चित्र: यमुना पुल (ब्रिज ऑफ बोट्स) की तस्वीर, 1858 [अब मौजूद ‘लोहे का पुल’ 1866 में और बाकी पुल बाद में बने]
मेरठ में कुल 41 यूरोपीय मारे गए, जिनमें आठ अफ़सर, बारह सिपाही, आठ औरतें, आठ बच्चे, चार पुरुष (ग़ैर-सैनिक), एक सर्जन थे। उनकी कब्र आज भी मेरठ के सेंट जॉन सीमेट्री में मिल सकती है। एक स्थिति जो संस्मरणों में दिखती है कि भारतीय सिपाहियों ने अपनी लड़ाई में एक अनुशासन रखा। वहीं, आम नागरिकों की दंगाई छवि भी बनी।
मेरठ में एक मुसलमान कसाई का ज़िक्र मिलता है, जो औरतों का गला काट रहे थे। वहीं, पड़ोसी गाँव के गुर्जरों को अंग्रेज़ों ने ‘बदमाश’ (Budmaash) कह कर संबोधित किया है, जिन्होंने बंगले जलाए, आम ब्रिटिशों पर हमले किए। ख़ास कर एक चेचक मरीज को जलाए जाने, वृद्ध स्त्रियों को मारने और एक बच्ची की खोपड़ी को कुल्हाड़ी से दो टुकड़े करने का विवरण लंदन पहुँचा। नगर कोतवाली, जहाँ ब्रिटिश सैनिक अक्सर यूँ ही तफ़री मारने आते, वहाँ उन्हें निहत्था देख आम जनता द्वारा आक्रमण का ज़िक्र है।
इस कारण अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम से इस घटनाक्रम को पूरी तरह अलग कर देखा जाने लगा। अमरीका में भी एक तरह से विद्रोह ही था, लेकिन वहाँ दो संगठित सेनाएँ आमने-सामने लड़ी थी। किसान और आम नागरिक युद्ध में शामिल हुए थे, किंतु विद्रोही सेना में भर्ती होकर। भारत में सिपाहियों या क्षत्रपों के नेतृत्व में जो संगठित युद्ध हुए, उनकी चर्चा दोनों पक्ष अधिक आदर से करते हैं। लेकिन, जो मेरठ और अन्य जिलों में नस्लीय दंगा रूप में हो रहा था, वह भारत की नैतिक ज़मीन कमजोर कर रहा था। विश्व की खबरों में एक हुकूमत के ख़िलाफ़ क्रांति के बजाय ईसाई-विरोधी निर्मम हिंसा को अधिक तवज्जो दी जाने लगी।
हालाँकि कार्ल मार्क्स ने अपने न्यूयार्क टाइम्ज़ लेखों में इसे बारंबार जायज़ ठहराया और लिखा,
“चाहे ये घटनाएँ कितनी भी बदनाम हों, यह ब्रिटिशों द्वारा किए गए अत्याचारों का ही संग्रहित (concentrated) रूप है, जो उनको वापस मिल रहा है। इसे प्रतिदण्ड (retribution) कहते हैं…क्या विदेशी आक्रमणकारियों को अपने देश से निकालना गुनाह है?”
10 मई की रात के ग्यारह बजे तक कुछ-न-कुछ घटनाएँ होती रही, लेकिन जैसे-जैसे यूरोपीय सैनिक एकत्रित होते गए, भारतीय सिपाही मेरठ से आगे निकल गए। सात बजे सायं के बाद जो आगजनी हो रही थी, वह आस-पास के ग्रामवासी कर रहे थे। नौ बजे सिपाही मेरठ के रीतानी (रिठानी) गाँव में जमा होकर आगे का निर्णय ले रहे थे।
वहाँ सिपाहियों का मन रूहेलाखंड या आगरा की तरफ़ बढ़ने का होने लगा, जहाँ उनके अपने गाँव थे। लेकिन, इस मंडली में साथ आए कुछ नागरिकों ने उन्हें दिल्ली जाने पर राज़ी कर लिया। वजह थी कि दिल्ली पास था, वहाँ फौज कम थी, और वहाँ नाममात्र ही सही लेकिन एक बादशाह रहते थे। ये कौन लोग थे जो सिपाहियों को रास्ता दिखा रहे थे, यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता।
मेरठ छावनी के मुखिया मेजर जनरल हेविट को यह उड़ती खबर पहले ही मिल गयी थी कि ‘दिल्ली चलो’ के नारे लग रहे हैं, लेकिन उन्होंने अपनी छावनी को सुरक्षित रखना अधिक ज़रूरी समझा। भारतीय सिपाहियों के पीछे घोड़े नहीं दौड़ाए गए, जबकि 1750 से अधिक यूरोपीय सैनिक मेरठ में मौजूद थे और रुड़की से भी बैक-अप जुड़ रहे थे। एक अफ़सर जॉन लॉरेंस ने बाद में लिखा,
“इस हेविट ने हमारा 5000 पांडे से अधिक नुकसान किया”
सिपाहियों ने चार बजे शाम को ही मेरठ-दिल्ली की टेलीग्राफ़ लाइन काट दी थी। यह संभव है कि दिल्ली की योजना पहले से तय थी। विद्रोही सिपाहियों में मुसलमानों की बहुलता भी आखिरी मुगल गढ़ ‘लाल क़िले’ की ओर ले जाने का कारण हो सकती है। लेकिन, सबसे स्पष्ट कारण तो यही लगता है कि दिल्ली का एक प्रतीकात्मक महत्व था। आखिर यह भारत की राजधानी रही थी।
एक गवाही यह भी मिलती है कि लाल क़िले में अप्रिल में ही एक चिट्ठी आ गयी थी कि मेरठ से सिपाही आएँगे। इसकी पुष्टि ब्रिटिशों के जासूस और 38 वीं इंफ़ैंट्री के सिपाही जाट मल ने भी की, जो लाल किले आते रहते थे।
11 मई की सुबह सात बजे यमुना पुल (ब्रिज ऑफ बोट्स) के नाके पर बीस भारतीय घुड़सवार पहुँच गए। उन्होंने नाका कर्मचारी को मार दिया, और एक यूरोपीय व्यक्ति जो सुबह की सैर पर थे, उन्हें मार कर यमुना में फेंक दिया।
पुल पार कर एक सिपाही सीधे कलकत्ता गेट की तरफ़ बढ़े। बाकी, बायें मुड़ कर लाल किले के ‘जेर झरोखा’ (बादशाह की बाल्कनी) के पास पहुँच गए। कलकत्ता गेट पर पहुँचने वाले घुड़सवार सीधे वहाँ तैनात 38 इंफ़ैंट्री के भारतीय सिपाही के पास पहुँचे। उन्हें देख कर एक ब्रिटिश अफ़सर डगलस ने नीचे आकर पूछा,
“तुम कहाँ से आए हो, सवार? क्या चाहिए?”
उनका ज़वाब कुछ यूँ दर्ज़ है,
“हम मेरठ छावनी के बाग़ी हैं। अभी-अभी दिल्ली पहुँचे हैं। गार्ड से हुक्का-पानी पूछ रहे हैं।”
डगलस यह उत्तर सुन सन्न रह गए। उन्होंने जब तक गिरफ़्तार करने के आदेश दिए, घोड़ा और सवार आँखों से ओझल हो चुके थे।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
1857 की कहानी - दो (5)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-5.html
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