“हमें खबर मिली है कि हिंदुओं और मुसलमानों को, सिपाहियों और नागरिकों को, धर्म के नाम पर भड़काया जा रहा है। हम सदा से आपके धर्म का सम्मान करते आए हैं, और आगे भी करते रहेंगे…मैं सभी सिपाहियों और जनता से अपील करता हूँ कि अनुशासन और विश्वास बनाए रखें। किसी के बहकावे में आना आपके लिए समस्या ला सकता है।”
- लॉर्ड कैनिंग का घोषणापत्र, 16 मई, 1857
पेशवा का झंडा भले कानपुर में फहरा रहा हो, मराठा गढ़ यानी बॉम्बे प्रेसीडेंसी के किसी छावनी पर उनका झंडा नहीं लगा था। वहाँ अंग्रेज़ निश्चिंत थे। कलकत्ता में तो अंग्रेजों की पार्टियाँ चल रही थी। दिल्ली की घटना के बाद एक पार्टी में जब कुछ अंग्रेज़ एहतियातन तलवार लेकर आ गए, तो उन्हें लॉर्ड कैनिंग ने लिखित फटकार दी कि यहाँ ऐसी असुरक्षा का माहौल न बनाएँ। मद्रास प्रेसीडेंसी में भी दिल्ली की खबर से कोई फर्क नहीं पड़ा।
राजपूताना और पंजाब की रियासतों में दिल्ली से दूत पहुँचने लगे थे।
अंबाला के डिप्टी कमिश्नर डगलस फोरसिथ ने पटियाला महाराज से तलब की तो उन्होंने यह बात मानी कि लाल किले से कुछ ख़ुफ़िया लोग आए थे। उन्होंने आश्वासन दिया कि वे जब तक जीवित हैं, अंग्रेज़ों का ही साथ देंगे। लेकिन, यह भी जोड़ा कि यह बात वह खुल कर नहीं कह सकते।
राजपूताना में धीरे-धीरे हलचल शुरू हुई थी। नसीराबाद और नीमच छावनियों से सिपाहियों ने विद्रोह कर दिल्ली का रुख किया था। लेकिन, ऐसे कई राजा थे जो उस समय अंग्रेजों के मित्र थे या सहानुभूति रखते थे।
शिमला में आराम कर रहे जनरल ऐन्सन को दिल्ली की तरफ़ कूच करने की ज़िम्मेदारी मिली। उनके गुरखा बटालियन ने शर्त रख दी- जब तक वेतन नहीं बढ़ाएँगे, वे दिल्ली नहीं जाने वाले। एक रिपोर्ट के अनुसार गुरखा अंग्रेजों के निकलते ही शिमला लूटने की योजना बना रहे थे। दूसरी के अनुसार गुरखा दिल्ली पहुँच कर पाला बदलने की योजना बना रहे थे।
अंग्रेज़ों के लिए यह शंकाओं का दौर था। उन्हें हर भारतीय में दो चेहरे नज़र आ रहे थे। सिखों पर से भी उनका भरोसा डोल रहा था, और खबर मिल रही थी कि वे बंगाल रेजिमेंट के सिपाहियों से हाथ मिला सकते हैं। अंबाला छावनी में पहले ही एक विद्रोह हो चुका था। फ़िरोज़पुर छावनी में एक रात आस-पास से तीन सौ लोग आकर गिरजाघर और कुछ बंगले जला गए। हालाँकि इन छावनियों में सिखों की अनुशासनहीनता के स्पष्ट प्रमाण उन्हें नहीं मिले। संभवत: इसमें पुरबिया सिपाहियों और छावनी के बाहरी तत्वों की भूमिका थी।
16 मई को लॉर्ड कैनिंग ने सिलॉन (श्रीलंका) और लंदन चिट्ठी भेजी कि जल्द से जल्द यूरोपीय सैनिकों के कम से कम तीन रेजिमेंट भेजे जाएँ। उन्हें कुछ राहत मिली जब फ़ारस (ईरान) में युद्ध-समाप्ति के आसार बने। अब वहाँ से ब्रिटिश सेना लौटने वाली थी।
फिर भी, दिल्ली से अवध तक की त्वरित सुरक्षा कठिन थी। रेलवे लाइनें अभी बिछ ही रही थी। मद्रास से अगर सिपाहियों को भेजना होता, तो दो हफ़्ते लग जाते। टेलीग्राफ लाइन टूटते रहने से सूचनाएँ देर से पहुँच रही थी। कानपुर छावनी से ख़ुफ़िया जासूसों के माध्यम से लखनऊ या कलकत्ता खबर भेजी जा रही थी।
जिस समय नाना साहेब पेशवा के नेतृत्व में कानपुर छावनी का घेराव हो रहा था, उस समय कहीं दूर पेशावर के परेड मैदान में चालीस बाग़ी सिपाहियों के हाथ बाँधे जा रहे थे। उन सभी को तोप से बाँध दिया गया। जनरल निकोलसन के आदेश पर एक साथ सभी तोप चलाए गए। उस खूबसूरत घाटी ने इतना धुआँ शायद ही कभी देखा होगा, जब कई-कई फीट तक चीथड़े उड़ गए, और राख से सनी चालीस खोपड़ियाँ आकाश में बिखर गयी।
मैं उन चालीस गुमनाम सिपाहियों के नाम ढूँढ रहा हूँ। जनरल निकोलसन का नाम तो आगे भी आएगा, जब दिल्ली के कश्मीरी गेट में युद्ध लड़ते हुए एक गुमनाम भारतीय सिपाही की गोली से वह मारे जाएँगे।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
प्रवीण झा / 1857 की कहानी - दो (9)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-9.html
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