कानपुर से पहले पेशावर की चर्चा करने का उद्देश्य यह भी है कि हम पूरी क्रोनॉलॉजी को समझते चलें। अंग्रेज़ों ने कानपुर नरसंहार और ऐसी अन्य हिंसक घटनाओं के कारण अपने क्रूर दमन को न्यायोचित ठहराया। लेकिन, हमें यह भी स्मरण रहे कि कानपुर से पहले उन्होंने किस तरह के न्याय किए थे।
पेशावर में किसी अंग्रेज़ अफ़सर की हत्या या कोई आगजनी नहीं हुई थी। यह 51वीं और 55वीं इंफ़ैंट्री के दो सौ से अधिक सिपाहियों का परित्याग (desertion) था, जिसकी सजा कोर्ट-मार्शल थी, या मेरठ की तरह कारावास दिया जा सकता था।
लेकिन निकोलसन ने कहा, “कोर्ट मार्शल नहीं, सबको मृत्यु दी जाए”
मृत्यु भी फाँसी के बजाय तोप से उड़ाने के द्वारा दिया गया, जिसके पीछे तर्क दिया कि मुगल भी यूँ ही सजा देते थे। फिर ब्रिटिश न्याय का उनका दंभ ही फ़िज़ूल है। निकोलसन ने खुल कर पहले भी कहा था, “मैं हिंदुस्तानियों से नफ़रत करता हूँ”
बाद में जब वह जालंधर आए, तो उन्हें एक बार भोजनालय पहुँचने में देर हुई। उन्होंने कहा, “मैं तुम्हारे रसोइयों को फाँसी पर लटकाने में व्यस्त था”
अफ़सरों ने बाहर जाकर देखा। पीपल के पेड़ पर रसोइए लटक रहे थे। निकोलसन के अनुसार उन्होंने खाने में जहर मिलाया था (जो संभवत: सत्य था)।
मेरठ और दिल्ली के आस-पास के गुर्जरों और मेवातियों ने संगठित रूप से छावनियों और अंग्रेज़ी ठिकानों पर हमले किये, लेकिन उनके साथ क्या हुआ, इस पर विस्तृत चर्चा मैं अंतिम खंड (Aftermath) में करुँगा। अंग्रेज़ों का रवैया शुरू से ही क्रूर रहा। उन्होंने अपनी न्याय-पद्धति मनमानी बना ली थी, जिसमें संवाद का स्थान ही नहीं छोड़ा।
19 मई को अलीगढ़ छावनी के निकट किसी विवाह में सिपाहियों ने एक ज़मींदार को कहते सुना, “हम ही तो छावनी में आग लगाए”। अगले दिन उन ज़मींदार को पकड़ कर परेड मैदान लाया गया, और सिपाहियों के सामने फाँसी पर लटका दिया गया। यह दृश्य देखते ही सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। उस वक्त मुज़फ़्फ़रनगर, इटावा, बुलंदशहर, मैनपुरी हर जगह विद्रोह हो रहे थे, और खजाने लूटे जा रहे थे। इटावा के एक राव भवानी सिंह का ज़िक्र मिलता है, जिन्होंने अंग्रेजों की मदद की, और लूट से बचाया। वहीं, खैर के राव भूपाल सिंह अंग्रेजों से लड़ते हुए 1 जून को मारे गए।
यह सभी घटनाएँ कानपुर घेराव से पहले की हैं। यूँ कह सकते हैं कि दिल्ली से बाहर की तरफ़ पसरती इस आग का एक सम्मिलित रूप कानपुर में दिखा।
शिमला से निकले जनरल ऐन्सन अपनी सेना लेकर 25 मई तक करनाल पहुँच चुके थे। जिंद के राजा स्वरूप सिंह ब्रिटिश सेना से जुड़ गए, और उनकी मदद से अंग्रेजों को काफ़ी बल मिला क्योंकि उनकी सेना इलाक़े से वाक़िफ़ थी। लेकिन, अगले ही दिन जनरल ऐन्सन की हैजा से मृत्यु हो गयी।
इस अचानक मृत्यु के बाद कमान जनरल बर्नार्ड ने संभाली, और उसके बाद तो वीभत्स कत्ल-ए-आम शुरू हुआ। करनाल से अलीपुर की तरफ़ बढ़ रही सेना के लेफ़्टिनेंट कर्नल कॉगहिल ने लिखा है,
“हम रास्ते के सभी गाँवों को जलाते गए। जो भी गाँव वाला दिखता, उसे लटकाते चलते। हम यह तब तक करते रहे, जब तक रास्ते के हर पेड़ पर एक हिंदुस्तानी नहीं लटक गया।”
यह कैसा रोमन जमाने का न्याय था? एक और अफ़सर का ज़िक्र सॉल डेविड करते हैं, जिन्होंने अपनी पत्नी को उत्साही चिट्ठी लिखी,
“हमने ग्यारह गाँव वालों को लटकाया। हमें इतना आनंद आ रहा था कि भोजन छोड़ कर हम इसी जुगत में लगे थे कि कितनी रस्सी लगेगी, और कैसे लटकाने से वे मरते चले जाएँगे।”
1 जून की घटना के एक संदर्भ में कथन है,
“हमें मालूम पड़ा कि इस गाँव के लोगों ने दिल्ली से भाग कर आयी यूरोपीय महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया है। हमने उन्हें पकड़ कर उनके दाढ़ी और बाल काट दिए, और पूरे शरीर पर सूअर का माँस रगड़ दिया (संभवत: मुसलमान होंगे)। उनका धर्म हमने भ्रष्ट कर ही दिया था, तो यूँ भी उन्हें दोज़ख़ ही नसीब था। उन्हें पेड़ों से लटका कर हमने वह उन्हें दे दिया।”
ऐसे क्रूर कथन तो स्वयं अंग्रेजों के ही हैं। कानपुर में जब ऐसी खबरें पहुँच रही होंगी, तो इसका क्या असर हो रहा होगा? लखनऊ में क्या हो रहा होगा?
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
1857 की कहानी - दो (10)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-10.html
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