे नहीं उतरे। सरकार टाइप और मशीनरी जब्त कर सकती है, परन्तु कलम और ज़ुबान को कौन छीन सकता है ? और असल चीज तो राष्ट्र की विचार-शक्ति है; वह तो किसी के दबाये, नहीं दब सकती।”
थोड़े दिन बाद गांधीजी ने अपने 'नवजीवन प्रेस' के व्यवस्थापक को कह दिया कि, बिल्कुल न झुका जाय और प्रेस जब्त होता है तो, ज़ब्त होने दिया जाय। 'नवजीवन' जाय, और उसके साथ साथ, नवजीवन प्रेस द्वारा प्रकाशित अन्य पत्र भी चल जाएं, कोई बात नहीं। पर, देश के अधिकांश पत्रकारों ने जमानत दाखिल कर दी। अब गांधीजी ने, जनता को, गांवों में ताड़ के सारे पेड़ काट डालने का आदेश दिया। उनका यह कार्यक्रम, ताड़ी के नशे के खिलाफ था। शुरुआत, उन्होंने अपने ही हाथों से की। 4 मई 1930 को, सूरत में आयोजित, महिलाओं की एक, सभा को संबोधित करते हुये वह बोले “भविष्य मैं तुम्हें तकली के बिना सभाओं में नहीं आना चाहिए। तकली पर तुम बारीक से बारीक सूत कात सकती हो । विदेशी कपड़ा पहले-पहल सूरत के बन्दरगाह पर उतरा था। सूरत की बहनों को ही इसका प्रायश्चित्त करना है ।" यहीं पर उन्होंने जातीय पंचायतों से अपनी मदिरा त्याग की प्रतिज्ञा पालन करने का अनुरोध किया । किन्तु नवसारी में सरकारी कर्मचारियों के सामाजिक बहिष्कार के विरुद्ध उन्हें, जनता को चेतावनी देनी पड़ी । नवसारी में जनता ने सरकारी कर्मचारियों का सामाजिक बहिष्कार शुरू कर दिया था। गांधी, इससे सहमत नहीं थे और उन्होंने ऐसा न करने के लिए उन्हे हिदायत भी दी।
गुजरात का खेड़ा जिला, सत्याग्रह का फिर से एक केंद्र बन गया था। खेड़ा जिला, सरदार पटेल की कर्मभूमि और प्रयोगभूमि थी। स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में, खेड़ा जिले की महती भूमिका रही है। पूरे देश मे, सत्याग्रह तेज हो रहा था। इसी बीच, गांधीजी ने अपने गुजराती पत्र, 'नवजीवन' में लिखा, “जनता ने शान्ति तो रक्खी है; किन्तु जोरदार, सामाजिक बहिष्कार करके, जनता में से कुछ ने क्रोध, द्वेष और हिंसा का परिचय दिया है। लेकिन, छोटी-छोटी बातों पर, सरकारी कर्मचारियों को फटकारा और तंग किया जाता है। इस तरीके से हमारी जीत नहीं होने वाली है। हमें मामलतदार और फौजदार के काम की बुराई का भण्डाफोड़ तो करना चाहिए, किन्तु उनका कठोर सामाजिक बहिष्कार करते समय भी, हमें माधुर्य्य और आदर-भाव नहीं छोड़ना चाहिए। अन्यथा किसी भी दिन दंगे होंगे, मामलत (और फौजदार वगैरा मर्यादा छोड़ देंगे। फौजदार ने तो छोड़ भी दी, बताते हैं। फिर जनता भी अपनी मर्यादा छोड़ दे तो, क्या आश्चर्य ? इसी प्रकार किसी की जबान चल जाय और उत्तर में दूसरे का हाथ चले तो उसे दोष भी कौन दे ? खेड़ा जिला के निवासियों को सावधान होकर, बहिष्कार की मर्यादा बनाए रखना चाहिए । उदाहरणार्थ, मैंने संकेत कर दिया है कि ग्राम कर्मचारियों का बहिष्कार उनके काम तक ही सीमित रहना चाहिए। उनकी आज्ञा न मानी जाय, परन्तु उनका, सामाजिक खाना पीना बन्द न होना चाहिए। उन्हें धरों से नहीं निकालना चाहिए । यदि हमसे इतना न हो सके तो, बहिष्कार का कार्यक्रम हमें छोड़ देना चाहिए ।"
(पट्टाभि सीतारमैया, कांग्रेस का इतिहास, भाग 1, पृ.311 )
गांधी के सत्याग्रह का मूल सिद्धांत, अहिंसा और असहयोग पर आधारित था। उन्होंने अपने हर सविनय अवज्ञा आंदोलन में, जनता को अहिंसा के मार्ग से विचलित न होने के लिए, बार बार कहा। उनका मूल मंत्र था कि, जनता की हिंसा को, चाहे वह कितनी भी तीव्र, संगठित और लक्ष्योचित हो, सत्ता उसका दमन आसानी से कर देती है। इसीलिए गांधी ने, जो राह चुनी वह अहिंसा पर आधारित थी, प्रतिशोध के विपरीत थी, और आतताई के हृदय परिवर्तन पर आधारित थी। यह अलग बात है कि, देश में, चलाए गए, तीन प्रमुख सविनय अवज्ञा आंदोलन, गांधी के सिद्धांतों के अनुसार, अहिंसक नहीं रह सके। पहला असहयोग आंदोलन, 1920 से 22 तक, चौरीचौरा कांड के कारण, गांधी जी को वापस लेना पड़ा। तब गांधी जी को यह कहना पड़ा कि, देश अभी सत्याग्रह और असहयोग के लिए तैयार नहीं है। दूसरा, यह, नमक सत्याग्रह था, जिसमें, बहुत रोकते रोकते भी, जगह जगह हिंसा हो ही गई। और अंतिम, भारत छोड़ो आंदोलन, वर्ष 1942 का था, जिसमें व्यापक पैमाने पर, इतनी हिंसा हुई कि, कहीं कहीं, अराजकता का माहौल बन गया। हिंसा एक अतिवादी प्रतिक्रिया है, जो जब कोई मार्ग नहीं मिलता है तो अचानक फूट पड़ती है। गांधी, इस प्रतिक्रिया से बचना चाहते थे।
नमक सत्याग्रह के दौरान, देश भर में हो रहे आंदोलनो में, कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेता, देश के किसी न किसी कोने से गिरफ्तार किए जा चुके थे, बस गांधी जी की गिरफ्तारी नहीं हो पाई थी। वायसरॉय लॉर्ड इरविन, गांधी जी की गिरफ्तारी को लेकर शुरू से ही दुविधा में थे। बल्कि वे, नमक सत्याग्रह की सफलता और इसके व्यापक प्रभाव को लेकर भी दुविधाग्रस्त रहे। उन्हे लगा कि, इस आंदोलन को, उन्हे नजरअंदाज करना चाहिए। जबकि गांधी जी को यह आशंका थी कि, वे 12 मार्च को, दांडी कूच के पहले ही गिरफ्तार कर लिए जायेंगे। ऐसी परिस्थिति में, कांग्रेस द्वारा क्या किया जायेगा, इस पर भी वे अपने सहयोगियों से चर्चा कर चुके थे। पर अब, जब नमक कानून, 6 अप्रैल को तोड़ दिया गया, जगह जगह यह कानून तोड़े जाने लगा, देश भर में, व्यापक आंदोलन फैलने लगा, तब भी, गांधी जी को सरकार ने गिरफ्तार नहीं किया। अब यह तेजी से स्पष्ट होता जा रहा था कि, सरकार का यह आकलन कि, आंदोलन में हस्तक्षेप न करने से, आंदोलन, खुद ही अपना असर नहीं बना पाएगा और उसकी हवा, निकल जायेगी। और इस प्रकार, गांधीजी की नमक सत्याग्रह की रणनीति विफल हो जाएगी। गांधी सरकार की इस भ्रामक रणनीति पर कहते हैं, "वास्तव में, सरकार, कभी भी यह स्पष्ट नहीं सोच पा रही थी कि, उसे किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। जैसा कि गांधीजी ने, खुद ही भविष्यवाणी की थी, "वह (सरकार) 'अचंभित और भ्रमित' थी।"
(क्लेक्टेड वर्क्स, महात्मा गांधी, 43:37)
नमक सत्याग्रह को लेकर, सरकार जिस दुविधा में, खुद को पा रही थी, वह दुविधा थी, अहिंसक सविनय अवज्ञा की गांधीवादी रणनीति। सरकार की यह दुविधा थी कि, यदि वह गांधी को, नमक सत्याग्रह करने और दांडी जाने से, रोक देती है, तो, उस पर, ज्यादती का आरोप लगता और तब तक कोई कानून टूटा भी नहीं था, तो गांधी जैसे वैश्विक व्यक्तित्व को, सरकार कब तक जेल में रख पाती ? फिर एक नया बखेड़ा खड़ा हो जाता कि, यह गिरफ्तारी अवैध है। यदि गांधी जी की गिरफ्तारी नहीं की जाती, और उनका नमक सत्याग्रह चलता रहता, तो सरकार, से पूछा जाता कि, आखिर, गांधी के खिलाफ, कार्यवाही क्यों नहीं हो रही है ? यानी, सरकार, यदि अपना कानून, टूटते हुए देख रही है और चुप है तो, फिर यह, लांछन सरकार पर आयेगा कि, वह एक कमज़ोर सरकार है, जो कानून का पालन नहीं करा पा रही है। और यदि, सरकार, एक अहिंसक आंदोलन को बल पूर्वक दबाती है तो, उसे एक क्रूर और जन-विरोधी शासन के रूप में भी देखा जाएगा, जिसने अहिंसक आंदोलनकारियों पर हिंसा का इस्तेमाल किया। यानी, 'अगर हम ज्यादा कार्यवाही करेंगे तो कांग्रेस 'दमन' का रोना रोएगी। . . यदि हम खामोश रहते हैं, तो कांग्रेस "जीत" का जश्न मनाएगी। सरकार की दुविधा कुछ इसी तरह की थी। गांधी अभी तक गिरफ्तार नहीं किए जा सके थे। उनका अभियान जारी था। वे निश्चिंत थे। उन्हें कोई दुविधा नहीं थी।
क्रमशः....
© विजय शंकर सिंह)
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